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    Home»विशेष»नीतीश की जातीय राजनीति में पिस रहा है बिहार का विकास
    विशेष

    नीतीश की जातीय राजनीति में पिस रहा है बिहार का विकास

    adminBy adminMay 7, 2023No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    -राज्य के विकास का मुद्दा बिगाड़ सकता है महागठबंधन का सियासी खेल
    -बड़ा सवाल: तब बिहारियों को अपने पक्ष में कैसे साध सकेंगे सुशासन बाबू

    बिहार में इन दिनों अजीब सी सियासी खामोशी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ड्रीम प्रोजेक्ट यानी जातीय गणना पर हाइकोर्ट ने रोक लगा दी है, तो दूसरी तरफ राज्य के विकास का मुद्दा चुनौती बन कर उनके सामने खड़ा हो गया है। इतने दिनों तक बिहार के लोगों को जातीय गणना का टैबलेट देकर नीतीश कुमार ने बेसुध नहीं, तो कम से कम ऊंघती अवस्था में जरूर ला दिया था, लेकिन अब उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि हाइकोर्ट के आदेश के बाद वह क्या करें। नीतीश के सामने एक तरफ उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, तो दूसरी तरफ बिहार की सत्ता और इन दोनों के बीच फंसा राज्य का विकास, जिसे पटरी से उतरे काफी दिन गुजर गये हैं। हालत यह है कि पिछड़ते बिहार की कोई भी आवाज जातीय राजनीति के शोर में गुम हो जा रही है। नीतीश कुमार ने शराबबंदी के बाद जातीय गणना का फैसला लेकर बड़ा राजनीतिक दांव खेला था। उन्हें उम्मीद थी कि बिहार में जातीय राजनीति के आगे हर मुद्दा फीका पड़ जाता है। इसलिए यदि अभी इसे हवा दी जाये, तो मिशन 2024 की नदी को इसके सहारे आसानी से पार किया जा सकता है। लेकिन अब हाइकोर्ट की रोक के बाद सुशासन बाबू के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। यह हकीकत है कि बिहार पिछले एक साल में विकास के मामले में लगातार पिछड़ता जा रहा है। राजनीतिक अदावत से इतर राज्य के विकास की परियोजनाओं पर नीतीश सरकार का रुख ही उदासीन है। हालत यह है कि राज्य में पानी, बिजली, सड़क और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं लोगों को मयस्सर नहीं हो पा रही हैं। सामाजिक विकास के सारे काम ठप पड़े हैं और शिक्षा, विधि-व्यवस्था और कृषि जैसे क्षेत्र अनछुए हैं। नीतीश कुमार की जातीय राजनीति के बोझ तले कराह रहे बिहार के विकास के इस पहलू का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    कहानी शुरू करते हैं बिहार की सड़कों से। डेहरी आॅन सोन से बक्सर की दूरी करीब 100 किलोमीटर है। राष्ट्रीय उच्च पथ पर यह दूरी आम तौर पर डेढ़ या दो घंटे में तय करने की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन यह 100 किलोमीटर की दूरी तय करने में चार से पांच घंटे का समय लगता है, क्योंकि इस सड़क की देखभाल का जिम्मा राज्य सरकार ले ही नहीं रही है। यही हाल सासाराम से बक्सर सड़क की भी है। पचीस-तीस साल से इस सड़क की दुर्दशा बरकरार है। प्रतिघंटा 40 किलोमीटर की रफ्तार से यहां गाड़ी नहीं चलायी जा सकती। यह तो हुई राष्ट्रीय उच्च पथ की बात। राज्य सरकार के तहत आनेवाली सड़कों की बात करें, तो पिछले एक साल में पूरे बिहार में एक भी नयी सड़क परियोजना शुरू नहीं हुई है। दूसरी बुनियादी सुविधाएं, जैसे पानी, बिजली, स्वास्थ्य भी अब लगभग भगवान भरोसे है। ग्रामीण इलाकों में न ढंग की सड़क है और न बिजली वितरण की ठोस व्यवस्था। स्वास्थ्य सुविधाएं तो भगवान भरोसे हैं ही, शिक्षा की हालत दिन बीतने के साथ खराब होती जा रही है। बिहार की कानून-व्यवस्था की स्थिति पर तो कोई टिप्पणी ही बेकार है। शुक्रवार को डेहरी आॅन सोन के पास जो कुछ हुआ, उसकी कल्पना नहीं थी। औरंगाबाद के सांसद सासाराम से औरंगाबाद जा रहे थे। उन्होंने देखा कि बीच सड़क पर एक महिला रो रही थी। गाड़ी रोक कर उन्होंने उससे कारण जानना चाहा। महिला ने कहा कि अपराधियों ने उसकी गले की चेन लूट ली है। उसने अपराधियों की तरफ इशारा भी किया। सुशील सिंह ने जैसे उन्हें देखा, उन्होंने सांसद पर पिस्टल तान दी। कहा, चुपचाप जाइये, वरना गोली मार देंगे। सांसद अपनी गाड़ी पर बैठे और अपराधियों के पीछे हो लिये। आगे-आगे अपराधी बाइक पर और सांसद अपनी गाड़ी से उनके पीछे-पीछे। रास्ते में अपराधियों ने तीन बार उन्हें निशाना बनाने की कोशिश की। वह डरे नहीं। लगातार पीछा करते रहे। आठ से दस किलोमीटर तक पीछा करते-करते एक जगह टर्न लेते समय अपराधियों की गाड़ी फिसली। सांसद और उनके सुरक्षाकर्मियों ने गाड़ी से उतर कर अपराधियों को दबोचने की कोशिश की। अपराधी हाथ में पिस्टल लहराते हुए खेत की तरफ भागे, जिन्हें अंतत: खदेड़ कर सुरक्षाकर्मियों ने पकड़ लिया। फिर वारुण थाने के हवाले किया। यह बिहार की आज की ताजा तसवीर है। आप अंदाज लगा लीजिए कि आम लोगों के साथ वहां क्या हो रहा है। जब अपराधी सुरक्षा कर्मी और सांसद पर पिस्टल तान कर धमका सकते हैं, तो आम जन की क्या बिसात। इसके बावजूद नीतीश और उनके शासन-प्रशासन पर कोई असर नहीं। पिछले एक साल में बिहार विकास के लगभग सभी पैमानों पर पिछड़ता हुआ नजर आ रहा है। खेती की हालत खराब है, तो औद्योगिक विकास केवल कागजों पर हो रहा है। स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की व्यवस्था बदहाल है। समाज कल्याण की तमाम योजनाएं इसलिए रुकी पड़ी हैं, क्योंकि इन्हें लागू करानेवाले जातीय गणना में व्यस्त थे।
    लेकिन जरा ठहरिये। बिहार की कहानी यहां खत्म नहीं होती है, बल्कि शुरू होती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विकास के इन मुद्दों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और दूसरे मुद्दों की ओट में छिपा देना चाहते हैं। इसके लिए कभी वह मिशन 2024 के लिए विपक्षी दलों की एकता की धुरी बनने की कोशिश करते दिखाई देते हैं, तो कभी बिहार के लोगों को साधने के लिए जातीय गणना का पासा फेंकते हैं। यही आज के बिहार की असलियत है। और यही यहां की राजनीतिक हकीकत भी, जिसे सुशासन बाबू भी जानते हैं, तेजस्वी यादव भी मानते हैं और बिहार के लोग तो खैर इसे अपनी नियति मान चुके हैं।
    तो फिर यहां सवाल पैदा होता है कि आगे क्या हो सकता है। जो राज्य राजनीतिक तौर पर बेहद संवेदनशील है और 40 सांसदों को लोकसभा में भेजता है, उसके विकास की गाड़ी अचानक धीमी क्यों हो गयी है। सवाल तो यह भी है कि क्या नीतीश कुमार की वर्तमान राजनीति बिहार के लिए मुफीद है। इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए नीतीश कुमार की जातीय राजनीति को ध्यान में रखना होगा।

    बिहार में जातियों का जंजाल
    देश के तमाम राज्यों में से बिहार ऐसा राज्य है, जहां पर जातियों को लेकर काफी ज्यादा राजनीति होती है। यहां राजद, जदयू जैसे क्षेत्रीय दल इस राजनीति से उभर कर राज्य की सत्ता तक पहुंचे। हर बार सरकारों ने सामाजिक न्याय देने की बात कही, लेकिन हालात कभी भी नहीं सुधर पाये। दलित ऊपर बढ़ने की बजाय महादलित होते गये। नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता में आते ही बिहार में एक नया समीकरण साधने की शुरूआत की। उन्होंने दलित वोटों को साधने के लिए पासवान को छोड़ कर बाकी सभी दलित वर्गों को महादलित में रख दिया। इसके बाद 2018 में पासवान समाज को भी महादलितों में शामिल कर दिया गया। इसका लाभ उन्हें मिला, लेकिन जातीय गणना पर रोक ने इस लाभ को भी अस्थायी बना दिया है।

    टूट गयी नीतीश कुमार की उम्मीद
    नीतीश कुमार ने बिहार में जातीय गणना शुरू कर बड़ा सियासी दांव खेला था। उन्हें उम्मीद थी कि इस एक फैसले से बिहार के विकास के तमाम मुद्दे नेपथ्य में चले जायेंगे। लेकिन हाइकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी और राजनीतिक दांव-पेंच का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ है। नीतीश कुमार बिहार में जातीय गणना को लेकर लगातार मुखर रहे और आखिरकार उन्होंने इसके आदेश जारी किये। इसे नीतीश की बड़ी राजनीतिक चाल के तौर पर देखा जा रहा था, लेकिन यह चाल अब बेकार हो गयी है। यहां सवाल है कि बिहार में नीतीश कुमार लगातार जातीय गणना को लेकर इतने मुखर क्यों रहे और उन्होंने खुद क्यों इस सर्वेक्षण को कराने का फैसला लिया। दरअसल नीतीश की पार्टी जदयू की राजनीति पिछले कई सालों से जाति आधारित है, यानी पिछड़ी और अन्य जातियों के सहारे हर बार नीतीश कुमार सत्ता तक पहुंचे। नीतीश के अलावा राजद और बाकी क्षेत्रीय दल भी इसी वोट बैंक के सहारे टिके हुए हैं। अब ऐसे में जातीय गणना के बाद राज्य में उनकी स्थिति मजबूत हो सकती थी। कई जातियों के आंकड़े सरकार के पास होते और वह उस हिसाब से वोट बैंक को टारगेट कर सकती थी। गणना के आंकड़े आने के बाद बिहार सरकार ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग कर सकती थी और आनेवाले कई सालों तक इस मुद्दे को गरम रख कर राजनीतिक रोटियां सेक सकती थी। इसके अलावा जातीय गणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव में भाजपा को भी घेरने की तैयारी में थे। उन्हें यह भरोसा था कि जातीय गणना के शोर में बिहार के विकास का मुद्दा पीछे छूट जायेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
    तो अब नीतीश के लिए आगे का रास्ता क्या है। यह सवाल आज बिहार के हर कोने में तैर रहा है। लोग पूछ रहे हैं कि मिशन 2024 के तहत विपक्षी एकता की धुरी बनने की कोशिश में नीतीश ने बिहार के विकास की गाड़ी को रोक दिया था, लेकिन यह ठहराव अब उनके लिए भी खतरा बनता जा रहा है। अपनी जिस राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक्सप्रेस को आगे निकालने के लिए उन्होंने बिहार के विकास पैसेंजर को रोक दिया था, वह अब उनसे हिसाब मांगने के लिए तैयार है। ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश कुमार इन दोनों नावों पर पैर रख कर संतुलन कैसे बना पाते हैं।

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