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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»भाजपा का ‘मिशन 2024’: एनडीए के लिए नये साथियों की तलाश
    स्पेशल रिपोर्ट

    भाजपा का ‘मिशन 2024’: एनडीए के लिए नये साथियों की तलाश

    adminBy adminMay 31, 2023No Comments8 Mins Read
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    -संसद भवन के उद्घाटन के बहाने साथ आने लगीं छोटी पार्टियां
    -छह राज्यों की 60 सीटों पर है कई छोटी-छोटी पार्टियों का दबदबा

    पिछले दो आम चुनावों में एक के बाद एक ऐतिहासिक जीत हासिल करनेवाली भारतीय जनता पार्टी ने अपने ‘मिशन 2024’ के तहत नये सिरे से काम करना शुरू कर दिया है। उसकी इस रणनीति की पहली बानगी नये संसद भवन के उद्घाटन के दौरान मिली, जब उसने 25 साल पुराने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए नये सहयोगियों की संभावना देखनी शुरू की। राष्ट्रीय गौरव के इस समारोह का कांग्रेस समेत कुछ दलों ने बहिष्कार किया, तो भाजपा ने इसे भी अवसर में बदल लिया और अपने साथ कुछ नये साथियों को जोड़ लिया। भाजपा के लिए नये संसद भवन के उद्घाटन का मौका इसलिए भी मुफीद साबित हुआ, क्योंकि उसके लिए उस धारणा को तोड़ना जरूरी था, जिसके तहत कहा जाता था कि भाजपा अपने सहयोगियों को ही खा जाती है। इसलिए अब भाजपा इस एनडीए का स्वरूप पूरी तरह बदलने की कोशिश में है। भाजपा का मानना है कि नये सहयोगियों के सहारे वह लगातार तीसरी बार सत्ता में आ सकती है, क्योंकि इन छोटी पार्टियों के पास छह राज्यों की 60 सीटें हैं। भाजपा का मानना है कि इन पार्टियों के साथ आने से उसकी सफलता की संभावना कई गुना बढ़ जायेगी। भाजपा के इस गेम प्लान का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    अगले साल होनेवाले आम चुनावों में लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का रोडमैैप बनाने में व्यस्त भारतीय जनता पार्टी कर्नाटक चुनाव में पराजय के बाद नये सिरे से रणनीति तैयार कर रही है। ऐसे में नये संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर उसे रोशनी की एक बड़ी किरण दिखाई दी है, जिसमें वह 25 साल पुराने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, यानी एनडीए को नया स्वरूप प्रदान कर सके। एनडीए का गठन 1998 में हुआ था। भाजपा इसमें सबसे बड़ा घटक थी और उसने अपने तीन प्रमुख मुद्दों, अयोध्या में राम जन्मभूमि का मंदिर, कॉमन सिविल कोड और जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने, को छोड़ कर बहुत बड़ा त्याग किया था। इस त्याग के फलस्वरूप अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार भी बनी। लेकिन आज एनडीए का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। इसके तीन प्रमुख घटक, जदयू, अकाली दल और शिवसेना (उद्धव गुट) इससे अलग हो चुके हैं। इसके अलावा बीजद और असम गण परिषद भी अलग राह पकड़ चुके हैं। एनडीए के स्वरूप में इस बदलाव के लिए भाजपा ही जिम्मेवार है, क्योंकि 2014 और फिर 2019 में उसे क्रमश: 284 और 303 सीटें मिल गयीं। इसलिए उसे सहयोगियों के समर्थन की जरूरत ही नहीं रही। फिर भी भाजपा ने सहयोगियों को सरकार में हिस्सेदारी दी, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था। अलग-अलग मुद्दों पर सहयोगी उससे अलग होते गये।
    अब भाजपा का मानना है कि नये सहयोगियों को एनडीए में जोड़ कर वह 2024 का किला फतह कर सकती है। इसका संकेत उसे नये संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर मिला, जब कांग्रेस समेत कई दलों के बहिष्कार के बावजूद कुछ दल समारोह में शामिल हुए। इनमें वाइएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी (आंध्रप्रदेश), कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा का जनता दल सेक्यूलर, ओड़िशा में बीजू जनता दल, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति, मायावती की बहुजन समाज पार्टी और कुछ अन्य दल शामिल थे। भाजपा ने इस मोर्चे पर भी बढ़त कायम कर ली, क्योंकि 25 साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नांडीस ने मिल कर जिस एनडीए का गठन किया था, उस समय 24 दल इसमें शामिल थे। नये संसद भवन के उद्घाटन के मसले पर भी 25 दलों का समर्थन भाजपा को मिल गया है। इतना ही नहीं, शिरोमणि अकाली दल और टीडीपी जैसे कई पुराने सहयोगियों ने भी उसे समर्थन देने का एलान किया है। नया समीकरण देखें, तो भाजपा को कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, ओड़िशा जैसे राज्यों में मजबूत सहयोगी मिल गया है। अगर ये दल चुनावी गठबंधन में शामिल होते हैं, तो भाजपा को 50 से 60 और सीटों पर मजबूती मिल सकती है।
    लेकिन सवाल उठता है कि भाजपा आखिर क्यों ऐसा करना चाहती है? 2024 के चुनाव में क्षेत्रीय पार्टी का साथ होना भाजपा के लिए कितना और क्यों जरूरी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले अपने दम पर जीत का आकंड़ा पार कर लिया था। 303 सीटें जीत कर पार्टी ने साबित कर दिया था कि वह अकेले सरकार बनाने में सक्षम है। लेकिन पिछले चार सालों में जो हुआ, उसका अनुमान शायद ही भाजपा ने लगाया होगा। जहां एक तरफ भाजपा अलग-अलग राज्यों में, फिर चाहे वह गुजरात हो या मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश हो या हरियाणा, सरकार बना रही थी, वहीं कुछ राज्यों में भाजपा के दोस्त, यानी गठबंधन वाली पार्टियां उसका साथ छोड़ रही थीं। बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी, लव हेट रिश्ता रखने वाली जनता दल यूनाइटेड, गोवा में विजय सरदेसाई की गोवा फॉरवर्ड पार्टी, तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड की मांग करनेवाला गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, राजस्थान की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और पंजाब में शिरोमणि अकाली दल वे पार्टियां हैं, जिन्होंने भाजपा का साथ 2019 के बाद छोड़ दिया। इन पार्टियों की अपने-अपने क्षेत्र की राजनीति में अच्छी खासी पकड़ थी।

    तीन पार्टियों का साथ छूटने पर हुआ बड़ा नुकसान
    पिछले चार सालो में भाजपा को सबसे बड़ा नुकसान खासकर तीन पार्टियों से हुआ है। ये तीन पार्टियां हैं शिरोमणि अकाली दल, जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना। अब सवाल उठता है कि क्या इन तीनों पार्टियों के अलग होने से वाकई भाजपा को आनेवाले लोकसभा चुनाव में सीटों का नुकसान होगा। यहां यह ध्यान देनेवाली बात है कि ये वे पार्टियां हैं, जिनका वर्तमान में उनके राज्य में दबदबा कम हो गया है। जदयू हालांकि बिहार में सत्ता में है, लेकिन नीतीश कुमार पूरी तरह राजद पर आश्रित हो गये हैं। शिरोमणि अकाली दल पंजाब में 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में मात्र तीन सीटों पर सिमट कर रह गया। भाजपा से मतभेद के बावजूद वह भाजपा को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा सका। इसी तरह अगर शिवसेना की बात करें, तो 48 लोकसभा सीट काफी ज्यादा होती हैं, लेकिन यहां दिलचस्प बात यह है कि शिवसेना का बड़ा गुट अभी भी भाजपा के साथ है। भाजपा को उसका महत्व पता है, इसलिए पार्टी बिल्कुल नहीं चाहती है कि यह साथ छूटे।

    इन राज्यों में छोटी पार्टियों को रिझा रही है भाजपा
    2024 की तैयारी में भाजपा ने वैसी 60 सीटों की पहचान की है, जहां छोटी-छोटी पार्टियों को दबदबा है। पिछले दो चुनावों में इनमें से अधिकांश सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी, लेकिन बदले राजनीतिक हालात में इस बार भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है।

    उत्तरप्रदेश की कई पार्टियों से हो रही है बातचीत
    बिहार की तरह ही उत्तरप्रदेश में भी भाजपा कई क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ लाना चाहती है। फिर चाहे वह निषाद समुदाय को साथ लानेवाली निषाद पार्टी हो या फिर कुर्मी वोट बैंक पर ध्यान देते हुए अपना दल का साथ देना। या फिर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर से बातचीत करना। अगर यहां इन छोटी पार्टियों का साथ मिल जाता है, तो भाजपा को लगभग 10 सीटों का फायदा हो सकता है। यही कारण है कि भाजपा लगातार छोटी पार्टियों को साथ लाने की कोशिश कर रही है।

    पूर्वोत्तर की पार्टियों की तरफ दोस्ती का हाथ
    पूर्वोत्तर की बात करें, तो त्रिपुरा में सबसे ज्यादा चर्चा में आयी पार्टी टिपरा मोथा के साथ भी भाजपा गठबंधन करना चाहती है, क्योंकि आदिवासी इलाकों में टिपरा मोथा की पकड़ काफी अच्छी बन गयी है। वहीं नागालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) और मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ बीजेपी का गठबंधन पहले से है, जिससे उस क्षेत्र में भाजपा की पकड़ लोकसभा के लिहाज से काफी मजबूत हो गयी है।

    दक्षिण भारत पर भाजपा की खास नजर
    यहां ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि दक्षिण भारत भाजपा के लिए काफी ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में 133 लोकसभा सीटों पर चुनाव होने हैं, जिन पर जीत हासिल करना भाजपा के लिए बहुत जरूरी है। अगर कर्नाटक को छोड़ दें, तो दक्षिण के हर राज्य में भाजपा संघर्ष कर रही है। और इसी का समाधान निकालने के लिए पार्टी ने 18 साल बाद तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की थी, जिसमें दक्षिण में पार्टी का विस्तार कैसे हो, इस पर खास ध्यान दिया गया था।
    दक्षिण में अगर भाजपा को पैर पसारना है, तो बहुत जरूरी होगा कि भारतीय जनता पार्टी इन राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिलाये। केसीआर की पार्टी के कई नेता भी कई बार केंद्र सरकार की तारीफ करते हुए नजर आ चुके हैं। भाजपा चाहेगी कि ये सब छोटी-छोटी पार्टियों का साथ उसे ही मिले।
    अगर बात दक्षिण की करें, तो केरल में भाजपा भारत बीडीजेएस, जेआरएस, केरल कांग्रेस (राष्ट्रवादी), केकेसी, एसजेडी जैसी पार्टियों का साथ बरकरार रखना चाहती है।

    तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक को साथ रखने की कोशिश
    तमिलनाडु में भाजपा अन्नाद्रमुक को अपने साथ रखने की पूरी कोशिश कर रही है, हालांकि निकाय चुनाव में दोनों पार्टियों ने गठबंधन तोड़ लिया था, लेकिन 2024 को लेकर दोनों ही पार्टियों का कहना है कि साथ में ही लड़ेंगे।

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