ब्रह्मा चेलानी: चीन की वन बेल्ट, वन रोड यानी ओबीओआर अरबों डॉलर की बुनियादी ढांचा परियोजना है। चीन का दावा है कि ओबीओआर व्यापार व विकास में नये युग की शुरूआत करेगा। चीन ने इसे आधुनिक सिल्ट रूट नाम दिया है। वह ओबीओआर को वैश्वीकरण का एक उपकरण बताता है। असल में हकीकत इसके उलट है। इसकी आड़ में चीन अपने आर्थिक व सामरिक हित ही साध रहा है। इसके जरिये चीन कमजोर देशों को आर्थिक सब्जबाग दिखा व सुरक्षा का झांसा देकर अपने जाल में फंसा रहा है। इस पर वैश्विक समर्थन का ढिंढोरा पीटने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 14-15 मई को बीजिंग में बहुप्रचारित ओबीओआर सम्मेलन आयोजित किया।

इसमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने जरूर शिरकत की, लेकिन पश्चिम के किसी भी बड़े नेता ने हिस्सा नहीं लिया। वहीं भारत ने इसे साम्राज्यवाद का नया स्वरूप करार देते हुए इसका बहिष्कार किया। ओबीओआर पर भारत की सबसे बड़ी चिंता इसी बात को लेकर है कि इससे पाकिस्तान को मिलने वाला चीनी आर्थिक एवं सामरिक संरक्षण और मजबूत होगा। चीन-पाक आर्थिक गलियारा यानी सीपीईसी चीन के कब्जे वाले शिनझियांग प्रांत से लेकर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर गिलगित-बाल्टिस्तान से होते हुए पाकिस्तान के बलूचिस्तान तक फैली परियोजना है। जहां शिनझियांग पूर्वी तुर्किस्तान का चीनी नाम है, वहीं गिलगित-बाल्टिस्तान के इलाकों पर भारत अपना दावा करता आया है और बलूचिस्तान भी अशांत है।

इस तरह देखा जाये तो सीपीईसी एक विवादित और जबरन कब्जा करने वालों का गलियारा है। सीपीईसी को लेकर शुरू में यही माना गया कि यह शिनझियांग स्थित कशगर और पाकिस्तान के बलूचिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह के बीच एक व्यापारिक मार्ग होगा। ग्वादर बंदरगाह चीन ने ही बनाया है और वही उसे संचालित भी कर रहा है। धीरे-धीरे इस परियोजना का दायरा बढ़ता गया और यह औद्योगिक, ऊर्जा, कृषि और सुरक्षा परियोजनाओं तक फैलकर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और समाज के बड़े हिस्से में पैठ बनायेगी। चीन जिस समुद्री और स्थलीय सिल्क रूट निर्माण की बात कर रहा है, उसमें सीपीईसी एक अहम कड़ी साबित होगी जिससे भारत के सुरक्षा हितों को गहरा आघात पहुंचेगा। वास्तव में सीपीईसी चीन के लिए एक सहज माध्यम बन गया है जिसकी आड़ में वह पाकिस्तान में अपनी सामरिक योजनाएं सिरे चढ़ा सकता है।

बीती 13 मई को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बीजिंग यात्रा के दौरान चीन ने पाकिस्तान के साथ दो सहमति पत्रों यानी एमओयू पर हस्ताक्षर किये। इनके तहत चीन पाकिस्तान में सिंधु नदी पर बांध बनाने हेतु 27 अरब डॉलर की सहायता राशि मुहैया करायेगा। 7,100 मेगावाट क्षमता वाला बुंजी बांध और 4,500 मेगावाट क्षमता वाला भाषा बांध जैसी प्रस्तावित परियोजनाएं गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके से जुड़ी हैं। यह एमओयू भारत की क्षेत्रीय संप्रभुता के लिए नई चुनौती खड़ी करता है। इसका ये भी अर्थ है कि तिब्बत से निकलने वाली नदियों के बहाव का रुख मोड़ने पर आमादा चीन बांध बनाने की अपनी सनक को अंतरराष्ट्रीय विवादित क्षेत्र तक ले आया है।

चीन का पाखंड प्रत्यक्ष है। वह लगभग रोजाना कलह के कारण खोजता है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के हालिया अरुणाचल दौरे को ही लें। अरुणाचल को चीन विवादित क्षेत्र बताता है, लेकिन अरुणाचल पर भारत के नियंत्रण को लेकर केवल चीन को ही एतराज है। संयुक्त राष्ट्र अरुणाचल को विवादित क्षेत्र नहीं मानता। वियतनाम के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में हाइड्रोकार्बन तलाशने की भारत व विएतनाम की साझा मुहिम पर भी चीन आंखें तरेर रहा है। वास्तव में चीन अपनी क्षेत्रीय संप्रभुता को किसी देश से मिलने वाली प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष चुनौती पर तुरंत उसे हड़काने लगता है। स्वायत्त ताइवान के मामले में भी वह ऐसा करने से गुरेज नहीं करता, पर उसे जम्मू-कश्मीर में परियोजनाएं शुरू करने पर कोई मलाल नहीं जिसे संयुक्त राष्ट्र भी विवादित क्षेत्र मानता है।
ऐसी परियोजनाएं अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों का मखौल उड़ाती हैं। भाषा बांध की मिसाल ही लें। विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और यहां तक कि आगा खां फाउंडेशन ने भी इसे वित्त मुहैया कराने की पाकिस्तान की गुजारिश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह परियोजना अंतरराष्ट्रीय विवादित क्षेत्र में है।
बुंजी व भाषा बांध मुख्य रूप से पंजाब जैसे पाकिस्तान के प्रभावशाली सूबे के लिए ही फायदेमंद होंगे। इन परियोजनाओं के दम पर चीन को गिलगित-बाल्टिस्तान जैसे शिया बहुल अशांत इलाके में अपनी सामरिक पैठ बनाने में मदद मिलेगी। चीन खुद अपने हितों की पूर्ति के लिए कई सालों से यहां अपने सुरक्षा बलों की तैनाती करता आया है। इनमें काराकोरम हाईवे, रेलवे व खुफिया सुरंगें बनाने जैसी सामरिक परियोजनाएं भी शामिल हैं। सीपीईसी ने इन चिंताओं को बढ़ा दिया है कि इस इलाके का हश्र भी कहीं तिब्बत जैसा न हो।
पाकिस्तानी एजेंसियां भी सीपीईसी को लेकर गिलगित-बाल्टिस्टान में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का क्रूरता से दमन कर रही हैं, जहां इस गलियारे के बारे में यही माना जा रहा है कि यह इस इलाके को चीन का गुलाम बनाने की चाल है।

यहां के शक्सगाम, रसकाम, शिमशाल और अगिल घाटियों पर चीन का ही शासन है, जिन्हें 1963 में पाकिस्तान ने चीन के साथ अपने रिश्ते मजबूत बनाने के लिए भेंट किया था। इससे यहां चीनी परियोजनाओं के खिलाफ उपजा जमीनी आक्रोश और बढ़ा है जिनका दायरा खनन-संसाधन दोहन तक बढ़ गया है। बुंजी व भाषा बांध को लेकर स्थानीय विरोध की आग जोर पकड़ रही है, क्योंकि यहां लोगों का मानना है कि उनके जल संसाधनों के दोहन का फायदा पंजाब को पहुंचाया जा रहा है। गिलगित में बांध बनाने में चीन की भूमिका से सिंधु जल समझौता यानी आईडब्ल्यूटी भी दबाव में आ जाएगा। विरोधाभास यही है कि चीन खुद तो जल साझेदारी की अवधारणा में यकीन नहीं रखता, लेकिन गिलगित में उसकी गतिविधियां दुनिया के सबसे उदार जल समझौते को खतरे में डाल रही हैं। यह द्विपक्षीय समझौता है, लेकिन बांध परियोजनाओं और सिंधु नदी तंत्र की छह में से दो नदियों पर नियंत्रण के साथ चीन तीसरे पक्ष के रूप में उभर रहा है।
पाकिस्तान नाकाम देश बनने की कगार पर है तथा अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए चीन के सामने समर्पण ही उसके सामने इकलौता विकल्प है। शायद यही वजह है कि इस्लाम के नाम पर बना मुल्क उस देश का आर्थिक उपनिवेश बनने पर आमादा है जो अपने मुस्लिम नागरिकों पर तरह-तरह के अत्याचार करने के साथ ही दाढ़ी और ‘मोहम्मद जैसे नाम रखने पर भी रोक लगा देता है।
(लेखक सामरिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)

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