सवा दो महीने के लॉकडाउन के बाद झारखंड में राज्यसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मी बढ़ने लगी है। दो सीटों के लिए 19 जून को होनेवाले चुनाव में तीन उम्मीदवार मैदान में हैं और इसी कारण सियासी दांव-पेंच का दौर शुरू हो गया है। पिछले साल दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड का यह पहला सियासी खेल है, जिसका मंच लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही सज गया था, लेकिन कोरोना ने इस पर अस्थायी रूप से पर्दा गिरा दिया था। अब इस चुनाव को लेकर नये सिरे से जोड़-तोड़ शुरू हुई है, तो स्वाभाविक तौर पर लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। झारखंड में यह पहला अवसर है, जब दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी विपक्ष में रहते हुए राज्यसभा का चुनाव लड़ रही है, जबकि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी पहली बार सत्ता में रहते हुए ऐसे समर में उतरी है, जिसमें उसकी पराजय लगभग तय मानी जा रही है। लेकिन कांग्रेस इस संभावित हार को मानने के लिए तैयार नहीं है और दलील दे रही है कि उसके पास आवश्यक वोट है। राज्यसभा चुनाव के वोटों के गणित के बीच आम सहमति की बात भी हो रही है, लेकिन कोई इसे मानने के लिए तैयार नहीं है। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि कांग्रेस के खेमे में क्रॉस वोटिंग की संभावनाओं की तलाश जोर-शोर से की जा रही है। राज्यसभा चुनाव के संभावित गणित और भाजपा-कांग्रेस की वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
झारखंड से राज्यसभा की दो सीटों के लिए चुनाव 19 जून को होगा। पहले यह चुनाव 26 मार्च को होनेवाला था, लेकिन कोरोना लॉकडाउन के कारण इसे स्थगित कर दिया गया था। अब चुनाव की नयी तारीखों की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दांव-पेंच का नया दौर भी शुरू हो गया है। इन दो सीटों के लिए तीन उम्मीदवार मैदान में हैं। सत्तारूढ़ झामुमो ने अपने अध्यक्ष शिबू सोरेन को और उसकी सहयोगी कांग्रेस ने शाहजादा अनवर को उतारा है, जबकि विपक्षी भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश को प्रत्याशी बनाया है।
राज्यसभा का यह चुनाव इसलिए भी दिलचस्प है, क्योंकि झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से यह पहला मौका है, जब भाजपा विपक्ष में रहते हुए इस चुनाव में उतरी है, जबकि झामुमो और कांग्रेस पहली बार सत्ता में रहते हुए अपने उम्मीदवारों को जिताने में लगी हुई है। दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड का यह पहला बड़ा सियासी घटनाक्रम है, इसलिए भी इसका रोमांच कुछ अलग है। झारखंड विधानसभा के मौजूदा अंकगणित के अनुसार इन दो सीटों में से एक पर झामुमो और दूसरी पर भाजपा की जीत तय मानी जा सकती है। झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा में इस वक्त 79 विधायक हैं। दुमका और बेरमो की सीट खाली है। इस हिसाब से राज्यसभा चुनाव जीतने के लिए कम से कम 27 वोट जरूरी होंगे। सत्ताधारी झामुमो ने विधानसभा चुनाव में 30 सीटें जीती थीं, लेकिन हेमंत सोरेन द्वारा दुमका सीट छोड़ दिये जाने के बाद उसके 29 विधायक हैं। कांग्रेस ने चुनाव में 16 सीटें जीती थीं और बाद में झाविमो के प्रदीप यादव और बंधु तिर्की के उसमें शामिल होने के बाद उसकी सदस्य संख्या 18 हो गयी थी। इस बीच बेरमो विधायक राजेंद्र सिंह के निधन के कारण कांग्रेस के पास अभी 17 विधायक हैं। सरकार में शामिल राजद के पास एक विधायक है। इस हिसाब से सत्ताधारी गठबंधन के पास 47 विधायक हैं। इनमें से 27 विधायक शिबू सोरेन को वोट दे देंगे, तो उसके पास 20 अतिरिक्त वोट बचेंगे। कांग्रेस उम्मीदवार को जीतने के लिए और सात वोटों की जरूरत है, जिसमें से माले के विनोद सिंह और राकांपा के कमलेश सिंह के वोट उसे मिल सकते हैं। फिर भी पांच वोटों की कमी को कांग्रेस कैसे पाटेगी, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा।
दूसरी तरफ भाजपा ने विधानसभा चुनाव में 25 सीटें जीती थीं और बाद में बाबूलाल मरांडी इसमें शामिल हो गये और उसके पास अभी 26 विधायक हैं। इसके अलावा आजसू के दो विधायकों का समर्थन उसे मिल चुका है। निर्दलीय अमित यादव भी भाजपा को समर्थन देने का मन बना चुके हैं। इस तरह भाजपा के पास 29 वोट हो जाते हैं। भाजपा के एक विधायक ढुल्लू महतो जेल में हैं, इसलिए उनका वोट भाजपा को मिलेगा या नहीं, इस पर संशय है। फिर भी भाजपा को 28 वोट तो मिल ही जायेंगे, यानी उसके उम्मीदवार की जीत पक्की मानी जा सकती है।
इतने स्पष्ट गणित के बावजूद कांग्रेस दावा कर रही है कि वह पांच वोट का जुगाड़ कर लेगी। लेकिन यह होगा कैसे, इसका जवाब कोई नहीं दे रहा है। कांग्रेस का दावा केवल तभी सही हो सकता है, जब वह भाजपा के खेमे में सेंधमारी कर ले या आजसू और निर्दलीय अमित यादव को अपने पक्ष में कर ले। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह असंभव दिखता है। इसका एक और पहलू भी है। यदि कांग्रेस यह उम्मीद कर रही है कि वह भाजपा के खेमे में सेंध लगाने में कामयाब हो जायेगी, तो फिर उसे इस संभावना को भी ध्यान में रखना चाहिए कि भाजपा की ओर से भी ऐसी कोशिश की जा सकती है। और इतिहास गवाह है कि भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस का खेमा ऐसे अवसरों पर अधिक कमजोर साबित हुआ है।
राज्यसभा चुनाव के इस गणित के बीच निर्दलीय सरयू राय ने आम सहमति की जो बात कही है, वह भी गौर करने लायक है। उनका कहना है कि राज्यसभा चुनावों में हॉर्स ट्रेडिंग और दूसरे तरह के हथकंडे अपनाये जाने की वजह से झारखंड पहले से ही बदनाम रहा है। ऐसे में इस बार यह दाग धोने का अच्छा मौका है। लेकिन कांग्रेस विधायक दल के नेता आलमगीर आलम की दलील है कि पहले भी पर्याप्त संख्या बल नहीं होने के बावजूद उम्मीदवार जीते हैं। इसलिए इस बार भी वैसा कुछ हो जाये, तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है।
आलमगीर आलम की दलील का सीधा मतलब यही निकलता है कि इस बार भी कुछ ऐसा होगा, जिससे राज्यसभा का यह चुनाव भी निर्विवाद नहीं रहेगा। यदि ऐसा हुआ, तो झारखंड के इतिहास में एक और काला अध्याय जुड़ जायेगा। राज्यसभा का यह चुनाव जहां सत्ताधारी गठबंधन के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है, वहीं भाजपा के लिए भी यह जीवन-मरण का सवाल है। कांग्रेस के पास वैसे भी इस चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है और राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अपने अल्पसंख्यक समर्थक स्टैंड के कारण ही पार्टी इस चुनाव में उतरी है। यदि वह चुनाव हार जाती है, तो इसका दूरगामी असर पड़ना स्वाभाविक है। उधर भाजपा के लिए भी यह चुनाव एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि यदि वह चुनाव हार जाती है, तो फिर झारखंड से उसका खूंटा लगभग उखड़ जायेगा।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस सियासी उठापटक के बीच राज्यसभा का चुनाव कौन जीतता है। परिणाम चाहे कुछ भी हो, इतना तय है कि इस चुनाव का असर राज्य की राजनीति पर कुछ अधिक ही गहरा होगा।