15 नवंबर, 2000 को जब भारत के राजनीतिक मानचित्र पर 29वें राज्य के रूप में झारखंड की स्थापना की गयी थी, तब यहां के लोगों को लगा था कि अब उनके दिन बहुरनेवाले हैं। अपने दो दशक की यात्रा में झारखंड ने बहुत कुछ देखा, झेला और हासिल किया। 14 साल तक तो राज्य हमेशा राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में गोते लगाता रहा। लेकिन 2014 से 19 के बीच की राजनीतिक स्थिरता ने झारखंड को बहुत कुछ दिया। कुछ सकारात्मक चीजें हुईं, तो कुछ नकारात्मक भी। झारखंड की राह में फूल भी आये और कांटे भी। 2019 के अंत में जब राज्य की पांचवीं विधानसभा का चुनाव हुआ, तब पहली बार झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कांग्रेस और राजद के साथ मिल कर स्पष्ट बहुमत हासिल किया। अब जब इस सरकार ने काम करना शुरू किया है, तब पता चल रहा है कि राजनीतिक स्थिरता अपने साथ कई गड़बड़ियां लेकर आती है। इन पांच साल के कालखंड में ऐसी बहुत सी चीजें हुईं, जो झारखंड की सेहत के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती हैं। नगर निगम इनमें से एक है। बड़े शहरों की प्लानिंग और साफ-सफाई समेत अन्य नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने के लिए बनाये गये नगर निगमों ने झारखंड में अपनी समानांतर सत्ता व्यवस्था कायम कर ली और उन्हें रोकनेवाला कोई नहीं था। कई नगर निगम तो इसमें काफी आगे निकल गये, जिनकी हकीकत अब सामने आ रही है। इनमें रांची और धनबाद नगर निगम भी शामिल है। यहां व्याप्त गड़बड़ियों की पोल भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की जांच रिपोर्ट ने खोल कर रख दी है। नगर निगम की करतूत और सरकार के साथ उसके टकराव पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

भारत सरकार ने 1993 में जब 73वें संविधान संशोधन के जरिये देश भर में स्थानीय निकायों को मजबूत करने और उन्हें अधिक अधिकार देने का फैसला किया था, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि सबसे निचले स्तर पर लोकतंत्र बहाली का यह अभिनव प्रयोग बड़े शहरों तक आते-आते हंसी का पात्र बन जायेगा। पंचायती राज व्यवस्था में नगर निगम की परिकल्पना पहले से थी, लेकिन इसमें संशोधन कर नगरीय प्रशासन को भी चुस्त-दुरुस्त किया गया। साथ ही बड़े शहरों के नगरीय विकास का खाका खींचने की जिम्मेदारी भी नगर निगमों को दी गयी। शासन का यह मॉडल पश्चिमी देशों की व्यवस्था पर आधारित था, जहां शेरिफ और मेयर को उसके शहर के पहले नागरिक का दर्जा हासिल है।
जब झारखंड अलग राज्य बना, तब यहां भी यह व्यवस्था लागू की गयी, लेकिन यहां के नगर निगम राजनीति का अखाड़ा बनते गये। बिहार से अलग होकर बनाये गये इस राज्य में हर चीज राजनीतिक चश्मे से देखी जाने लगी और नगर निगम भी इसका अपवाद नहीं रहा। खास कर राजधानी होने के कारण रांची नगर निगम में राजनीति कुछ अधिक ही पैठ बना गयी। शुरुआत में सरकार ने नगर निगमों को राजनीति से दूर रखने के लिए इन्हें दलीय आधार पर चुनाव से दूर रखा। लेकिन इसका कोई खास असर नहीं पड़ा। राजनीतिक दलों ने नेपथ्य में रह कर भी इन चुनावों में खूब पसीना और संसाधन बहाया। पिछले चुनाव में तो मेयर और डिप्टी मेयर का चुनाव दलीय आधार पर ही हुआ। इसमें कुछ खेल हुआ। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि नगर निगम अपने मूल काम से भटक गया। नगर की प्लानिंग, साफ-सफाई और दूसरी नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए बनाये गये नगर निगम राजनीतिक दांव-पेंच में उलझ गये।
रांची नगर निगम में 16 फरवरी को जब भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की टीम ने छापा मारा था, तब राज्य सरकार के साथ इसके टकराव का अध्याय शुरू हुआ। इससे पहले भी रांची नगर निगम और राज्य सरकार के नगर विकास विभाग के बीच टकराव होते रहे थे, लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि मेयर ने राज्य सरकार से सीधे टकराव का रास्ता अपना लिया। ऐसा राजनीति के कारण ही हुआ। राज्य की सत्ता झामुमो-कांग्रेस-राजद के पास है, जबकि मेयर और डिप्टी मेयर सीधे तौर पर विपक्षी भाजपा से जुड़े हैं।
अब भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने अपनी छापामारी के बारे में जो जांच रिपोर्ट जारी की है, उससे साफ हो गया है कि रांची नगर निगम तो राजधानी की सेहत के लिए हानिकारक साबित हो रहा है। यहां गड़बड़ियों का अंबार है और भ्रष्टाचार रूपी गंगोत्री बहती है। एसीबी की यह रिपोर्ट कमोेबेश हकीकत के बेहद करीब है। रांची नगर निगम का कोई भी फैसला विवादरहित नहीं रहा है। सबसे हैरत की बात यह है कि तमाम संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद रांची नगर निगम का अधिकांश काम बाहरी एजेंसियों को दिया जा चुका है। चाहे साफ-सफाई हो या कर संग्रह, पार्किंग शुल्क वसूलना हो या जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने का जिम्मा, हर काम निजी एजेंसियों को देने की परिपाटी सी चल पड़ी। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि नगर निगम धीरे-धीरे निजी हाथों में चला गया और यहां लोगों को अपनी जरूरतों के लिए बिचौलियों और ठेकेदारों की शरण में आने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस तरह धीरे-धीरे नगर निगम की व्यवस्था की गाड़ी बेपटरी होती गयी। इधर धनबाद नगर निगम में भी सब कुछ सामान्य नहीं रहा। उसमें हुई गड़बड़ी की जांच के आदेश मुख्यमंत्री ने दिये हैं। जांच के बाद सच सामने आ जायेगा।
अब, जबकि रांची नगर निगम की असलियत सामने आ गयी है, राजनीतिक बयानबाजी तेज होना स्वाभाविक है। लेकिन इस राजनीतिक खेल के शोरगुल में आम लोगों की मुश्किलों की आवाज कहीं दब न जाये, यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। इसका सबसे सीधा और सरल रास्ता यही होगा कि रांची नगर निगम को उसके मूल काम की ओर ध्यान लगाना चाहिए। कोरोना संकट के दौरान भी रांची नगर निगम हमेशा अपनी त्योरियां चढ़ाये रहा, जो कम से कम रांची की सेहत के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है। अब इस टकराव को दूर करने का समय आ गया है। यहां गड़बड़ियों को दूर करना जरूरी है। रांची की पहली नागरिक, यानी मेयर को भी आगे आना चाहिए, ताकि जनता को उनके चुनने के अपने फैसले पर शर्मिंदा न होना पड़े। उन्हें याद रखना चाहिए कि वह मेयर पहले हैं और किसी राजनीतिक दल की कार्यकर्ता बाद में। उनकी पहली प्राथमिकता रांची नगर निगम और इसमें रहनेवाले लोग हैं, अन्यथा यह कहना गलत नहीं होगा कि रांची नगर निगम रांची की सेहत के लिए हानिकारक है।

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