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    Home»Jharkhand Top News»झारखंड के ‘हाइजैक सिस्टम’ को पटरी पर लाने की कवायद
    Jharkhand Top News

    झारखंड के ‘हाइजैक सिस्टम’ को पटरी पर लाने की कवायद

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskJune 15, 2020No Comments6 Mins Read
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    दिसंबर में विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड में जब सत्ता परिवर्तन हुआ और पहली बार गैर-भाजपा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ, राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि बदलाव का यह दौर कारगर नहीं होगा। लेकिन करीब छह महीने बाद ऐसा लगने लगा है कि हेमंत सोरेन की सरकार व्यवस्थागत खामियों को उजागर करने और उन्हें दूर करने में लग गयी है। इन खामियों ने पिछले 20 साल में झारखंड की कई संस्थाओं को दागदार बना दिया था। राजनीतिक स्थिरता के नाम पर पिछले पांच साल के कालखंड में मुट्ठी भर नौकरशाहों ने जिस तरह के कुचक्र रचे और मनमानी की, उन सभी की पोल अब खुलने लगी है। आम लोगों से जुड़े मामलों में किस तरह की लापरवाही बरती गयी और राजनीतिक नेतृत्व की शह पाकर कुछ नामचीन नौकरशाहों के हाथों में असीम शक्ति मिल जाने के कारण नौकरशाही कैसे बेलगाम होकर काम करती रही, इन सभी का पता अब चल रहा है, जब इनकी जांच की जा रही है। नागरिक प्रशासन से लेकर पुलिस तक और नौकरशाहों से लेकर निचले स्तर के सरकारी बाबुओं तक ने इस बहती गंगा में खूब हाथ धोये और झारखंड का आम आदमी इनके सामने गिड़गिड़ाता रहा, अपनी बेबसी पर रोता रहा। सरकार की मशीनरी इतनी केंद्रित हो गयी थी कि आम आदमी की आवाज राजनीतिक नेतृत्व तक पहुंच ही नहीं पाती थी। राजनीतिक नेतृत्व पर नौकरशाही के इस कठोर कवच को जांच के तीरों से तोड़ने की यह कोशिश झारखंड में बदलाव के युग की आहट है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह जांच किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि व्यवस्था की हो रही है। जांच का परिणाम चाहे कुछ भी हो, झारखंड में उम्मीद की एक किरण दिखाई दी है। जांच अभियान की पृष्ठभूमि में झारखंड के भविष्य को तलाशती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

    आज से करीब 20 साल पहले जब बिहार को विभाजित कर झारखंड अलग राज्य का गठन किया जा रहा था, तब कहा जा रहा था कि भारतीय राजनीति का यह प्रयोग एक बड़ी विफलता साबित होगा। जब एक के बाद एक सरकारें बनने और गिरने लगीं और भ्रष्टाचार की कहानियां मीडिया की सुर्खियां बनने लगीं, तब ऐसे लोग अपनी भविष्यवाणी के सच होने के दावे करने लगे। 2014 के चुनाव में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के पहले तक झारखंड राजनीति की प्रयोगशाला बन चुका था। तब राजनीतिक अस्थिरता को भ्रष्टाचार और व्यवस्थागत गड़बड़ियों का एकमात्र कारण बताया जाता था। लेकिन 2014 से 2019 तक राजनीतिक रूप से स्थिर झारखंड में जो कुछ हुआ, उसकी कलई जब आज खुल रही है, तो पता चल रहा है कि दरअसल राजनीतिक अस्थिरता इसका कारण नहीं थी, बल्कि कुछ मजबूरियों और महत्वाकांक्षाओं ने राज्य के सिस्टम को हाइजैक कर लिया था। यह सिस्टम राज्य को न केवल अपने इशारे पर नचा रहा था, बल्कि इसने राजनीतिक नेतृत्व को भी अपनी चेरी बना लिया था।
    झारखंड बनने के दिनों की उथल-पुथल के दौरान इस प्रदेश के सबसे पुराने और सशक्त राजनीतिक हस्ताक्षर शिबू सोरेन ने कहा था कि झारखंड तब तक आगे नहीं बढ़ेगा, जब तक झारखंड में पैदा हुआ बच्चा वोट नहीं देगा। इस लिहाज से 2019 में हुआ विधानसभा का चुनाव बदलाव की पहली आहट बना और राज्य में पहली बार गैर-भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। इस सरकार को विरासत में क्या मिला, क्या नहीं, इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है, लेकिन जो हकीकत अब सामने आ रही है, उससे साफ जाहिर होता है कि वाकई झारखंड का सिस्टम तो कुछ मुट्ठी भर लोगों के पास बंधक बना था। इन लोगों ने पूरे सिस्टम को अपने हित में चला रखा था। आम लोगों की बदौलत चलनेवाली व्यवस्था पूरी तरह से पंगु बना दी गयी थी। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, सड़क, कृषि, कानून-व्यवस्था और वे तमाम विभाग, जो आम लोगों से सीधे जुड़े थे, कुछ मुट्ठी भर लोगों के इशारों पर काम कर रहे थे। वहां आम लोगों की न तो चिंता थी और न ही उनके लिए कोई जगह थी।
    वर्तमान सरकार ने गड़बड़ियों की जांच का जो सिलसिला शुरू किया है और जो सच सामने आ रहे हैं, उनसे साफ पता चलता है कि मुट्ठी भर नौकरशाहों ने राजनीतिक नेतृत्व को आम लोगों से पूरी तरह काट कर रख दिया था। धनबाद का बहुचर्चित गांजा प्लॉट कांड इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। कोयला तस्करी की राह में रोड़ा बने एक मामूली से कर्मी को किस तरह पुलिस ने फर्जी आरोप में जेल भेज दिया और इसमें किस स्तर के लोग शामिल थे, यह अब पता चल रहा है। इतना ही नहीं, सरकारी निर्माण का ठेका गिने-चुने लोगों-कंपनियों को दिया जाता था, क्योंकि उन्हें सत्ता के नियंता बन बैठे अधिकारियों का खुला संरक्षण मिल रहा था। वे ठेकेदार कुछ राजनीतिक दलों के पार्टी आॅफिस का माहवारी खर्च उठा रहे थे। बदले में ये ठेकेदार और कंपनियां झारखंड को खोखला करनेवाले नक्सलियों की मदद भी करने लगे थे, इस बात की कलई भी अब खुल रही है। अधिकारियों की मनमर्जी का जीता-जागता उदाहरण एक सौ करोड़ की मानगो जलापूर्ति योजना है, जो पिछले तीन साल से बन कर तैयार थी, लेकिन लोगों को पानी नहीं मिल रहा था। महज तीन दिन में इसे चालू कर दिया गया। यह किसी जादू की छड़ी से संभव नहीं हुआ, बल्कि इसने व्यवस्थागत खामियां ही उजागर की हैं।
    इस जांच अभियान का साइड इफेक्ट यह हुआ है कि अरविंद प्रसाद जैसे अधिकारी इस्तीफा दे रहे हैं, तो निरंजन कुमार जैसे अधिकारी गड़बड़ियों के मामलों में आरोपी बन रहे हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बिजली विभाग ने कई कंपनियों से अलग-अलग मनमानी रेट पर बिजली की खरीदारी की। जब ढाई रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली उपलब्ध थी, तो 4.80 पैसे में बिजली खरीदी गयी। यह वही व्यक्ति कर सकता है, जो सिस्टम को हैक कर चुका हो। रांची और धनबाद नगर निगम के कार्यकलापों की जांच से सामने आ रहा है कि कैसे लोगों को परेशान किया जाता था और जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र से लेकर घर का नक्शा पास कराने के लिए उनका भयादोहन किया जाता था। जिन शहरों के रखरखाव का जिम्मा इन नगर निगमों के पास था, वहां सड़कों को खोद कर छोड़ दिया गया था। राजधानी के लोगों को याद है, कैसे गली-गली में सड़कों को खोद कर गड्ढा बना दिया गया था। कैसे बनी सड़क को खोद कर नालियां बनायी जा रही थीं। उन नालियों में पानी नहीं पैसा बहाया जा रहा था।
    ऐसा नहीं है कि गड़बड़ियों की जांच पहले नहीं होती थी। लेकिन पहले की जांच जहां किसी गिने-चुने व्यक्ति के खिलाफ होती है, इस बार गड़बड़ी की जड़ तक पहुंचने की कोशिश की जा रही है। यह बहुत बड़ा फर्क है, क्योंकि व्यवस्था की गड़बड़ी को दूर करने से ही समस्या की जड़ खत्म हो सकेगी। इस लिहाज से जांच का वर्तमान अभियान लंबी लकीर खींंचने की ओर लगातार आगे बढ़ रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अब चीजें बदलेंगी, जैसा कि शिबू सोरेन ने नवंबर 2000 में कहा था।

    Exercise to bring Jharkhand's 'hijack system' back on track
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