पांच महीने पहले सत्ता संभालने के बाद से ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कह रहे हैं कि झारखंड की अर्थव्यवस्था बेहद खराब है। सरकार का खजाना खाली है। वैश्विक महामारी कोरोना ने इस संकट को और गहरा कर दिया है। तमाम आर्थिक गतिविधियों के ठप होने के कारण राज्य को अपने स्रोतों से होनेवाली आमदनी लगभग शून्य हो गयी है। इस खस्ताहाल अर्थव्यवस्था पर बड़ी संख्या में घर लौटे प्रवासी कामगारों ने बड़ा बोझ डाल दिया है और झारखंड की गाड़ी लगभग ठहरने की कगार पर आ चुकी है। ऐसे में यह जरूरी है कि राज्य की अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के लिए कुछ ठोस उपाय किये जायें और इसके साथ अतिरिक्त संसाधन भी जुटाये जायें। राज्य सरकार अपनी पूरी ताकत से इस काम में लगी हुई है, लेकिन यह पर्याप्त साबित नहीं हो रहा है। स्थिति को सुधारने के लिए जो एक अच्छा विकल्प हो सकता है, वह है ग्रामीण अर्थव्यवस्था, यानी खेती-किसानी और कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना। झारखंड की अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण कारक की तरफ अब तक बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया। इसलिए यहां न तो सिंचाई के साधन उपलब्ध कराये गये और न ही किसानों की हालत सुधारने के लिए ठोस नीतियां ही बनीं। हेमंत सोरेन सरकार के सामने यह एक अवसर है कि वह झारखंड के गांवों को अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में शामिल कर न केवल एक उपलब्धि हासिल कर सकती है, बल्कि राज्य के साथ-साथ देश के विकास में भी उल्लेखनीय योगदान दे सकती है। कोरोना संकट ने भारत जैसे तमाम देशों को गांवों की ओर लौटने के लिए मजबूर किया है। इसलिए झारखंड के पास यह अच्छा अवसर है। झारखंड की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए गांवों की स्थिति बदलने की जरूरत की पृष्ठभूमि में आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष पेशकश।
कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को तबाह तो किया है, लेकिन एक बड़ा संदेश यह भी दिया है कि लोगों को अपनी जड़ों को नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे हालात कितने भी खराब क्यों न हो जायें। चार दिन पहले जब लेह-लद्दाख में फंसे झारखंड के कामगारों का जत्था हवाई जहाज से रांची लौटा, तब उनमें से एक ने यह बात कही। बेहद कम पढ़े-लिखे साहेबगंज के धनपति टुडू जब यह कह रहा था, उसकी आंखें भीगी हुई थीं। उसके मन में पश्चाताप था। पश्चाताप इस बात का कि गांव की मिट्टी को उसने छोड़ दिया था। उसने आगे कहा कि अब वह कुछ पैसों की लालच में अपनी मिट्टी को छोड़ कर नहीं जायेगा। उससे पहले भी कई कामगार यह बात कह चुके थे, लेकिन धनपति ने पूरी तस्वीर साफ कर दी।
वाकई झारखंड के लोगों को अपनी मिट्टी को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और जब कोरोना का प्रहार हुआ, ये लोग उसी मिट्टी की शरण में लौट गये हैं। अब इनके सामने रोजी-रोजगार का बड़ा संकट है। लेकिन सरकार के सामने उनसे भी बड़ा संकट है। सरकार को पूरे राज्य पर ध्यान देना है। सरकार कोरोना संकट के पहले से ही कह रही है कि उसके पास पैसा नहीं है। राज्य का खजाना खाली है और राज्य को चलाना मुश्किल हो रहा है। इस मुश्किल दौर में 12 से 15 लाख प्रवासियों के लिए रोजी-रोजगार की व्यवस्था एक ऐसी चुनौती है, जिससे पार पाना कठिन महसूस हो रहा है।
ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि झारखंड की गाड़ी आगे कैसे बढ़े। कोरोना के कारण लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों पर पूरी तरह विराम लगा दिया था। चीजें धीरे-धीरे सामान्य तो हो रही हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। राज्य सरकार के लिए एक-एक दिन बेहद कठिनाई में बीत रहा है। ऐसे में अब उम्मीद एक बार फिर गांवों पर आकर टिक गयी है। करीब 79 हजार 714 वर्ग किलोमीटर वाले झारखंड को खेती-किसानी और ग्रामीण कुटीर उद्योग से बड़ी राहत मिल सकती है। राज्य के दो दशक के इतिहास को देखा जाये, तो अब तक राज्य की अर्थव्यवस्था में खेती-किसानी का बहुत अधिक योगदान नहीं रहा है। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान जहां 22 से 25 प्रतिशत है, वहीं झारखंड में यह महज पांच से आठ प्रतिशत है, लेकिन यदि इसके कारणों की विवेचना की जाये, तो साफ हो जाता है कि झारखंड में अब तक किसी भी सरकार ने इसे बढ़ाने की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। करीब 24 हजार वर्ग किलोमीटर की वन संपदा वाले राज्य में केवल 38 लाख हेक्टेयर जमीन ही खेती के लायक है और उसमें भी महज 10 प्रतिशत में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। झारखंड के 90 प्रतिशत खेत मानसून पर निर्भर हैं। पिछले दो दशक में इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया।
सरकार की तरफ से सिंचाई के लिए केवल 11 बड़ी और 21 मध्यम परियोजनाएं जमीन पर उतारी गयीं। आज हालत यह है कि झारखंड के 18.9 फीसदी खेत तालाबों पर, 12.75 फीसदी कुओं पर और महज 6.3 प्रतिशत खेत नलकूपों पर निर्भर हैं। कुल 40.58 प्रतिशत खेतों में सिंचाई आहर, पइन और दूसरे माध्यमों से की जाती है। यह दुखद स्थिति है। यदि किसी सरकार ने इस ओर ध्यान दिया होता, तो झारखंड को आज न खराब माली हालत की चिंता होती और न ही यहां के लोगों को अपनी माटी को छोड़ कर बाहर जाना पड़ता।
अब हेमंत सरकार ने गांवों की तरफ ध्यान दिया है। प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देने के लिए नयी योजनाएं शुरू की गयी हैं। इसके साथ ही अब सामूहिक खेती कराने की योजना बनायी जा रही है।
खाली पड़ी जमीन पर खेती कराने से न केवल रोजगार के अवसर पैदा होंगे, बल्कि आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ेंगी। राज्य में मानसून का आगमन हो चुका है और अगले तीन महीने तक खेती को छोड़ कोई और काम नहीं होगा। इस तथ्य को ध्यान में रख कर यदि योजनाएं बनायी जायें, तो हालत सुधर सकती है। उद्योग और दूसरी गतिविधियों को समुचित प्रोत्साहन तो दिया ही जा रहा है, अब जरूरत किसानों को प्रोत्साहित करने की है। जो कामगार खेती को छोड़ दूसरे काम में कुशलता हासिल कर चुके हैं, उन्हें दोबारा खेती से जोड़ने के लिए व्यापक अभियान चलाना होगा। लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि खेती में यह निवेश कभी बेकार नहीं जायेगा। इसी तरह कुटीर उद्योग को बढ़ावा देकर राज्य की अर्थव्यवस्था को गति दी जा सकती है। झारखंड में हुनर की कमी नहीं है। जरूरत इस हुनर को रास्ता दिखाने की है।
अपनी मिट्टी से जुड़ कर और उसे अपनी कामयाबी का जरिया बना कर झारखंड विकास के रास्ते पर लौट सकता है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस ओर संकेत कर भी चुके हैं कि राज्य के पास संसाधनों की कमी नहीं है। अब जरूरत एकजुट होकर इन संसाधनों के इस्तेमाल की है। इसलिए झारखंड की सवा तीन करोड़ आबादी को भौतिक चमक-दमक से दूर होकर अगले कुछ दिनों के लिए अपनी माटी, अपने लोगों पर ध्यान देना होगा। संकट से बाहर निकलने का यही एकमात्र रास्ता है।