-हर मुद्दे को राजनीति के चश्मे से देखना हो सकता है नुकसानदेह
-दुनिया की सबसे बड़ी प्रकाशक संस्था को देश के सबसे बड़े नेता के नाम पर स्थापित सम्मान देने का फैसला एकदम सही है
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने गोरखपुर में 103 साल पहले स्थापित गीता प्रेस को इस साल का गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की है। इस घोषणा का कांग्रेस ने विरोध किया है और कहा है कि गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिया जाना सावरकर और गोडसे को पुरस्कृत करने जैसा है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश की इस टिप्पणी की चौतरफा निंदा हो रही है और यह होनी भी चाहिए, क्योंकि गांधी शांति पुरस्कार को राजनीतिक चश्मे से देखना कहीं से भी सही नहीं है। आज 140 करोड़ की आबादी वाले भारत में गीता प्रेस की स्थिति यह है कि उसके द्वारा प्रकाशित कोई न कोई किताब हर हिंदू धर्मावलंबी के घर में जरूर मिलेगी। अपने 103 साल के कार्यकाल में इस प्रकाशन संस्थान ने 50 करोड़ से अधिक किताबें प्रकाशित की हैं और कई पत्र-पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन आज भी यहां से होता है। इस संस्थान की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसकी किताबें बेहद सस्ती होती हैं, यानी गीता प्रेस आज भी बाजार की प्रतिस्पर्द्धा से अलग रास्ते पर चल रहा है। गीता प्रेस प्रबंधन ने गांधी शांति पुरस्कार के तहत मिलनेवाली एक करोड़ रुपये की रकम को स्वीकार करने से मना कर दिया है, क्योंकि उसे लगता है कि यह उसके पवित्र लक्ष्य के रास्ते में एक भटकाव के जैसा साबित हो सकता है। यह सहृदयता गीता प्रेस जैसा संस्थान ही दिखा सकता है, जो महात्मा गांधी के जीवन दर्शन के अनुकूल है। क्या है गीता प्रेस और क्या है गांधी शांति पुरस्कार, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
गोरखपुर के प्रख्यात प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस को इस साल का गांधी शांति पुरस्कार दिया जायेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थान को इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना है। गीता प्रेस को यह पुरस्कार ‘अहिंसक और दूसरे गांधीवादी तरीकों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में योगदान’ के लिए दिया जायेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार के लिए चुने जाने पर बधाई दी है। उन्होंने ट्वीट कर लिखा, गीता प्रेस ने एक सौ साल में लोगों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने की दिशा में काफी सराहनीय काम किया है। गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित संस्था या व्यक्ति को एक करोड़ की राशि भी दी जाती है। गीता प्रेस अपनी परंपरा के मुताबिक किसी भी सम्मान को स्वीकार नहीं करता है। हालांकि इसकी बोर्ड मीटिंग में तय हुआ है कि परंपरा को तोड़ते हुए पुरस्कार स्वीकार किया जायेगा, लेकिन इसके साथ मिलनेवाली धनराशि नहीं ली जायेगी।
कांग्रेस ने शुरू की राजनीति
कांग्रेस ने गीता प्रेस को पुरस्कार दिये जाने के फैसले की आलोचना की है। पार्टी नेता जयराम रमेश ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिये जाने की तुलना सावरकर और गोडसे को पुरस्कृत करने से की है। उन्होंने ट्वीट किया कि गीता प्रेस की जीवनी में महात्मा गांधी के साथ इसके संबंधों और राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक मोर्चों पर चल रही लड़ाइयों का पता चलता है।
उधर भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी दिक्कत है कि वह परिवार के घोंसले और नेता के चोंचले से बाहर नहीं निकल पा रही है। नकवी ने कहा कि उन्हें लगता है कि सारे नोबेल पुरस्कार, सारे सम्मान सिर्फ एक ही परिवार के घोंसले में सीमित रहने चाहिए। गीता प्रेस ने देश के संस्कार, संस्कृति और देश की समावेशी सोच को सुरक्षित रखा है।
दुनिया की सबसे बड़ी प्रकाशन संस्था है गीता प्रेस
गीता प्रेस हिंदू धार्मिक ग्रंथों की दुनिया की सबसे बड़ी प्रकाशक संस्था है। इसकी स्थापना उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में हुई थी। 29 अप्रैल 1923 को जय दयाल गोयनका, घनश्याम दास जालान और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने मिल कर इसकी स्थापना की थी। गीता प्रेस की स्थापना का उद्देश्य सनातन धर्म के सिद्धांतों को बढ़ावा देना था। हनुमान प्रसाद पोद्दार गीता प्रेस की ‘कल्याण’ मैग्जीन के आजीवन संपादक भी थे। अपनी स्थापना के पांच महीने बाद ही गीता प्रेस ने छह सौ रुपये में प्रिंटिंग मशीन खरीद ली थी। गीता प्रेस के पास साढ़े तीन हजार से अधिक पांडुलिपियां मौजूद हैं। वास्तव में गीता प्रेस गोविंद भवन कार्यालय की एक यूनिट है, जिसे सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 (अब पश्चिम बंगाल सोसायटीज एक्ट, 1960) के तहत निबंधित किया गया था। अब तक यहां से 41.7 करोड़ से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये किताबें हिंदी के अलावा मराठी, गुजराती, ओड़िया, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, नेपाली, अंग्रेजी, बांग्ला, तमिल, असमिया और मलयालम समेत 14 भाषाओं में हैं। गीता प्रेस अब तक 16.21 करोड़ से ज्यादा तो श्रीमद्भगवद्गीता की कॉपियां छाप चुका है। इसके अलावा 11.73 करोड़ तुलसीदास की रचनाएं और 2.68 करोड़ पुराण और उपनिषद की कॉपियां छापी हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसकी किताबें बेहद सस्ती होती हैं। इसलिए भारत के हर हिंदू घर में गीता प्रेस की मौजूदगी है। हर घर में गीता प्रेस से प्रकाशित कोई न कोई किताब जरूर मिलेगी।
कैसे होता है यहां काम
गीता प्रेस का प्रबंधन गवर्निंग काउंसिल या ट्रस्ट बोर्ड संभालता है। गीता प्रेस न तो चंदा मांगता है और न ही विज्ञापन लेता है। इसका सारा खर्च समाज के लोग ही उठाते हैं। ये वो लोग और संस्थाएं हैं, जो छपाई में लगनेवाले सामान किफायती कीमतों में उपलब्ध करवाते हैं। यहां पर हर दिन की शुरूआत प्रार्थना से होती है। एक व्यक्ति बार-बार यहां घूमता रहता है और लोगों को भगवान का नाम लेने की याद दिलाता रहता है। इस संस्थान के इतिहास में दिसंबर 2014 में एक बार आंदोलन हुआ था। उस समय गीता प्रेस के कर्मचारी धरने पर बैठ गये थे। कर्मचारियों का यह धरना सैलरी को लेकर था। इसके बाद गीता प्रेस ने तीन कर्मचारियों को निकाल भी दिया था। हालांकि बाद में कर्मचारी संगठन और गीता प्रेस के ट्रस्टीज के बीच हुई बैठक में इस मसले को सुलझा लिया गया। गीता प्रेस ने उन तीनों कर्मचारियों को भी वापस काम पर रख लिया था। गीता प्रेस के इतिहास में यह पहली बार था, जब यह लगभग तीन हफ्तों तक बंद रहा था। कर्मचारियों की मांगें मानने के बाद गीता प्रेस में फिर से काम शुरू हो पाया था।
क्या-क्या छापता है गीता प्रेस?
यहां पर हिंदू धार्मिक ग्रंथों की छपाई होती है। इनमें श्रीमद्भगवद्गीता, रामचरितमानस, रामायण, पुराण, उपनिषद, तुलसीदारस और सूरदास के साहित्य छपते हैं। इनके अलावा बच्चों में धर्म की समझ बढ़ाने वाली किताबें भी यहां छपती हैं। यह संस्था अब तक बच्चों के लिए 11 करोड़ से ज्यादा किताबें छाप चुकी है। गीता प्रेस हर महीने ‘कल्याण’ नाम से एक पत्रिका भी निकालती है। इसमें भक्ति, ज्ञान, योग, धर्म, वैराग्य, आध्यात्म जैसे विषय होते हैं। साथ ही हर साल किसी खास विषय या शास्त्र को कवर करनेवाला विशेष अंक भी निकलता है।
अब बात गांधी शांति पुरस्कार की
गांधी शांति पुरस्कार की शुरूआत 1995 में केंद्र सरकार की ओर से की गयी थी। हर साल यह पुरस्कार महात्मा गांधी के आदर्शों के प्रति याद के तौर पर दिया जाता है। यह पुरस्कार किसी को भी मिल सकता है, यानी जरूरी नहीं कि भारतीयों या भारतीय संगठन को ही यह पुरस्कार मिले। इस पुरस्कार के तहत एक करोड़ रुपये की रकम, प्रशस्ति पत्र और एक पट्टिका दी जाती है। इसरो, रामकृष्ण मिशन, बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक, विवेकानंद केंद्र, अक्षय पात्र, एकल अभियान ट्रस्ट और सुलभ इंटरनेशनल जैसे संस्थानों को यह पुरस्कार मिल चुका है। इतना ही नहीं, 2019 में यह पुरस्कार ओमान के सुल्तान कबूस बिन सईद अल सईद को मिला था। 2020 में बांग्लादेश के बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान को यह पुरस्कार दिया गया था।
हर मुद्दे पर राजनीति उचित नहीं
हर मामले को राजनीतिक रंग में डुबोने की ताक में रहना भारतीय राजनेताओं की फितरत सी बनती जा रही है। खास कर कांग्रेस की अगुवाई में तमाम विपक्षी दल इस बीमारी से ग्रस्त हो गये लगते हैं। गीता प्रेस को पुरस्कार देने की घोषणा पर कांग्रेस की टिप्पणी को इसी नजरिये से देखा जा रहा है। गीता प्रेस को पुरस्कार देने के फैसले पर कांग्रेस द्वारा शुरू की गयी राजनीति की देश भर में आलोचना हो रही है। पार्टी के ही कई नेताओं ने जयराम रमेश की टिप्पणी को अनावश्यक और नुकसानदेह बताया है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने तो यहां तक कह दिया कि रमेश की टिप्पणी 2019 में मणिशंकर अय्यर द्वारा पीएम मोदी के लिए की गयी टिप्पणी से भी अधिक नुकसानदेह साबित हो सकती है। राजनेताओं को राजनीतिक दलों की कार्यशैली या उनके कार्यक्रमों को लेकर आपत्ति हो सकती है, पर किसी भी संस्था को बेवजह विवादों में घसीटना अशोभनीय ही कहा जायेगा। यह सही है कि आज के दौर में राजनीतिक दलों और नेताओं की रणनीति वोट बैंक की चिंता और सुर्खियां बटोरने की आतुरता के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन राजनेताओं से यह तो अपेक्षा की ही जाती है कि वे बयान सोच-समझ कर दें।