-चुनाव हो या कोई धार्मिक-सामाजिक आयोजन, हिंसा की आशंका बन जाती है
-सियासत की जहरीली चालों ने ‘भद्रलोक के प्रदेश’ को बना दिया है असहिष्णु
-बड़ा सवाल : इस माहौल को खत्म करने के लिए कितना इंतजार करना होगा
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही राजनीतिक तापमान बढ़ गया है। यह स्वाभाविक है, लेकिन सबसे चिंता की बात यह है कि राजनीतिक तापमान बढ़ने के साथ सामाजिक तनाव भी हिंसक रूप लेने लगा है। राज्य के कई इलाकों में राजनीतिक हिंसा की खबरें आने लगी हैं। इससे पहले अप्रैल के अंत में रामनवमी और हनुमान जयंती के मौके पर निकाली गयी शोभायात्रा पर कथित पथराव के बाद दो गुटों के बीच भड़की हिंसा की आग अब भी सुलग रही है। लोकतंत्र में हिंसा, चाहे वह राजनीतिक हो या धार्मिक या फिर सांप्रदायिक, का कोई स्थान नहीं होता। इस पुरानी मान्यता के बीच बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आखिर ‘भद्रलोक का प्रदेश’ बंगाल इतना तनावपूर्ण कैसे हो गया है। क्यों बार-बार राज्य में हिंसा भड़क उठती है। चाहे चुनाव हो या फिर कोई धार्मिक आयोजन, राजनीतिक आंदोलन हो या फिर सामाजिक कार्यक्रम, हर वक्त बंगाल में हिंसा की आशंका बनी रहती है। जानकारों का मानना है कि यह सब कानून-व्यवस्था का मामला कतई नहीं है, बल्कि इसके पीछे जहरीली सियासत की वे चालें हैं, जिनके माध्यम से वोट बैंक तैयार किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में इसे तुष्टिकरण भी कह सकते हैं। बंगाल को भारत का सांस्कृतिक और बौद्धिक केंद्र कहा जाता है, लेकिन हाल के दिनों में देखा गया है कि यह प्रदेश छोटी-छोटी बातों पर ही जल उठता है। बंगाल का इतना ज्वलनशील होना देश की सेहत के लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि इसका असर देश के दूसरे हिस्सों से लेकर सीमा पार तक होता है। चिंता की बात तो यह भी है कि इन हिंसक वारदातों की जांच होती है, राज्य खुफिया विभाग से लेकर सीबीआइ तक को जांच का जिम्मा दिया जाता है, लेकिन उस जांच का परिणाम क्या होता है, यह किसी को पता ही नहीं चलता। इस तमाम पृष्ठभूमि में बंगाल की स्थिति का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही एक बार फिर राज्य के विभिन्न इलाकों से हिंसा की खबरें सामने आने लगी हैं। तीन दिन पहले नामांकन पत्र दाखिल करने की शुरूआत हुई और उसी दिन मुर्शिदाबाद जिले में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर दी गयी। राज्य के दूसरे हिस्सों में भी तनाव बढ़ने की खबरें आने लगी हैं। इसके बाद एक बार फिर यह सवाल उठने लगा है कि आखिर बंगाल में चुनावों के दौरान हिंसा क्यों भड़क उठती है। केवल चुनाव ही नहीं, किसी भी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम या राजनीतिक आयोजन में हिंसा की आशंका बन जाती है। यह बड़ा सवाल है कि आखिर पश्चिम बंगाल, जिसे भारत का सांस्कृतिक-बौद्धिक केंद्र कहा जाता है, इतना असहिष्णु क्यों होता जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि बंगाल ऐसा अकेला राज्य है, जहां चुनावों से पहले और इसके दौरान हिंसा की घटनाएं होती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में जहां चुनावों से पहले बाहुबली गतिविधियां बढ़ जाती हैं, वहीं इन राज्यों के साथ साथ महाराष्ट्र, राजस्थान, त्रिपुरा और असम जैसे पूर्वोत्तर राज्य से चुनावी हिंसा की खबरें आती रही हैं। यहां तक कि गुजरात और केरल जैसे आमतौर पर शांत राज्यों से भी बीते वर्षों में चुनावी हिंसा की खबरें आती रही हैं। लेकिन बंगाल की बात ही कुछ अलग है। यहां कब, कहां और किस बात को लेकर हिंसा भड़क जाये, कहा नहीं जा सकता है।
क्या कहते हैं बंगाल की चुनावी हिंसा के आंकड़े
अगर पिछले सालों के आंकड़ों और चुनावी हिंसा के लंबे इतिहास को ध्यान में रखें, तो पश्चिम बंगाल की वर्तमान स्थिति को समझने में काफी हद तक मदद मिलती है। इन आंकड़ों को जानने के बाद यह कहना ज्यादा सही होगा कि बंगाल में हिंसा अब चुनावी संस्कृति का हिस्सा बन गयी है। यहां साल 2018 के पंचायत चुनावों के बाद, उसके अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनावों के दौरान काफी हिंसा देखने को मिली थी। खासकर विधानसभा चुनाव के बाद बड़े पैमाने पर हुई हिंसा और राजनीतिक हत्याओं की घटनाओं ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी थीं।
राजनीतिक हत्याओं के आंकड़े
एनसीआरबी ने 2021-22 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पूरे साल के दौरान देश में होने वाली 76 राजनीतिक हत्याओं के मामलों में से 41 बंगाल से जुड़े थे। लेकिन उसी साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार को जो एडवाइजरी भेजी थी, उसमें कहा गया था कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में 96 हत्याएं हुई हैं और लगातार होने वाली हिंसा गंभीर चिंता का विषय है। उसके बाद एनसीआरबी ने सफाई दी थी कि उसे पश्चिम बंगाल समेत कुछ राज्यों से आंकड़ों पर स्पष्टीकरण नहीं मिला है। इसलिए उसके आंकड़ों को फाइनल नहीं माना जाना चाहिए। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। इनमें सबसे ज्यादा 50 हत्याएं 2009 में हुईं। उस साल अगस्त में माकपा ने एक पर्चा जारी कर दावा किया था कि दो मार्च से 21 जुलाई के बीच तृणमूल कांग्रेस ने उसके 62 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी है।
वर्ष 1980 और 1990 के दशक में, जब बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को कोई वजूद नहीं था, वाम मोर्चा और कांग्रेस के बीच अक्सर हिंसा होती रहती थी। 1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु की ओर विधानसभा में पेश आंकड़ों में कहा गया था कि 1988-89 के दौरान राजनीतिक हिंसा में 86 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौत हो गयी है। इनमें से 34 माकपा के थे और 19 कांग्रेस के। बाकियों में वाम मोर्चा के घटक दलों के कार्यकर्ता शामिल थे।
जहां तक 2018 में हुए पंचायत चुनाव के दौरान हिंसा का सवाल है, तो केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक उस वर्ष 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थी। एनसीआरबी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि वर्ष 2010 से 2019 के बीच राज्य में 161 राजनीतिक हत्याएं हुईं और बंगाल इस मामले में देश भर में पहले स्थान पर रहा।
सिद्धार्थ शंकर रे से शुरू हुआ हिंसक दौर
भले ही दुनिया भर में बांग्ला समाज की छवि भले भद्रलोक वाली रही हो, चुनावों के समय यह गड्डमड्ड हो जाती है। यह राज्य देश विभाजन के बाद से ही हिंसा के लंबे दौर का गवाह रहा है। 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है। 60 के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था। किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं। वर्ष 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ, उसने पहले की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया। 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी। 70 के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और माकपा की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है। वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई।
माना जाता है कि बंगाल में सत्ता की राह ग्रामीण इलाकों से ही निकलती है। यही वजह है कि देश के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के मुकाबले पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत चुनावों को ज्यादा सुर्खियां और अहमियत मिलती रही है। बंगाल में ग्रामीण इलाके शुरू से ही सत्ता की चाबी रहे हैं। वाम मोर्चा ने भूमि सुधारों और पंचायत व्यवस्था की सहायता से सत्ता के विकेंद्रीकरण के जरिये ग्रामीण इलाकों में अपनी जो पकड़ बनायी थी, उसी ने उसे यहां कोई 34 साल तक सत्ता में बनाये रखा था। 2008 के पंचायत चुनावों में ग्रामीण इलाकों में पैरों तले की जमीन खिसकते ही वर्ष 2011 में यहां वाम मोर्चा का लाल किला ढह गया था। तृणमूल कांग्रेस ने उन चुनावों में तमाम राजनीतिक पंडितों के आकलन को गलत साबित करते हुए बेहतरीन प्रदर्शन किया था। इसके अलावा राज्य के विभिन्न इलाकों में बालू, पत्थर और कोयले के अवैध खनन और कारोबार पर वर्चस्व भी पंचायत चुनाव में होने वाली हिंसा की एक प्रमुख वजह है। यह तमाम कारोबार पंचायतों के जरिये ही नियंत्रित होते हैं। ऐसे में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर पंचायतों पर काबू पाने के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं।
जांच एजेंसियों की कार्यशैली भी कटघरे में
यदि बंगाल में हिंसा जमीनी हकीकत है, तो यहां की जांच एजेंसियों की कार्यशैली भी कम संदिग्ध नहीं है। हर हिंसा के बाद उसकी जांच की घोषणा होती है। राज्य पुलिस से लेकर खुफिया विभाग और सीबीआइ तक और यहां तक कि कई मामलों में न्यायिक और प्रशासनिक आयोग भी हिंसक वारदातों की जांच करता है, लेकिन आज तक शायद ही किसी की जांच रिपोर्ट सामने आयी है। हर जांच बीच रास्ते में कहां गुम हो जाती है, यह किसी को पता नहीं चलता है। इसका परिणाम यह होता है कि अगली वारदात और भी गंभीर रूप से सामने आती है। उदाहरण के लिए विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद जो बड़े पैमाने पर हिंसा हुई, उसकी सीबीआइ जांच कहां तक पहुंची है, किसी को पता नहीं है।
ऐसे में अब पश्चिम बंगाल के असहिष्णु हो गये माहौल को बदलने के लिए चौतरफा प्रयास जरूरी हो गया है। कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, बाकी देश वह कल सोचता है, तो फिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के बौद्धिक केंद्र का इतना असहिष्णु हो जाना पूरे देश की सेहत के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।