विशेष
इस चुनाव में भी नहीं गली दलबदलुओं की दाल
भाजपा को अब इस तरह के प्रयोग करने से बचने की है जरूरत
तपे-तपाये कैडरों और मौसमी नेताओं के बीच फर्क करना ही होगा
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
18वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के दौरान और चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद कई तरह की दिलचस्प कहानियां और आंकड़े सामने आये हैं, आ रहे हैं। इन आंकड़ों में से एक दिलचस्प आंकड़ा दलबदलुओं के स्ट्राइक रेट के बारे में है और खास कर भाजपा में दलबदलुओं के प्रति सम्मोहन की। देश में अब तक हुए चुनाव में एकाध अवसरों को छोड़ कर कभी दलबदलुओं का चुनावी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और यह बात इस बार भी साबित हुई। लेकिन लगता है कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा इससे सीख नहीं ले रही है। इस बार के चुनाव में भी उसने अपने कई सीटिंग सांसदों का टिकट काट कर दूसरे दलों से आये नेताओं को टिकट दिया और इसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा है। यह केवल भाजपा के साथ नहीं हुआ है, बल्कि हर उस पार्टी के साथ हुआ है, जो पाला बदलने वाले नेताओं को अपने तपे-तपाये कैडरों से अधिक महत्व देती हैं, उन्हें तरजीह देती हैं, टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारती हैं। इससे पार्टी के पुराने कैडर खुद को उपेक्षित तो महसूस करते ही हैं, उनके आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचती है, पार्टी के लिए काम करने का उनका हौसला खत्म होता है। 2024 के चुनाव में भाजपा के साथ ठीक ऐसा ही हुआ। उसने 2014 के बाद दूसरे दलों से पार्टी में आये 110 लोगों को टिकट दिया, लेकिन उनमें से 62 फीसदी को जनता ने नकार दिया। यही हाल कांग्रेस और दूसरे दलों का भी रहा। इसलिए अब राजनीतिक दलों को, खास कर भाजपा को इस तरह के प्रयोग से बचना होगा और उन्हें अपने तपे-तपाये कैडरों और मौसमी नेताओं के बीच के अंतर को समझना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो फिर चुनाव-दर-चुनाव उनके लिए समस्या बढ़ती जायेगी। भारत की राजनीति में क्या है दलबदलुओं का इतिहास और भाजपा को इस घाव ने कैसे अपने शिकंजे में लेकर नुकसान पहुंचाया है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
भाजपा, जो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है, उसे आखिर खुद की पार्टी की बजाय दूसरे दलों के नेताओं में ज्यादा इंटरेस्ट क्यों रहता है। उसे खुद के नेताओं या कैडर पर भरोसा क्यों नहीं रहता। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 441 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें उसने 110 दलबदलुओं को टिकट दिया था। ये दलबदलू मोदी युग के हैं, यानि 2014 के बाद से जिन्होंने दल बदला था। इनमें से करीब 62 प्रतिशत उम्मीदवार चुनाव हार गये। यानी 2024 लोकसभा चुनाव में जनता ने दलबदलुओं को नकार दिया। इस बार 2024 के चुनाव से पहले कम से कम 25 नेता दूसरी पार्टियों से भाजपा में शामिल हुए थे। इनमें से 20 नेता हार गये। पार्टी ने ऐसे वक्त पर भी दलबदलुओं का सहारा पाने की कोशिश की, जब 2019 में उसे अकेले 303 सीटें आयी थीं। यानी चार सौ पार वाले जिन्न ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। अगर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का हाल ऐसा है, तो फिर आगे भगवान ही मालिक है।
आखिर भाजपा आलाकमान को खुद के लोगों की उपेक्षा करने का ज्ञान कब और कहां से प्राप्त हुआ। खुद की पार्टी के सीटिंग सांसदों का टिकट काटना ही था, तो पांच साल, अगर वे सांसद अपने क्षेत्र में काम नहीं कर रहे थे, तो उनकी मॉनिटरिंग दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी क्यों नहीं कर रही थी। चलिए सीटिंग सांसदों का टिकट काटा भी गया, तो मौका खुद की पार्टी के लोगों को मिलना चाहिए था। अगर मौका नहीं दिया गया, तो यह हर उन भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ छलावा है, जिन्होंने अपनी सारी जिंदगी पार्टी में खपा दी, जो जीवन भर झंडा ढोते रह गये, जयकारा लगाते-लगाते उनके चेहरों पर झुर्रियां आने लगीं। लेकिन आखिरकार उन्हें क्या मिला, उपेक्षा। भाजपा का जो सिद्धांत रहा है, उसमें कोई भी अपनी मर्जी थोप नहीं सकता। अगर ऐसा होता है, तो उसे जवाब भी उसी अंदाज में मिलता है। एक तरफ खुद के नेताओं को टिकट मिलता नहीं और दूसरी तरफ दूसरे दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल करा कर पार्टी के कार्यकर्ताओं को कहा जाता है कि उसे सपोर्ट करें। इसका मतलब तो यही हुआ कि प्रेमिका की शादी किसी और से हो गयी और मेहमाननवाजी भी खुद को ही करनी पड़ रही। अब ऐसे में तो मामला गड़बड़ायेगा ही। एक उपेक्षित व्यक्ति से आप इस बात की उम्मीद कैसे रख सकते हैं कि वह अपना सब कुछ दांव पर लगा कर दूसरे दल से आये नेता को जीताने में अपनी पूरी ऊर्जा लगायेगा। उसका मनोबल तो पहले ही टूट चुका है। हर कोई संत-महात्मा थोड़े न है कि उसे फर्क नहीं पड़ेगा। आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि पार्टी के कार्यकर्ता दूसरे दलों से आये नेताओं के लिए पलक-पांवड़े बिछा के रखेंगे और गायेंगे: तारों का चमकता गहना हो, फूलों की महकती वादी हो, उस घर में खुशहाली आये, जिस घर में तुम्हारी शादी हो। यह सब फिल्मों में ही होता है, असल जिंदगी में गिव एंड टेक ही चलता है। टिकट वितरण कोई खेल का पास थोड़े है कि अपने सगे-संबंधियों या नियर और डियर वन को बांट दिया। पहले उम्मीदवार को तो पहचानिये, तब जाकर गुटबाजी कीजिए । गुटबाजी एक-दूसरे को कमजोर करने का ही माध्यम है। इसका असल फायदा कोई तीसरा ही उठा लेता है।
ठीक यही हुआ है 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ। यूपी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यूपी में तो भाजपा के आंतरिक सर्वे में ही पता चल गया था कि कई सीटिंग एमपी हार जायेंगे, लेकिन उनका टिकट नहीं काटा गया। क्यों! यह सवाल बहुत बड़ा है। यूपी में जो परिणाम आया, उससे फायदा किसे हुआ। किसी को नहीं, बल्कि और तरह-तरह की बातें सामने आने लगीं, जो पार्टी के हक में नहीं हैं। व्यक्ति तो छोड़िए, पार्टी कमजोर हुई। अगर भाजपा अपनी ही पार्टी के नेताओं का पैर नहीं खींचती, तो उसे बहुमत अकेले दम पर हासिल हो जाता। बात अगर यहीं रुक जाती, तो बेहतर था, लेकिन यह गुटबाजी वाली बीमारी भाजपा में अब कैंसर की तरह फैल रही है। भाजपा को दूसरे का घाव पालने में बड़ा मजा आ रहा है। लेकिन इसी घाव ने अब अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। अब दूसरे दलों से आये नेताओं ने हारने के बाद भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक पर आरोप मढ़ना शुरू कर दिया है कि यही लोग हैं मेरी हार का कारण, नहीं तो मैंने झंडा गाड़ ही दिया था। यहां दो सवाल उठते हैं, जिसकी समीक्षा पार्टी को करनी चाहिए। एक तो दलबदलुओं को किस आधार पर टिकट दिया गया, जो हार गये और दूसरा जिन सीटिंग एमपी के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी थी, तो भी उन्हें टिकट किसके कहने पर दिया गया। इसके बारे में समीक्षा करनी जरूरी है।
इस चुनाव में यह भी देखा गया कि आरएसएस की भी उपेक्षा हुई। संघ ने जहां-जहां पार्टी को चेताया, उसे अनसुना कर दिया गया। संघ ने पहले ही चेता दिया था कि दलित वोट भाजपा से छिटकने वाला है, लेकिन भाजपा में बैठे संगठन के लोगों ने उनकी एक न सुनी। वे 400 पार वाला नारा कान में डाल सो रहे थे। यही 400 पार वाला नारा भाजपा के लिए ओवरडोज हो गया। ठीक वैसे, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय इंडिया शाइनिंग और फील गुड वाला नारा ओवरडोज हो गया था। इस बार संगठन और उसके लोग निश्चिंत थे कि अबकी बार 400 पार ही है। वैसे इस बार भाजपा के लिए 400 पार असंभव नहीं था। लेकिन भाजपा ने खुद इसे संभव होने नहीं दिया। अगर पश्चिम बंगाल की बात करें, जब 2019 में पार्टी को 18 सीटें आयी थीं, तब ऐसा लगा कि बंगाल अब परिवर्तन मांग रहा है। यह परिवर्तन भी होता, अगर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बंगाल में पार्टी के कार्यकर्ताओं के खिलाफ हुई हिंसा का जवाब देता। जब भाजपा के छोटे-छोटे कार्यकर्ता मारे जा रहे थे, तब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व क्या कर रहा था। आखिर क्यों कोई भी अपनी जान जोखिम में डाल कर आपकी सेवा करेगा। कोई खैरात तो उसने खाया नहीं है। अगर भाजपा पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा का मुंहतोड़ जवाब देती, तब उसे 18 से 12 पर नहीं आना पड़ता। बंगाल में उसकी सीटें जरूर बढ़तीं। यूपी में भी अगर भाजपा अति-आत्मविश्वास का शिकार नहीं होती, तो उसे 29 सीटें नहीं गंवानी पड़ती। इस बार तो और सीटें झोली में आतीं।
भाजपा अपने अंतर्कलह का शिकार हो गयी। कोई अगर किसी से सवाल करेगा कि झारखंड में सबसे बड़ा नेता कौन है, तो जवाब मिलेगा शिबू सोरेन। जिस शिबू सोरेन को भाजपा के सुनील सोरेन ने हराया था, उनका ही टिकट जब पार्टी ने काट दिया और दूसरे दल से आयीं सीता सोरेन को टिकट दे दिया गया, तो नतीजा क्या होना चाहिए। लोग तो यहीं बोलेंगे कि फिफ्टी-फिफ्टी चांस है जीतने-हारने का। लेकिन सुनील सोरेन ने तो शिबू सोरेन जैसे कद्दावर को हराया था, एक मौका तो उन्हें दिया ही जा सकता था। आखिरकार क्या हुआ, अब सीता सोरेन आज भाजपा नेताओं पर बरस रही हैं। कह रही हैं कि वह भितरघात का शिकार हुई हैं। प्रदेश नेतृत्व तक पर उन्होंने प्रहार कर दिया। दलबदलुओं का कॉनफिडेंस भी गजब का होता है। अगर वह चुनाव जीतता है, तो सारा क्रेडिट खुद लेता है और अगर हारता है, तो इसका ठीकरा पार्टी के माथे फोड़ देता है। फिर अपना पुराना या नया ठिकाना तलाशता है।
इस बार नकारे गये दलबदलू
2024 लोकसभा चुनाव में जनता ने दलबदलुओं को नकार दिया है। चुनाव से पहले कम से कम 25 नेता दूसरी पार्टियों से बीजेपी में शामिल हुए थे। इनमें से 20 नेता हार गये हैं। कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ने वाले सात दलबदलू उम्मीदवारों में से केवल दो को ही जीत मिली है। यानी जीत का स्ट्राइक रेट लगभग 28% रहा है। कमोबेश ऐसा ही हाल अन्य पार्टियों के दलबदलू नेताओं का भी है। भाजपा का टिकट नहीं मिलने पर कांग्रेस में शामिल होने वाले नेताओं का हाल भी कुछ अलग नहीं रहा। कांग्रेस का टिकट पाने वाले छह में से पांच नेता चुनाव हार गये। दल बदलना नेताओं के लिए नयी बात नहीं है। नेता कई कारणों मसलन-टिकट न मिलने, दूसरी पार्टी में जीत की संभावना अधिक दिखने आदि से पार्टी बदलते हैं। इस वजह से देश में कई बार राजनीतिक अस्थिरता का दौर देखा गया है।
दलबदलुओं का इतिहास: कभी खुशी कभी गम
भारतीय राजनीति में दलबदल का इतिहास काफी पुराना है। पहले और चौथे लोकसभा चुनाव के बीच दो दशक की अवधि में दलबदल के 542 मामले सामने आये थे। दलबदलू नेताओं के लिए सबसे अच्छा 1977 का आम चुनाव रहा था। आपातकाल के ठीक बाद हुए इस चुनाव में इंदिरा गांधी से मुकाबले के लिए कई राजनीतिक ताकतों ने हाथ मिलाया। तब चुनाव में उतरे 2439 उम्मीदवारों में से 6.6 प्रतिशत यानी कुल 161 दलबदलू थे। इनकी सफलता दर 68.9 प्रतिशत थी, जो अब तक का उच्चतम स्तर है। 1980 के लोकसभा चुनाव में कुल 4629 उम्मीदवारों में से 377 यानी 8.1 प्रतिशत दलबदलू थे। इनमें से 20.69 प्रतिशत सफल हुए। 1984 का साल कांग्रेस में आने वाले दलबदलुओं के लिए अच्छा साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर चल रही थी। तब कांग्रेस ने 32 दलबदलू उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें 26 को जीत मिली। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा। तब पार्टी से 62 दलबदलू उम्मीदवार लड़े थे, लेकिन किसी को भी जीत नहीं मिली। अगर 2004 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो कुल उम्मीदवारों में दलबदलू उम्मीदवारों का हिस्सा 3.9 प्रतिशत था और उनकी सफलता दर 26.2 प्रतिशत थी। 2014 में भाजपा के टिकट पर लड़ने वाले दलबदलू उम्मीदवारों की सफलता दर 66.7 प्रतिशत थी, वहीं कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा 5.3 प्रतिशत था। 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल आठ हजार से अधिक उम्मीदवारों में अलग-अलग दलों के 195 दलबदलू उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें से केवल 29 को ही जीत मिली। तब भाजपा के कुल उम्मीदवारों में 5.3 प्रतिशत दलबदलू थे, जिनमें से 56.5 प्रतिशत को जीत मिली। कांग्रेस के कुल उम्मीदवारों में 9.5 प्रतिशत दलबदलू थे, जिनमें से जीत सिर्फ पांच प्रतिशत को मिली। इस प्रकार 2019 के आम चुनावों में दलबदलू नेताओं की सफलता दर 15 प्रतिशत से कम रही, जबकि 1960 के दौर में औसतन लगभग 30 प्रतिशत दलबदलू नेता चुनाव जीत रहे थे।