खूंटी। रथयात्रा का नाम आते ही लोगों के मन में आोडिशा के पुरी का ऐतिहासिक रथयात्रा के साथ ही रांची के जगन्नाथपुर की रथायात्रा कौंध जाती है, लेकिन रथयात्रा का प्रचलन सदियों से राजा-रजवाड़ों के यहां होता आ रहा है।
छोटानागपुर की पुरानी रियासत जरियागढ़ में निकलनेवाली रथयात्रा की बात को ही लें, तो पुराने राजवंश के सदस्यों का दावा है कि जरियागढ़ में लगभग ढाई सौ वर्षों से रथयात्रा निकाली जा रही है। भले ही राजप्रथा को समाप्त हुए कई दशक गुजर गये हों, लेकिन कोरोना संकट के दो वर्षों को छोड़ दें, तो जरियागढ़ की रथायात्रा कभी नहीं रुकी। इस संबंध में जरियागढ़ राजपरिवार के सदस्य लाल विजय नाथ शाहदेव बताते हैं जरियागढ़ में रथयात्रा की शुरुआत जरियागढ़ के तत्कालीन स्टेट मैनेजर मांझीलाल योगेंद्र नाथ शाहदेव ने ठाकुर देवेंद्र नाथ शाहदेव के नाम पर की थी।
देवेंद्र नाथ के नाम पर रथ का नामकरण किया गया। विजय नाथ शाहदेव ने बताया कि देवेंद्र नाथ शाहदेव के चार पुत्र थे। सबसे बड़े ठाकुर महेंद्र नाथ शाहदेव, दूसरे वीरेंद्र नाथ शाहदेव, तीसरे जितेंद्र नाथ शाहदेव और, चौथे पुत्र थे नागेंद्र नाथ शाहदेव। देवेंद्र नाथ शाहदेव के निधन के बाद बड़े पुत्र होने के नाते ठाकुर महेंद्र नाथ शाहदेव जरियागढ़ के राजा बने। बाद में ठाकुर महेंद्र नाथ शाहदेव के नाम से एक और रथ निकाला जाने लगा, जो 29 जनवरी 1983 को ठाकुर महेंद्र नाथ शाहदेव के निधन के बाद बंद हो गया। अब जरियागढ़ में राज परिवार के सभी सदस्यों द्वारा मिलकर एक ही रथ निकाला जाता है।
जरियागढ़ के कंसारी समाज द्वारा कंसारी मुहल्ले से भी अलग से एक रथयात्रा निकाली जाती है, जो गढ़ प्रांगण तक आती है। विजय नाथ शाहदेव ने बताया कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीय कें दिन गढ़ से खाली रथ को मदन मोहन गुड़ी तक राज परिवार के सदस्यों और ग्रामीणों द्वारा खींचकर पहुंचाया जाता है। वहां भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के विग्रहों को पूजा-अर्चना के बाद विधि विधान से रथारूढ़ किया जाता है और रथ को खींचकर गढ़ परिसर स्थित मौसी बाड़ी तक लाया जाता है।
नौ दिनों तक मौसीबाड़ी में रहने के बाद घुरती रथ अर्थात आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को सभी विग्रहों को फिर से रथारूढ़ कर मदन मोहन गुड़ी तक ले जाया जाता है। रथ यात्रा के दिन जरियागढ़ में लगने वाले मेले में हजारों की भीड़ जुटती है। लोग रथ की रस्सी खींचने और रथ से फेंके जानेवाले प्रसाद को छाता या कपड़े में लपकने के लिए लालायित रहते हैं। मान्यता है कि रथ की रस्सी खींचने से काफी पुण्य मिलता है। जरियागढ़ के अलावा तोरपा, तपकारा, झपरा, कर्रा, सिलाफारी के अलावा खूंटी में सीआरपीएफ 94 बटालियन द्वारा भी रथयात्रा निकाली जाती है।
भगवान विश्वकर्मा ने मूर्तियों को अधूरा ही छोड़ दिया था
जरियागढ़ के राजपुरोहित सच्चिदानंद शर्मा और अशोक शर्मा बताते हैं कि रथयात्रा का वर्णन है। स्कंध पुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रधुम्न नें पुरी में सबसे पहले आषाढ़ शुक्ल पक्षा की द्वितीया तिथि को रथयात्रा निकाली गई थी। राजपुरोहितों ने बताया कि इंद्रधुम्न की प्रार्थना सें प्रसन्न होकर भगवान विष्णु बहन सुभद्रा और भाइ्र बलराम के साथ काष्ठ विग्रह के रूप में प्रकट हुए थे।
उन्होंने बताया कि जब राजा इंद्रधुम्न भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलराम की लकड़ी की मूर्तिया बनवा रहे थे। उसी समय उनकी पत्नी महारानी गुंडिचा ने भगवान विश्वकर्मा को मूर्ति बनाते हुए देख लिया था। तब भगवान विश्वकर्मा ने मूर्तियों को अधूरा ही छोड़ दिया लेकिन राजा इंद्रधुम्न ने पुरी मेंअधूरे विग्रहों को ही स्थापित कर दिया। यही कारण है कि भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्र तीनों विग्रह आज भी अधूरे हैं। उन्होंने बताया कि एक बार भगवान जगन्नाथ ने अपने भाई‘बहने के साथ अपनी मौसी अर्थात महारानी गुंडिचा के घर जाने की इच्दा जताई। राजा इंद्रधुम्न ने आषाढ़ महीने की द्वितीया तिथि को नया रथ बनाकर तीनों को गुंडिचा के घर भेजा था। वहां से नौ दिनों के बाद तीनों अपने घर लौटे थे। इसीलिए एकादशी तिथि को घुरती रथयात्रा निकाली जाती है। उन्होंने बताया कि आज भी उन्हीं अधूरे विग्रहों की आज भी पूजा-अर्चना की जाती है और रथयात्रा निकाली जाती है।