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    Home»Top Story»महागठबंधन में आल इज नॉट वेल
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    महागठबंधन में आल इज नॉट वेल

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskJuly 15, 2019No Comments6 Mins Read
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    झामुमो ने 41, कांग्रेस ने 30 सीटों पर दावा कर सबको हैरत में डाला

    विपक्षी महागठबंधन भले ही फिर से एकजुट होने का दावा करे, लेकिन अंदर ही अंदर स्थिति सामान्य नहीं है। अब सभी पार्टियों ने मिल कर यह तय कर लिया है कि जहां से जो विधायक है, वह सीट उसी पार्टी के कब्जे में रहेगी। सीटिंग विधायकों के लिए भी यह राहत की बात है। अभी से माना जा रहा है कि सीटिंग विधायकों के टिकट नहीं कटेंगे। ऐसे में पहली लड़ाई कहीं न कहीं खत्म हो गयी है, लेकिन दूसरी लड़ाई अब बाकी बची सीटों को लेकर है।
    कांग्रेस जिन सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रही, वही सीटें मिलने की स्थिति में पार्टी 19 सीटों पर ही सिमट जायेगी। लेकिन कांग्रेस बड़ी लड़ाई की तैयारी में जुट गयी है। इसी का नतीजा है कि कांग्रेस नेता राजेश ठाकुर ने 30 सीटों पर दावेदारी कर दी है। वहीं झाविमो, राजद, राजद लोकतांत्रिक, वाम दलों की भी अलग महत्वाकांक्षा है। ऐसे में पेंच फंसता ही जा रहा है। इधर, विश्रामपुर से कांग्रेस उम्मीदवार दूसरे नंबर पर भी नहीं रहे थे, लेकिन यहां से कई बार विधायक रहे ददई दुबे अपने पुत्र के लिए दावेदारी कर रहे हैं और कांग्रेस यह सीट छोड़ने नहीं जा रही है। इसी प्रकार घाटशिला, हटिया जैसी सीटों पर कांग्रेस का दावा है। इन सीटों पर भी कांग्रेस उम्मीदवार दूसरे नंबर पर पहुंच नहीं सके थे, लेकिन इतिहास कांग्रेस के पक्ष में जा रहा है। कांग्रेसी अभी से कोलेबिरा का उदाहरण दे रहे हैं, जहां दूसरे नंबर पर भी नहीं रहने के बावजूद उपचुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज कर ली।
    2009, 2014 और 2019 के आंकड़े तय करेंगे उम्मीदवार
    कांग्रेस नेताओं के अनुसार महज पिछला चुनाव नहीं, बल्कि पिछले दो चुनावों के आधार पर उम्मीदवार तय होने चाहिए। इतना ही नहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में विधानसभा वार प्रदर्शन को भी आधार माना जाये। महागठबंधन के नेताओं की बैठक में भले ही कांग्रेस विधायक दल के नेता पहुंचे हों, लेकिन अभी निर्णय लेने वाला कोई है ही नहीं। कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व ऐसे मामलों में निर्णय लेता है और अभी तक कोई अध्यक्ष नहीं बना है। इसके बाद प्रदेश प्रभारी भी इस मामले में सक्रिय नहीं हैं। ऐसे में इस महीने के अंत तक कोई निर्णय हो जाये, यह कहना मुश्किल ही है।
    कांग्रेस-झामुमो के बीच कई सीटों पर पेंच
    महागठबंधन में फिलहाल सीटिंग सीट का फॉर्मूला तय हुआ है। 32 सीटों पर समझौता का खाका तैयार है। कांग्रेस-झामुमो के बीच करीब 10 सीटों पर मामला फंस सकता है। कांग्रेस की कई सीटिंग सीटों पर झामुमो के दावेदार ताल ठोंक रहे हैं। वहीं झामुमो की सीट पर कांग्रेस के आला नेताओं की नजर है। पाकुड़ से कांग्रेस विधायक दल के नेता आलमगीर आलम हैं। वहीं इस सीट पर झामुमो के मजबूत दावेदार पूर्व विधायक अकील अख्तर दावा ठोक रहे हैं। वहीं मधुपुर सीट पर झामुमो की दावेदारी है, जबकि इस सीट से कांग्रेस नेता फुरकान अंसारी भी ताल ठोकने का मन बना रहे हैं। गांडेय विधानसभा सीट पर कांग्रेस के डॉ सरफराज अहमद की दावेदारी है, लेकिन इस सीट पर झामुमो की पकड़ रही है। इधर, विश्रामपुर में कांग्रेस नेता ददई दुबे के बेटे अजय दुबे तीसरे स्थान पर रहे थे। वे कांग्रेस के प्रबल दावेदार हैं। जबकि इस सीट से अंजू सिंह दूसरे स्थान पर रही थीं। वह झामुमो में शामिल हो गयी हैं। ऐसे में इस सीट पर झामुमो दावा कर सकता है।
    पांकी का मामला भी सुलझाना होगा
    पांकी से कांग्रेस के बिट्टू सिंह विधायक हैं। कांग्रेस से उनकी दूरी बढ़ी है। वहीं, इस सीट पर झामुमो बेहतर प्रदर्शन करता रहा है। बिट्टू ने इधर-उधर किया, तो झामुमो दावा कर सकता है। कांग्रेस के लिए सिसई की सीट प्रतिष्ठा से जुड़ी है। इस सीट से पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव चुनाव लड़ती रही हैं। कांग्रेस हर हाल में इस सीट पर अड़ेगी, वहीं सिसई में झामुमो के झींगा मुंडा दूसरे स्थान पर रहे हैं। घाटशिला विधानसभा सीट पर कांग्रेस के आला नेता प्रदीप बलमुचू की नजर है। यह सीट कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है़, लेकिन इस सीट से झामुमो के रामदास सोरेन, श्री बलमुचू को शिकस्त दे चुके हैं। फिलहाल यह सीट भाजपा के कब्जे में है। लक्ष्मण टुडू यहां से विधायक है़ं, लेकिन यूपीए महागठबंधन में इस सीट पर तकरार तय माना जा रहा है। यूपीए को इस राजनीतिक पेंच से बाहर निकलना होगा। वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में गठबंधन में ऐसी गुत्थियों को सुलझा कर ही रास्ता साफ करना होगा। गठबंधन के घटक दलों के दबाव से बाहर निकलना होगा। कांग्रेस, झामुमो, झाविमो, राजद और राजद लोकतांत्रिक सभी अपनी-अपनी सीटों के लिए अड़ेंगे।
    कहां झामुमो-कांग्रेस में तकरार
    पाकुड़, मधुपुर, गांडेय, विश्रामपुर, पांकी, सिसई, घाटशिला।
    शिबू सोरेन का हारना, झारखंड की राजनीति का टर्निंग प्वाइंट
    इस बार लोकसभा चुनाव में झारखंड की राजनीति में वह हुआ है, जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल था। तीन बार सीएम और आठ बार सांसद रह चुके शिबू सोरेन चुनाव हार गये। शिबू सोरेन को झारखंड की राजनीति में भीष्म पितामह कहा जाता है। देश के सबसे बड़े आदिवासी नेता शिबू सोरेन का अपने ही किले दुमका में हार जाना झारखंड की बदलती सियासत का बड़ा संकेत माना जा रहा है। आज झामुमो के हर कार्यकर्ता और वोटर के मन में सवाल है कि जब दुमका से शिबू सोरेन हार गये तो कौन सेफ है। झामुमो कार्यकर्ताओं का मानना है कि झामुमो का वोट तो दूसरे दल को मिला, लेकिन दूसरे दल का वोट झामुमो को ट्रांसफर नहीं हुआ। चुनाव में 50 फीसदी वोट के साथ बीजेपी नंबर वन पर रही। कांग्रेस को चाईबासा की एक सीट मिली और उसे 15 फीसदी वोट मिले। 2014 विधानसभा चुनाव में झामुमो ने 20 फीसदी वोटों के साथ 19 सीटें जीती थीं और राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी थी। इस बार महागठबंधन और खासकर झामुमो कहां तक पार लगती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
    करारी हार के बाद टूटा मनोबल
    लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए झारखंड में विपक्षी दलों को एकजुट कर बना महागठबंधन मिली करारी हार के बाद खंड-खंड होकर बिखरता नजर आ रहा है। इसी वर्ष झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं, मगर महागठबंधन में शामिल दल अपने-अपने राग अलाप रहे हैं। चुनाव के दौरान ही चतरा संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस और राजद के दोस्ताना संघर्ष से महागठबंधन की दीवार दरकने लगी थी। इसके बाद तो भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद महागठबंधन के नेता एक-दूसरे पर ही हार का ठिकरा फोड़ते रहे हैं।
    बहरहाल, झारखंड में लोकसभा चुनाव की हार से अभी महागठबंधन बाहर भी नहीं निकल पाया कि उसके अंदर विवाद की जमीन तैयार होने लगी है। ऐसे में तय है कि विधानसभा चुनाव में विपक्षी दलों को एकजुट करना किसी भी दल के लिए आसान नहीं है। फिर एक बार अगर विपक्षी एका नहीं बनी, तो भाजपा को वाकओवर देने वाली स्थिति होगी। इस साल के अंत में झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में महागठबंधन में शामिल दलों के लिए अपनी साख और वजूद बचा पाना बड़ी चुनौती होगी।

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