बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार ने पिछले महीने की 23 तारीख को, जब लोकसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे, कहा था कि बिहार ने परिवारवाद और जंगल राज के खिलाफ जनादेश दिया है। नीतीश का चेहरा खुशी से खिल रहा था, क्योंकि उनकी पार्टी ने जबरदस्त सफलता हासिल की थी और राज्य की 16 सीटों पर कब्जा जमाया था। जदयू ने यह चुनाव एनडीए के बैनर तले लड़ा और भाजपा ने इसके लिए 17 सीटें छोड़ी थीं। एनडीए को राज्य में अप्रत्याशित सफलता हासिल हुई थी। भाजपा ने 17 और लोजपा ने छह सीटों पर कब्जा जमा लिया। लेकिन इस प्रचंड जीत पर खुशियां मनाने के लिए नीतीश कुमार को अधिक वक्त नहीं मिला। कहा जाता है कि भारत में कोई ऐसा राज्य नहीं, जहां इतनी तेजी से राजनीतिक बदलाव होता है। इस मामले में बिहार अव्वल है। मोदी सरकार के शपथ ग्रहण में शामिल होने के लिए नीतीश दिल्ली गये। वहां उनकी मुलाकात भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से हुई। नीतीश को कहा गया कि मोदी कैबिनेट में उन्हें एक सीट दी जायेगी। वह चाहें तो इसे स्वीकार करें या फिर अस्वीकार कर दें। नीतीश को अपमान का घूंट पीकर रह जाना पड़ा।
उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा की ओर से कम से कम एक बार इस पर बातचीत का प्रस्ताव तो मिलेगा ही, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अमित शाह ने नीतीश को दो टूक कह दिया कि इस पर कोई बातचीत नहीं हो सकती। सुशासन बाबू हताश और निराश होकर पटना लौट आये और कह दिया कि उनकी पार्टी मोदी सरकार में शामिल नहीं होगी।
जाल में फंस चुके हैं नीतीश
बिहार विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक रैली में कहा था कि देश में बिहारी सबसे तेज-तर्रार होते हैं। अब, जबकि अगले साल बिहार विधानसभा का चुनाव होना है, मोदी-शाह की जोड़ी ने बिहार की तेजी को पूरी तरह नियंत्रण में कर लिया है। लोकसभा के 2014 के चुनाव में भाजपा से तालमेल के बिना नीतीश कुमार की पार्टी दो सीटें ही जीत सकी थी। इस बार भाजपा से तालमेल कर वह 16 सीटों पर जीत सकी। नीतीश को समझ लेना चाहिए था कि यह जीत उनके लिए बड़ी राजनीतिक कीमत मांगेगी।
रिश्ता खत्म करना आसान नहीं
अब राजनीतिक हलकों में यह चर्चा आम है कि विधानसभा चुनाव में भी भाजपा लोकसभा चुनाव के दौरान तय फार्मूला ही अपनायेगी। यानी वह जदयू से कम सीटों पर लड़ना मंजूर नहीं करेगी। यदि नीतीश इसे मंजूर नहीं करते, तो भाजपा से उनका रिश्ता खत्म हो जायेगा। भाजपा को इसकी फिक्र नहीं है। वह जानती है कि नीतीश के पास एनडीए के खेमे में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि राजद-कांग्रेस के महागठबंधन में उनकी वापसी उनके लिए मक्खी निगलने जैसी है।
राजद के साथ जाना राजनीतिक आत्महत्या
भाजपा का यह आकलन काफी हद तक सही भी है। विधानसभा के अगले चुनाव में नीतीश कुमार के सामने यह सवाल जरूर खड़ा होगा कि उन्होंने महागठबंधन क्यों तोड़ा। अपने उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप के कारण नीतीश महागठबंधन से अलग हो गये थे, लेकिन अब वह उसी तेजस्वी के पास कैसे लौटेंगे, यह सोचनेवाली बात है। हालांकि राजद का एक खेमा नीतीश की वापसी की वकालत कर रहा है। रघुवंश प्रसाद सिंह के नेतृत्व वाले इस खेमे का तर्क है कि इस वापसी में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि यदि नीतीश की वापसी मंजूर भी हो जाती है, तो वह अगली बार तेजस्वी को कैसे उप मुख्यमंत्री बनायेंगे और तेजस्वी भी इसे कैसे स्वीकार करेंगे। उस स्थिति में जनता की तीखी प्रतिक्रिया का अनुमान भी आसानी से लगाया जा सकता है।
नीतीश को पहले ही तेजस्वी ने ‘पलटू चाचा’ की उपाधि दे दी है और नीतीश उसी तेजस्वी के लिए एक बार फिर ‘पलटी’ मारेंगे, यह सोच पाना भी मुश्किल है। एक सवाल यह भी उठता है कि तेजस्वी उन्हें क्यों स्वीकार करेंगे। वह तो आज भी राहुल गांधी के साथ को तरजीह दे रहे हैं। इसके अलावा जनता की नजर में भी राजद-जदयू तालमेल ठीक नहीं होगा। लोग इन दोनों पर हंसेंगे और अंतत: वोट भाजपा को देंगे।
रूठने का कोई प्रभाव नहीं
नीतीश के सामने तीसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि केंद्र में मोदी की मजबूत सरकार है। यदि नीतीश उसे चुनौती देने की हिम्मत जुटाते हैं, तो यह उनके लिए आत्मघाती होगा। उन्हें यह हकीकत पता है कि भाजपा अधिक ताकतवर है। भाजपा नीतीश को सीएम के रूप में पेश कर चुनाव तो लड़ना चाहेगी, लेकिन उसकी कोशिश यही होगी कि वह रामविलास पासवान के साथ मिल कर इतनी सीटें जीत ले ंकि नीतीश की बांह मरोड़ी जा सके। इसलिए नीतीश मान चुके हैं कि भाजपा का ताकतवर होने का मतलब खतरा बढ़ना है। इन सब कारणों से वह रूठे हुए दिखायी दे रहे हैं। शपथ ग्रहण के अलावा योग दिवस से भी वह मोदी से दूर ही रहे। इतना ही नहीं, धारा 370 पर उन्होंने अपनी राय जाहिर की और कैबिनेट विस्तार में भाजपा को शामिल भी नहीं किया। वह बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का मुद्दा उठा रहे हैं, जिसे लोग भूल चुके हैं। नीतीश ने अपने उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर को भाजपा के खिलाफ काम करने की इजाजत भी दे दी और पीके ममता बनर्जी के पास चले गये।
एकला चलो से नुकसान
नीतीश के बिहार विधानसभा का चुनाव अकेले लड़ने की संभावना बिल्कुल भी नहीं है। वह जानते हैं कि बिहार में उनकी जाति की आबादी उतनी नहीं है कि उन्हें बहुमत के आंकड़े तक पहुंचा सके। पार्टी का संगठन भी एकदम लचर है। इसके अलावा वह जानते हैं कि यदि वह अकेले लड़े, तो विपक्ष का वोट बंटेगा और इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। हो सकता है कि उस स्थिति में बिहार में पहली बार भाजपा की सरकार बन जाये।
धुंधली पड़ी साफ-सुथरी छवि
नीतीश की सबसे बड़ी संपत्ति उनकी अपनी बेदाग छवि है, लेकिन ‘चमकी’ ने उनकी छवि की चमक को धुंधला कर दिया है। कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति भी नीतीश के लिए नकारात्मक माहौल पैदा कर रही है। नीतीश यह भी जानते हैं कि बिहार के युवा मतदाताओं को लालू के कुख्यात जंगल राज की जानकारी नहीं है। इसलिए वे दोनों की तुलना नहीं कर सकते। बिहार के सुशासन की कहानियां अब बासी पड़ती जा रही हैं। इसलिए युवा वोटर आसानी से बदलाव के पक्ष में आ जायेंगे।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि विधानसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा नीतीश के अनुकूल नहीं हुआ, तो वह एनडीए से अलग हो सकते हैं। कहा जाता है कि मारे जाने से बेहतर आत्महत्या है। नीतीश के साथ दोनों ही मामलों में परिणाम तो एक ही होना है।

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