मध्यप्रदेश में तख्ता पलटे जाने के बाद सतर्क देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने राजस्थान की सत्ता तो किसी तरह बचा ली है, लेकिन उसकी अंदरूनी हालत ठीक नहीं है। खास कर झारखंड में इसके अंदरखाने में जो हालात पैदा हो गये हैं, उससे राजनीतिक हलकों में यह आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि यदि इस पर तत्काल रोक नहीं लगायी गयी, तो यह बड़ा होकर फूट भी सकता है। पहली बार झारखंड में पूर्ण बहुमत की गैर-भाजपा सरकार की सहयोगी होने के नाते झारखंड की राजनीतिक स्थिरता बनाये रखने में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका है। विधानसभा के चुनाव में ऐतिहासिक कामयाबी पाने के बाद कांग्रेस के भीतर जिस आत्मविश्वास और उत्साह का संचार हुआ था, सात महीने बाद उसमें बहुत कमी आयी है और यह बात साफ तौर पर देखी जा रही है। सरकार में चार मंत्री होने के बावजूद पार्टी के बाकी दर्जन भर विधायक पूरी तरह सहज नहीं हैं और वे अपने इलाकों तक ही सीमित होकर रह गये हैं। सांगठनिक रूप से भी झारखंड कांग्रेस कई धड़ों में विभाजित नजर आ रही है, जहां आपसी तालमेल और समन्वय का नितांत अभाव दिखता है। प्रदेश कांग्रेस की यह हालत झारखंड के राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। खास कर राजस्थान के घटनाक्रम के बाद तो इसे और भी खतरनाक माना जा सकता है। झारखंड कांग्रेस के अंदरखाने की बदलती स्थिति और प्रदेश की राजनीति पर पड़नेवाले इसके संभावित असर को टटोलती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
सात महीने पहले दिसंबर में विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने झारखंड में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 16 सीटों पर जीत हासिल की थी, तब कहा जाने लगा था कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अपने सुनहरे दिन की ओर लौट रही है। उससे छह महीने पहले जब लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर दो अंकों पर सिमट गयी थी और झारखंड की 14 में से महज एक सीट जीत पायी थी, तब किसी ने विधानसभा चुनाव में इतने शानदार प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की थी। 31 सीटों पर चुनाव लड़ कर 16 सीटें जीत कर कांग्रेस ने न केवल गठबंधन के दूसरे सबसे बड़े सहयोगी का स्थान बरकरार रखा, बल्कि सरकार में लगभग बराबर की साझीदार भी बनी। पार्टी के चार विधायकों को मंत्री बनाया गया और जोर-शोर से नयी सरकार ने काम शुरू किया। शुरुआत में पार्टी के विधायकों में भी काम के प्रति जबरदस्त उत्साह था, लेकिन समय बीतने के साथ ही यह उत्साह ठंडा पड़ता दिखाई देने लगा है।
झारखंड कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि यह सही है कि पार्टी की अंदरूनी स्थिति ठीक नहीं है। जिन नेताओं और कार्यकर्ताओं ने विधानसभा चुनाव में अपना सब कुछ झोंक दिया और पार्टी की जीत के लिए दिन-रात एक कर दिया, अब उनकी ही अनदेखी से स्थिति विस्फोटक मोड़ पर पहुंचती जा रही है। यहां तक कि पार्टी के विधायकों को भी समझ में नहीं आ रही है कि वे क्या करें और किधर जायें। इस नेता की बात बहुत हद तक सही भी है। झारखंड कांग्रेस आज भीतर से कई धड़ों में बंटी हुई नजर आती है। हरेक धड़ा बिना किसी तालमेल या समन्वय के अपना काम कर रहा है। इसका खामियाजा उन विधायकों को भुगतना पड़ रहा है, जो आज भी केवल पार्टी को ही देखते हैं। झारखंड कांग्रेस में एक प्रदेश अध्यक्ष और चार कार्यकारी अध्यक्ष हैं, लेकिन हकीकत यही है कि किसी के पास कोई काम नहीं है। इसलिए संगठन का काम पूरी तरह रुका पड़ा है।
ऐसे में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का यह कहना कि झारखंड में भी मध्यप्रदेश और राजस्थान की कहानी दोहराने की कोशिश हो रही है, राजनीतिक हलकों में एक बवंडर जरूर पैदा करता है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में डॉ रामेश्वर उरांव की सांगठनिक क्षमता और राजनीतिक कौशल पर कतई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, लेकिन वित्त मंत्री रहते हुए अपना पूरा ध्यान संगठन पर लगा पाना उनके लिए वाकई मुश्किल भरा है। इसके बावजूद उन्होंने अब तक पार्टी को कम से कम धरातल पर ही सही, एकजुट रखने में सफलता हासिल की है, जो प्रशंसनीय है। लेकिन इस तरह के जुगाड़ वाली व्यवस्था से पार्टी नहीं चल सकती। कांग्रेस के कम से कम आधा दर्जन ऐसे विधायक हैं, जो सार्वजनिक तौर पर तो कुछ नहीं कहते, लेकिन निजी बातचीत में उनकी पीड़ा साफ सुनाई देती है। इन विधायकों की तकलीफ यह है कि उनकी बातों को सुननेवाला कोई नहीं है। ये विधायक कहते हैं कि वे किसी धड़े में नहीं हैं। इसलिए उनकी लगातार उपेक्षा हो रही है।
आलाकमान की ओर से कहा जाता है कि वे अपनी बात प्रदेश इकाई के माध्यम से बतायें और यहां उनसे कोई बातचीत ही नहीं होती। ऐसे में ये विधायक अपने इलाके तक सिमट कर रह गये हैं। विधायकों की शिकायत यह भी है कि झारखंड के बारे में कोई भी फैसला बिना उनके मशविरे के ले लिया जाता है, जिससे उनकी स्थिति कमजोर होती है और उन्हें अपनी ऊर्जा आलाकमान के फैसले का औचित्य सिद्ध करने में ही खर्च करनी पड़ती है।
जाहिर है, कांग्रेस के भीतर की यह स्थिति झारखंड के राजनीतिक भविष्य के लिए भी खतरनाक है, क्योंकि यह पार्टी सरकार में साझीदार है और इसके भीतर का असंतोष का असर सरकार की सेहत पर भी पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में झारखंड कांग्रेस को एक ऐसे ओवरहॉलिंग की जरूरत है, जो इसे पिछले साल के अक्टूबर-नवंबर की स्थिति में पहुंचा सके, जिसमें पार्टी का हरेक नेता और कार्यकर्ता एकजुट होकर चुनाव जीतने के संकल्प के साथ मैदान में था। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 13.88 प्रतिशत मत मिले थे, जो 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले करीब सवा तीन प्रतिशत अधिक थे। इस शानदार वोट शेयर को बरकरार रखने के लिए पार्टी को अभी से ही काम में जुटना होगा।
कांग्रेस आलाकमान जितनी जल्दी यह बात समझ ले, स्थिति उतनी ही अनुकूल होगी, अन्यथा झारखंड में भी किसी अनहोनी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। वैसे भी झारखंड की पांचवीं विधानसभा में पार्टी के कई ऐसे विधायक हैं, जो पहली बार विधायक बने हैं। उनके भीतर काम करने का जज्बा है और पार्टी को उन्हें आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव कदम उठाना चाहिए।