गुरुवार नौ जुलाई को दुनिया की नाभि कहे जानेवाले उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में जैसे ही एक व्यक्ति ने चिल्ला कर कहा, मैं हूं विकास दुबे, कानपुर वाला, आजाद भारत के इतिहास के संभवत: सबसे दुर्नाम अपराधी को दबोचने की एक सप्ताह से चल रही कवायद थम गयी। विकास दुबे पिछले एक सप्ताह से उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ आंख-मिचौली खेल रहा था और सात राज्यों में उसकी तलाश में 10 हजार से अधिक पुलिसवाले लगे थे। इसके बावजूद अपनी गिरफ्तारी का वक्त और जगह उसने खुद तय की। आखिर कौन है विकास दुबे और क्या है उसका आपराधिक इतिहास। उसे कहां से इतनी ताकत मिलती थी। आखिर एक गांव का लड़का इतना निर्मम कैसे हो गया कि किसी की हत्या करना उसके लिए बायें हाथ का खेल बन गया। ये कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब जानना जरूरी है। विकास दुबे दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में राजनीति और अपराध के गठजोड़ का वह काला अध्याय है, जिसे समझते तो सभी हैं, लेकिन स्वीकार नहीं करते। हर पार्टी और नेता चुनावी राजनीति में इस तरह के अपराधियों की मदद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जरूर लेता है। विकास दुबे की कहानी के इसी पहलू को उजागर करती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
‘अपराध का राजनीतिकरण’ और ‘राजनीति का अपराधीकरण’ ये दो विषय ऐसे हैं, जिन पर पिछले कुछ वर्षों में न जाने कितनी बहसें हुईं, लेख लिखे गये, किताबें लिखी गयीं और परीक्षाओं में निबंध पूछे गये। इन सब जगहों पर अपराध और राजनीति के गठजोड़ के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल की गयी और सामाजिक-राष्ट्रीय संदर्भों में इसकी जमकर आलोचना हुई, लेकिन इस गठजोड़ की जितनी आलोचना हुई, यह उतना ही मजबूत होता गया। यही कारण है कि नौ जुलाई को द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर परिसर में एक व्यक्ति चिल्ला कर कहता है, मैं विकास दुबे हूं, कानपुर वाला, तो देश भर में इसकी गूंज सुनाई देती है। कानपुर के बिकरू गांव में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या करनेवाले विकास दुबे का पुलिस की करीब सौ टीमों के सक्रिय होने के बावजूद अपनी मर्जी से घूमते हुए कई राज्यों से होकर उज्जैन पहुंच जाना इस मजबूती को न सिर्फ उजागर करता है, बल्कि पुष्ट भी करता है।
कुल 71 आपराधिक घटनाओं को अंजाम देनेवाला विकास दुबे आखिर कैसे इतना ताकतवर बना, यह बड़ा सवाल है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि विकास के रिश्ते लगभग सभी राजनीतिक दलों से रहे, भले ही वह सक्रिय रूप से किसी पार्टी का सदस्य न हो। विकास दुबे की पत्नी 10 साल तक जिला पंचायत की सदस्य रही। विकास दुबे का सभी पार्टियों के नेताओं से अच्छा संबंध है और वह सभी के साथ सार्वजनिक मंचों पर अक्सर दिखता रहा है। विकास दुबे ने 2015 में नगर पंचायत चुनाव भी जीता। स्थानीय नेता उसको संरक्षण भी देते रहे। विकास दुबे की के घर होने वाली पार्टी में स्थानीय नेता से लेकर बड़े-बड़े सेलेब्रिटी तक पहुंचते थे। स्थानीय अधिकारी, वकील और अन्य प्रतिष्ठित लोग भी विकास की महफिल में शिरकत करते थे। इन्हीं के दम पर विकास दुबे का रौब और बन गया था। दरअसल न सिर्फ विकास दुबे, बल्कि इस तरह के न जाने कितने माफिया और अपराधी हैं, जो राजनीतिक दलों से संबंध रखते हुए अपराध के माध्यम से आर्थिक समृद्धि हासिल करते रहे हैं और इससे राजनीतिक दलों को भी लाभ पहुंचाते रहे हैं।
तीन दशक पहले पिता के अपमान का बदला लेने के लिए उसने कई लोगों की पिटाई की थी। इसके बाद उसने स्थानीय युवकों को लेकर एक गिरोह बनाया, जिसका नाम बुलेट गैंग था। विकास दुबे ने 28 साल पहले 1992 में अपने संपत्ति विवाद में गांव के एक दलित युवक की हत्या कर अपराध की दुनिया में पहला कदम रखा था। 50 साल के विकास पर पांच हत्याओं के केस दर्ज हुए। गंभीर धाराओं के कुल 71 केस उस पर दर्ज हैं। उसने वर्ष 2000 में कानपुर देहात के ताराचंद इंटर कॉलेज, शिवली के प्रिंसिपल सिद्धेश्वर पांडेय की हत्या की, क्योंकि वह 40 बीघा जमीन पर कब्जा करना चाहता था। अगले ही साल विकास ने दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री और भाजपा नेता संतोष शुक्ला को शिवली थाने के भीतर घुसकर गोली मारकर मौत के घाट उतारा। इस घटना के बाद विकास की दहशत कायम हो गयी। फिर विकास ने 2002 और 2004 में भी हत्या की वारदातों को अंजाम दिया। हत्या के प्रयास, दंगा, लूट, डकैती, जालसाजी जैसे मामलों का वह आरोपी है। अपना दबदबा बनाये रखने के लिए उसने अपने चचेरे भाई की हत्या कर दी।
विकास दुबे भेष बदलने में माहिर है। फिरौती, संपत्ति का सौदा, वसूली और कई अन्य गैरकानूनी तरीकों से पैसे कमाने वाले विकास दुबे को लगभग हर फैक्ट्री से चढ़ावा भेजा जाता था। बड़ी फैक्ट्रियों से उसे सालाना चंदा मिलता था। विकास की कमाई का दूसरा बड़ा जरिया विवादास्पद संपत्ति को खरीदना था। विकास के पैतृक गांव और आसपास के इलाके में उसकी हुकूमत चलती थी। चौबेपुर थाने की पुलिस उसकी गुलाम थी और किसी भी केस में पुलिस गांव नहीं आयी। विकास इतना बेरहम है कि मामूली सी बात पर ही वह बच्चों से लेकर बुजुर्गों को बेरहमी से पीटता था। हाथ-पैर तोड़ना उसके लिए मामूली बात थी। कुछ महीने पहले गांव के रामबाबू यादव की जमीन उसने जबरदस्ती नीलाम करवा दी थी। विकास मोबाइल का इस्तेमाल नहीं करता है। वह भेष बदलने में भी माहिर है।
बिकरू गांव और आसपास के लोगों के लिए विकास का नाम खौफ पैदा करता था। बिना उसकी इजाजत के कोई पानी भी नहीं पी सकता था। उसका नाम लेने भर से बसों में किराया नहीं लिया जाता था। माल लदे ट्रकों में लूटने जैसा काम विकास के लिए बेहद आसान चीज थी। नेताओं के संरक्षण में लूट का माल मसलन आलू और तेल के टिन बिकरू गांव में बंटते थे। यही वजह थी कि आज तक बिकरू गांव का कोई भी व्यक्ति विकास का विरोधी नहीं हुआ। वे विकास के लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार रहते थे। ग्रामीण बताते हैं कि 1992 में गांव में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। विकास ने यहां खूब कहर बरपाया था। कई लोग अपनी याददाश्त खो बैठे। कई सदमे में चल बसे। कुछ ऐसे बुजुर्ग अब भी गांव में मौजूद हैं। राजनीतिक संरक्षण के चलते उसका बाल भी बांका नहीं हुआ। विकास को सुर्खियों में बने रहने का शौक था। उसके अपराधों का चिट्ठा जब अखबारों की सुर्खियां बनती थीं, तो उसे पढ़कर वह खुश होता था। अखबारों में छपी खबरों को खुद पढ़कर वह अपने साथियों को सुनाता था। उसके घर से फाइल मिली है, जिसमें अखबारों की अनेक कतरनें थीं। अब इस दुर्नाम अपराधी का खेल खत्म हो गया है। वैसे भी उम्र के 50वें पड़ाव पर पहुंच कर विकास को भी इसकी जरूरत जरूर महसूस हो रही होगी।