वैश्विक महामारी कोरोना के कारण जारी लॉकडाउन के चार महीने पूरे होने को हैं। कोरोना वायरस का संक्रमण तो झारखंड में फैल ही रहा है, अब इसका साइड इफेक्ट भी सामने आने लगा है। लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां लगभग बंद हैं। जो थोड़ी-बहुत गतिविधियां चल रही हैं, वे भी मंदी की मार से कराह रही हैं। मॉल और बड़ी दुकानों के बंद रहने से जहां अर्थव्यवस्था को करारा झटका लगा है, वहीं अब बेरोजगारी का दंश भी झारखंड पर प्रहार करने के लिए तैयार हो गया है। झारखंड में हाल के दिनों में बड़ी कंपनियों के शोरूम बंद हो गये हैं या उन्हें बंद करने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। इसका सीधा असर उन लोगों पर पड़ा है, जो इनमें काम करते थे। बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार होने लगे हैं। यह बेहद भयानक स्थिति है और इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ रहा है। झारखंड को इस विकट परिस्थिति से निकालना बड़ी चुनौती है। बाहर से लौटनेवाले कामगारों के साथ इन कामगारों को काम देने की इस चुनौती से निपटने के लिए एक ठोस रणनीति बनाने की जरूरत है। झारखंड के सामने मौजूद इस बड़ी चुनौती का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
वैश्विक महामारी कोरोना ने झारखंड को बुरी तरह से जकड़ लिया है। स्वास्थ्य के साथ-साथ इसने जीवन के दूसरे क्षेत्रों को भी तबाही की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। लोग इस बीमारी से संक्रमित तो हो ही रहे हैं, अर्थव्यवस्था को भी इसने करारी चोट पहुंचायी है। इससे सामाजिक समस्याएं भी पैदा हो रही हैं, जिसका सीधा असर विधि-व्यवस्था पर भी पड़ रहा है। इसे कोरोना और लॉकडाउन का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। इस साइड इफेक्ट ने अब अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। कोरोना के कारण करीब चार महीने से जारी लॉकडाउन का सबसे घातक असर व्यवसाय जगत पर पड़ा है। छोटी दुकानों के साथ अब बड़ी कंपनियां भी बोरिया-बिस्तर समेटने लगी हैं। झारखंड की बात करें, तो पिछले एक महीने में कम से कम दर्जन भर बड़ी कंपनियों के शोरूम या तो हमेशा के लिए बंद कर दिये गये या फिर उन्हें बंद करने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। इन शोरूम के बंद होने से इनमें काम करनेवाले करीब 20 से 25 हजार लोग बेरोजगार होकर सड़क पर आ गये हैं। यह हालत तब है, जब सरकार ने कुछ बड़ी दुकानों को खोलने की अनुमति दी है, लेकिन उनकी बिक्री इतनी कम हो गयी है कि वे इसे खोलने के लिए तैयार नहीं हैं। इन बड़ी कंपनियों ने बड़े मॉल और शॉपिंग कांप्लेक्स में किराये पर दुकानें ली थीं। इनका किराया ही डेढ़ से दो लाख रुपये था। इसके अलावा बिजली, साफ-सफाई और दूसरे जरूरी खर्च के साथ कर्मचारियों के वेतन पर अच्छी-खासी रकम खर्च होती थी। इसके बाद होटल और रेस्टोरेंट का नंबर आता है, जिनका कारोबार महज 10 से 20 प्रतिशत रह गया है। ऐसे में इन्हें चलाना बेहद मुश्किल हो रहा है। इसका असर राज्य की अर्थव्यवस्था पर सीधे पड़ा है। राज्य सरकार को इन मॉल, होटल और रेस्टोरेंट से हर महीने 12 से 15 करोड़ तक जीएसटी के रूप में मिलते थे। इसके अलावा बिजली और दूसरे मदों में भी अच्छी-खासी रकम खर्च होती थी। इन कारोबारों के बंद होने से यह आयी भी बंद हो गयी है। बेरोजगारों की फौज सामने आ खड़ी हुई है, सो अलग।
वैसे झारखंड अकेला राज्य नहीं है, जहां कोरोना के कारण लॉकडाउन चल रहा है। कई दूसरे राज्यों में भी लॉकडाउन की वापसी हो गयी है। पूरे भारत की बात करें, तो तस्वीर और भी भयावह नजर आती है। इनवेस्टमेंट इनफॉरमेशन एंड क्रेडिट रेटिंग एजेंसी आॅफ इंडिया ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इस साल साढ़े नौ प्रतिशत गिरावट का अनुमान लगाया है। यह अनुमान उस दावे को भी कठघरे में खड़ा करता है, जिसमें कहा गया था कि देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है। एजेंसी ने झारखंड के सकल घरेलू उत्पाद में 10 प्रतिशत तक की गिरावट की भविष्यवाणी जतायी है, जो आर्थिक बदहाली का स्पष्ट संकेत है। झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हालत बहुत अच्छी नहीं रहनेवाली है। हालांकि अच्छे मानसून के कारण पैदावार बढ़ने की उम्मीद की गयी है, लेकिन गांवों पर बोझ भी बहुत अधिक बढ़ गया है। इस हकीकत को भी नकारा नहीं जा सकता। इसे लेकर भी इसी तरह की बात कहीं जा रही है। इससे किसानों पर और बुरा प्रभाव पड़ने की बातें कहीं जा रही हैं।
जानकार मानते हैं कि राज्य सरकारों को और ज्यादा प्रोत्साहन राशि देने की जरूरत है, ताकि गरीब, किसान और श्रमिकों के भीतर विश्वास पैदा हो सके। भारत सरकार ने इस दिशा में काफी काम किया है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। एक वैश्विक संस्था ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है। ‘लेबरिंग लाइव्स: हंगर, प्रीकरिटी एंड डिस्पेयर एमिड लॉकडाउन’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भयावह तस्वीर पेश की गयी है। गांव, गरीब और श्रमिकों के बीच तेजी से पसर रही बेरोजगारी और भूख का सवाल इसमें प्रमुख रूप से उठाया गया है। रिपोर्ट में कमजोर तबके के लोगों के दुख-दर्द को विस्तार से सामने लाया गया है। इससे बहुत से दावों की पोल तो खुलती ही है, संकट भरे भविष्य की ओर भी इसमें इशारा किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि किसी भी आपदा में कानून का इस्तेमाल बचाव, राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण योजना के लिए किया जाता है, ताकि आपदा के जोखिम, प्रभाव या प्रभावों को कम किया गया जा सके। लेकिन भारत में स्थिति इससे अलग है।
लॉकडाउन के बाद तो हालात और भी गंभीर हो रहे हैं। आजीविका का संकट गहराया है, लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद भी बेरोजगारी और भूख की समस्या गंभीर होनेवाली है। सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रम भी कारगर नहीं दिख रहे हैं। अब समय आ गया है कि स्थिति की गंभीरता को समझते हुए रणनीति में बदलाव किया जाना चाहिए।