बेगूसराय, लॉकडाउन होने के कारण परेशान होकर घर वापस लौटे कामगारों के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार ने विभिन्न तरह की योजनाएं शुरू की हैंं लेकिन सारी कवायद के बावजूद प्रवासियों के वापस परदेस जाने का सिलसिला काफी तेज हो गया है। प्रत्येक दिन बेगूसराय के कम से कम पांच सौ कामगार दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश का रुख कर रहे हैं।
लॉकडाउन में वापस घर लौटे प्रवासी मजदूरों के मालिकों ने अधिक मजदूरी देने का प्रलोभन देते हुए रोज-रोज फोन किया।खाते में मालिकों ने एडवांस में पैसा भेज दिया। वैशाली सुपरफास्ट एक्सप्रेस के स्लीपर एवं एसी का टिकट भेज दिया। अब यह सब फिर से आंखों में आंसू दिल में गम और काम नहीं मिलने का दर्द लिए परदेस की ओर चल पड़े हैं। ऐसे समय में जब विधानसभा चुनाव सामने हैंं और कभी भी चुनाव की घोषणा हो सकती है तो बड़ी संख्या में मजदूरों की परदेस वापसी कहीं ना कहीं राजनीतिक दलों के लिए परेशानी का सबब बन सकती है।
बुधवार को भी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, यूपी के विभिन्न हिस्सों में जाने के लिए बड़ी संख्या में कामगारों ने वैशाली एक्सप्रेस का सहारा लिया। स्टेशन पर यह लोग सुबह छह बजे से ही आने लगे थे, जहां थर्मल स्क्रीनिंग और पंजीकरण के बाद ट्रेन में सवार हुए। बुधवार को पत्नी और बच्चों के साथ दिल्ली जा रहे रमेश राय, संतोष राय, मंटू राय, शोभा देवी आदि ने बताया कि हम लोग दिल्ली विभिन्न फैक्ट्री में काम करते हैं। लॉकडाउन में जब दिल्ली की सरकार ने हम लोगों को भुला दिया तो घर आ गए थे, लेकिन यहां भी काम नहीं मिला। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री द्वारा विभिन्न योजनाओं की शुरुआत की गई है, लेकिन तमाम योजनाएं लूट का जरिया बन गई है। कम काम करवा कर अधिक की हाजिरी बनाई जा रही है, श्रमिकों के खाते में अधिक पैसा भेजकर निकलवा लिया जाता है। ऐसी हालत गांव में रहकर काम करने से क्या फायदा, यहां काम नहीं मिल रहा है तो भूखों मरने की हालत है।
इससे बेहतर है कि परदेस में काम करते हुए अपने श्रम को बेचकर भरपेट खाते हुए सपरिवार कोरोना से लड़ें। गांव में भूखा मरने से बेहतर है कि परदेस में कोरोना से लड़कर मर जाना। घर वापस आए थे, काम मिलता तो विधानसभा चुनाव में वोट देकर फिर बाहर जाने पर विचार करते लेकिन अब फिर से प्रवासी बिहारी कहलाने के लिए जा रहे हैं। तमाम राजनीतिक दलों ने बिहार को सिर्फ लूटा है, अपनों के लिए, अपने स्वार्थ के लिए हमेशा काम किया है। आजादी के सात दशक बाद भी आज तक किसी ने हम गरीबों के लिए नहीं सोचा।