विशेष
-कम से कम पांच राज्यों में पार्टी को देनी होगी बड़ी सियासी कुर्बानी
-दक्षिण को छोड़ अन्य राज्यों में कितनी दूर तक जा सकेगी कांग्रेस
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से दूर रखने के लिए उत्तरप्रदेश, पंजाब, दिल्ली, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में बड़ा दिल दिखाते हुए छोटे दलों के लिए बलिदान देने की जरूरत है। कांग्रेस अब तक दो बड़ी विपक्षी बैठकें आयोजित करने में कामयाब रही है, एक बिहार में और दूसरी कर्नाटक में। इन बैठकों का मुख्य आकर्षण संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का नाम बदलना रहा। कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में 421 सीटों पर लड़ी थी और 373 पर भाजपा से उसकी सीधी टक्कर थी। उसे महज 52 सीटें मिली थीं। वहीं भाजपा ने 2019 का चुनाव 435 सीटों पर लड़ा था, जबकि बाकी सीटों पर उसके गठबंधन के सहयोगियों ने चुनाव लड़ा था। इस बार कांग्रेस लोकसभा चुनावों में लगातार दो बड़ी हार झेलने के बाद भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए से मुकाबला करने के लिए 26 विपक्षी दलों को एक साथ लेकर आयी है। इनमें वे दल शामिल हैं, जिनका कुछ राज्यों में मजबूत आधार है, जबकि अन्य दलों के पास राज्य विधानसभाओं या संसद में कोई विधायक या सांसद नहीं है। ऐसे राज्यों में वोटों का बिखराव रोकने के लिए कांग्रेस को सियासी समझौता करना होगा। लेकिन हकीकत यह है कि विपक्षी एकता की सुनहरी तस्वीर पेश करने के बावजूद कांग्रेस के लिए आगे की राह बहुत आसान नहीं है, क्योंकि इसके लिए बहुत गंभीर बातचीत की आवश्यकता है, जिसमें उन राज्यों में बलिदान शामिल है, जहां क्षेत्रीय दल इसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। विपक्षी नेताओं का एक साथ तस्वीरें खिंचवाने का विकल्प तभी काम करेगा, जब पार्टियां बड़े दिल से बलिदान, समायोजन और सीट साझा करने के लिए तैयार होंगी, जिसके लिए बहुत नाजुक विचार-विमर्श की आवश्यकता होगी। कांग्रेस इसी मुद्दे को लेकर गंभीर असमंजस में है। कांग्रेस की इस असमंजस का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
विपक्षी दलों की बेंगलुरु में हुई बैठक की बाहर आयीं तस्वीरें कुछ ऐसी थीं, जिनकी सियासत में अब जबरदस्त मायने निकाले जा रहे हैं। सियासी जानकारों का कहना है कि विपक्षी दलों की एकता में डांवाडोल स्थिति अरविंद केजरीवाल की मांग पर कांग्रेस के समर्थन न किये जाने से बन रही थी। लेकिन बैठक में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और सोनिया गांधी के अगल-बगल में होने के साथ ममता बनर्जी की पड़ी हुई बगल की कुर्सी यह इशारा कर रही है कि अब सब कुछ ‘आॅल इज वेल’ हो गया है। लेकिन इस ‘आॅल इज वेल’ के फेर में पांच राज्यों में सबसे ज्यादा कांग्रेस के नेताओं को बड़ा सियासी बलिदान भी करना होगा, क्योंकि गठबंधन में कांग्रेस की सबसे बड़ी पार्टी है, जिसका देश के सभी राज्यों में विस्तार है। फिलहाल बेंगलुरु की बैठक के बाद अगली कुछ बैठक और होनी है, जिसमें चुनाव लड़ने के फॉर्मूले पर बड़ी चर्चा होगी।
ध्यान देनेवाली बात यह है कि बेंगलुरु में संपन्न बैठकों के एक-एक मिनट की योजना ऐसी बनायी गयी थी कि उसका सियासी संदेश जम कर निकले। शुरूआत डिनर और उससे पहले होनेवाली बैठक से हुई। इस बैठक में जो तस्वीर सामने आयी, उसमें राहुल गांधी और सोनिया गांधी के आसपास बैठे हुए नेताओं से गठबंधन की तस्वीर के साथ-साथ उसकी तासीर भी दिखी। सोनिया गांधी की दाहिनी ओर जहां ममता बनर्जी बैठी दिखीं, वहीं राहुल गांधी की बायीं ओर लालू यादव और दाहिनी ओर नीतीश कुमार दिखे। लालू यादव के बगल में अरविंद केजरीवाल, उनके बगल में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे नजर आये, जबकि अखिलेश यादव के बगल में एक ओर जयंत चौधरी, तो चौधरी के बगल में ही बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी बैठे दिखे। तेजस्वी के बगल में ही महबूबा मुफ्ती और उनके पास पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान बैठे दिखे। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यह उन राज्यों के नेताओं की वे तस्वीरें हैं, जहां पर उनका दावा सियासी गठबंधन में बड़ा माना जा रहा है।
ममता और केजरीवाल से मिला यह बड़ा संदेश
सियासी जानकारों का कहना है कि नेताओं के बैठने की जो व्यवस्था की गयी थी, उससे पता चलता है कि राहुल और सोनिया इस गठबंधन में सबसे महत्वपूर्ण क्यों हैं। बैठक के दौरान जिस तरह से राहुल गांधी के अगल-बगल में बिहार के दो बड़े नेता लालू यादव और नीतीश कुमार बैठे, वह बताता है कि सियासी गठबंधन में नीतीश और लालू की कितनी भूमिका होनेवाली है। इसी तरह पश्चिम बंगाल की नेता ममता बनर्जी की कुर्सी भी सोनिया गांधी के बिल्कुल दाहिनी ओर थी। सोनिया गांधी और ममता बनर्जी के अगल-बगल बैठने का संदेश स्पष्ट है कि गठबंधन में पड़ने वाली गांठों को सुलझा लिया गया है। इस बैठक में ही अरविंद केजरीवाल और सोनिया गांधी की भी तस्वीर सामने आयी। गठबंधन में सबसे बड़ा पेंच आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के आपसी समझौते को लेकर मच रहा था। जिस तरह कांग्रेस ने अध्यादेश मामले में आम आदमी पार्टी के समर्थन की बात कही है, उससे बहुत हद तक सियासी अदावत खत्म होने जैसा ही लग रहा है।
पंजाब, बंगाल, बिहार, यूपी और दिल्ली में कांग्रेस नेताओं का कटेगा टिकट
गठबंधन की ओर से दावा किया जा रहा है कि जल्द ही सीटों के बंटवारे का फॉर्मूला भी तय किया जायेगा। बैठक के बाद नेताओं ने कहा कि हालांकि सबसे बड़ा पेंच अभी सीटों के बंटवारे को लेकर होना बाकी है। इसमें पंजाब, पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश में सीटों के बंटवारे को लेकर बड़ा मंथन किया जाना है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकारें हैं। उत्तरप्रदेश में विपक्ष के नाम पर समाजवादी पार्टी और आरएलडी मजबूत स्थिति में है। इसलिए इन तीन राज्यों में कांग्रेस के नेताओं को बड़े सियासी बलिदान के लिए तैयार रहना होगा। इसके अलावा बड़ी सियासत दिल्ली में भी होनी है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के चलते कांग्रेस के नेताओं को यहां भी बड़े समझौते करने पड़ सकते हैं। ऐसे ही मामलों पर सीटों के बंटवारे का फॉर्मूला जल्द ही तय कर लिया जायेगा। इधर बिहार और झारखंड में इस वक्त कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार चल रही है। झारखंड में तो सीटों के बंटवारे में कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन बिहार में जदयू और राजद के साथ आने से कांग्रेस के सीटों की संख्या घट सकती है। वैसे महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन पहले से बना हुआ है। वहां परेशानी नहीं होगी।
कांग्रेस के लिए ये राज्य अहम
कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्यों में उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में बातचीत को संतुलित करने की जरूरत है। ये राज्य लोकसभा में 280 से अधिक सांसद भेजते हैं। इनमें से अधिकांश राज्यों में विपक्षी दलों, विशेष रूप से क्षेत्रीय दलों की अपनी मजबूत उपस्थिति है, जहां कांग्रेस मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी में से एक है। अब सबसे पुरानी पार्टी के लिए उनके साथ आना, भले ही एक उच्च उद्देश्य के लिए, आसान नहीं होगा।
कांग्रेस तो अभी भी है एकता के केंद्र में
विपक्षी नेताओं की बैठकों में जिस तरीके की तस्वीरें सामने आयीं, उनसे एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि अभी भी केंद्र में कांग्रेस ही है। कांग्रेस के नेता और राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कहते हैं कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की बिल्कुल इच्छुक नहीं है। उन्होंने कहा कि हम मानते हैं कि हमारे बीच राज्य स्तर पर कुछ मतभेद हैं, लेकिन ये मतभेद वैचारिक नहीं हैं। ये मतभेद इतने बड़े भी नहीं हैं कि आम आदमी, गरीब, युवाओं और मध्यम वर्ग के लिए हम इन्हें भुला कर आगे नहीं बढ़ सकते। 26 पार्टियां साथ हैं और 11 राज्यों में हम सबकी सरकार है। कांग्रेस की ओर से आये इस बयान से फिलहाल गठबंधन में जुड़नेवाले नेताओं की बड़ी दुविधा तो खत्म होती हुई नजर आ रही है।
लेकिन सवाल फिर वहीं आकर अटकता है कि आखिर कांग्रेस इतना सियासी बलिदान कैसे कर सकेगी। इन राज्यों में उसके नेताओं की आकांक्षाओं को वह कैसे पूरा कर सकेगी, जो नौ साल से विपक्ष में रह कर लगभग बेचैन हो चुके हैं। इस सवाल का जवाब देश की सबसे पुरानी पार्टी कैसे देती है, यह देखना दिलचस्प होगा।