विशेष
‘मिशन झारखंड’ के लिए भाजपा ने बदला प्लान
-अब आदिवासियों के साथ दलितों और पिछड़ों पर होगा फोकस
-कार्यकर्ताओं के घर भोजन कर शिवराज ने शुरू किया अभियान
-भ्रष्टाचार के साथ महागठबंधन की वादाखिलाफी भी होगा मुद्दा
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव राजनीतिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण होने वाले हैं। भाजपा जहां महागठबंधन सरकार को सत्ता से हटाकर राज्य की सत्ता में अपनी वापसी कर झारखंड में डबल इंजन की सरकार बनाने की तैयारी में है, वहीं लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित इंडिया गठबंधन एक बार फिर सत्ता पर काबिज होने की कोशिश में है। इन सबके बीच चुनावी जंग जीतने के लिए राजनीतिक दलों के अंदर बैठकों का दौर जारी है। भाजपा के लिए झारखंड विधानसभा चुनाव कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी ने अपने कद्दावर नेता और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को ‘मिशन झारखंड’ पर लगा दिया है। इन दोनों नेताओं ने पिछले डेढ़ महीने में पार्टी की प्रदेश इकाइ में नयी जान फूंक दी है। अब भाजपा ने झारखंड फतह के लिए अपनी रणनीति में थोड़ा बदलाव किया है और पार्टी ने आदिवासियों के साथ दलितों और पिछड़ों को भी अपने साथ जोड़ने का बड़ा अभियान शुरू किया है। इसके तहत पार्टी कार्यकर्ताओं के घर भोजन करने का सिलसिला शुरू हुआ है, जिससे दो उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। एक तो पार्टी आम लोगों के नजदीक जा सकेगी और दूसरा यह कि इससे पार्टी के भीतर का माहौल भी खुशनुमा बनेगा। इसके अलावा पार्टी ने भ्रष्टाचार के साथ अब महागठबंधन सरकार की वादाखिलाफी को भी मुद्दा बनाने का फैसला किया है, जिसका सकारात्मक असर हो सकता है। झारखंड में क्या है भाजपा की बदली रणनीति और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारियां इस बार कुछ अधिक जोर-शोर से चल रही हैं। भाजपा ने दो चुनाव प्रभारी और एक प्रदेश प्रभारी की तैनाती की है, तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन को अपने नेता हेमंत सोरेन पर पूरा भरोसा है। चुनावी दृष्टि से फिलहाल दो गठबंधन झारखंड में स्पष्ट तौर पर दिखते हैं। एनडीए में भाजपा के साथ आजसू पार्टी है, तो इंडी अलायंस में झामुमो, कांग्रेस, राजद और भाकपा (माले) अभी दिख रहे हैं। विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला इन्हीं दो गठबंधनों के बीच होना तय है। झारखंड का विधानसभा चुनाव राजनीतिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसे जीतने के लिए दोनों ही गठबंधनों में जबरदस्त मुकाबला होगा। जो भी इस चुनाव को जीतेगा, उसके लिए आगे का रास्ता आसान होगा। भाजपा झारखंड में अपनी खोयी जमीन वापस पाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है, तो इंडिया गठबंधन सत्ता में बने रहने के लिए प्रयासरत है।
दोनों गठबंधनों की ताकत और कमजोरी
एनडीए की सबसे बड़ी ताकत यह है कि केंद्र में उसकी सरकार है। 2014 से 2019 तक भाजपा की झारखंड में पूर्ण बहुमत की सरकार रही है। खराब हालत में भी भाजपा के पास आठ और उसकी सहयोगी आजसू के पास एक सांसद हैं। भाजपा झारखंड के दो इलाकों- संताल परगना और कोल्हान को छोड़ बाकी जगहों पर कमाल तो कर लेती है, लेकिन इन दो इलाकों में झामुमो और उसके सहयोगी दलों का ही दबदबा रहता है। कोल्हान इलाके में विधानसभा की 14 सीटें हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में इंडिया ब्लॉक में शामिल पार्टियों ने भाजपा का इस इलाके से सफाया कर दिया था। तब कोल्हान की सबसे हॉट सीट जमशेदपुर पूर्वी रही, जहां राज्य के मुख्यमंत्री रहे रघुवर दास को उनकी ही सरकार में मंत्री रहे सरयू राय ने निर्दलीय चुनाव लड़ कर धूल चटा दी थी। इस बार लोकसभा चुनाव में कोल्हान की दो सीटों में एक सीट पर ही भाजपा को कामयाबी मिली। इसी तरह झामुमो का गढ़ माने जाने वाले संताल परगना में लोकसभा की तीन और विधानसभा की 18 सीटें हैं। पिछले संसदीय चुनाव में भाजपा ने तीन में दो सीटें- दुमका और गोड्डा जीत ली थीं, जबकि इस बार उसे सिर्फ गोड्डा सीट से ही संतोष करना पड़ा। विधानसभा की 18 सीटों में सात अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। संताल की 18 में नौ विधानसभा सीटों पर झामुमो काबिज है, जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस के पास पांच सीटें हैं। संताल परगना में सिर्फ चार सीटें ही भाजपा के पास हैं।
रणनीतियों पर सभी का ध्यान
इस राजनीतिक परिदृश्य में दोनों खेमों की तैयारियों के बीच रणनीतियों पर भी ध्यान देना जरूरी है। जहां तक महागठबंधन की रणनीति का सवाल है, तो उसमें कोई खास बदलाव होने की संभावना नहीं है, क्योंकि वह सत्ता में है और सत्ता की चाबी माने जानेवाले आदिवासियों का समर्थन उसके साथ है। दूसरी तरफ भाजपा अपनी रणनीति को धार देने के लिए इसमें लगातार बदलाव कर रही है।
क्या है भाजपा की रणनीति
भाजपा के लिए चिंता की बात यह भी है कि अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित लोकसभा की पांच सीटों में भाजपा को एक भी नहीं मिली, जिनके अंतर्गत 28 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। यही वजह है कि भाजपा ने इस बार अपनी रणनीति बदली है। भाजपा आरक्षित सीटों पर आदिवासी समाज के बड़े नेताओं को उतारने की तैयारी में है। चुनाव प्रभारी बनाये गये शिवराज सिंह ने भोजन पॉलिटिक्स से चुनावी अभियान की शुरूआत की है। इसके तहत पार्टी के बड़े नेता मंडल और बूथ स्तरीय नेता-कार्यकर्ता के घर जाकर भोजन करेंगे। खुद शिवराज ने रांची से इसकी शुरूआत की है और यह सिलसिला अब लगातार जारी रहेगा। इस अभियान में पिछड़े, दलित और आदिवासी नेताओं-कार्यकर्ताओं के घरों को प्राथमिकता दी जायेगी। पार्टी का मानना है कि इस अभियान की मदद से वह आम लोगों के नजदीक आ सकेगी और एक भावनात्मक रिश्ता बनेगा।
ओबीसी पर नजर, पर सवर्ण पर भी फोकस
लोकसभा चुनाव में आदिवासी सीटों पर हार का सामना करने के बाद भाजपा ने विधानसभा चुनाव में ओबीसी वोट बैंक को साधने पर फोकस किया है। इसके अलावा पार्टी ने अपने पारंपरिक सवर्ण वोट को भी नाराज नहीं करने पर ध्यान दिया है। भाजपा ने इसी कसरत के तहत शिवराज सिंह चौहान और हिमंता बिस्वा सरमा की नियुक्ति की है। इनमें शिवराज ओबीसी हैं, तो सरमा सवर्ण हैं। इन दोनों नेताओं ने आदिवासियों के बाद अब ओबीसी और सवर्ण वोटरों पर ध्यान केंद्रित कर दिया है।
महागठबंधन की वादाखिलाफी भी होगा मुद्दा
सामाजिक समीकरणों के साथ भाजपा ने राजनीतिक मुद्दों पर भी ध्यान लगाया है। विधानसभा चुनाव में वह भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा तो बनायेगी ही, साथ ही महागठबंधन सरकार की वादाखिलाफी को भी उजागर करेगी। भाजपा के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया है, क्योंकि लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा कोई खास असर नहीं छोड़ सका। दूसरी तरफ महागठबंधन सरकार द्वारा लगातार लोकलुभावन घोषणा की जा रही है, जिसकी काट भाजपा के लिए कड़ी चुनौती है। भाजपा को लगता है कि महागठबंधन की वादाखिलाफी का वोटरों पर सकारात्मक असर पड़ेगा, हालांकि इसमें संदेह है।