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    Home»विशेष»बिहार में इस बार का बड़ा सवाल: कौन बनेगा सिकंदर
    विशेष

    बिहार में इस बार का बड़ा सवाल: कौन बनेगा सिकंदर

    shivam kumarBy shivam kumarJuly 3, 2025No Comments8 Mins Read
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    तैयार है नीतीश, तेजस्वी और पीके के बीच कड़े मुकाबले की जमीन
    तीनों के सहयोगी तैयार कर रहे हैं प्रतिद्वंद्वियों को घेरने की मजबूत रणनीति

    इस साल के अंत तक बिहार में विधानसभा चुनाव होना है। बिहार की राजनीति सीधे केंद्र की राजनीति पर असर डालती है। इसलिए केंद्र की किसी भी सरकार के लिए बिहार का समीकरण काफी अहम होता है। बिहार की राजनीति कब और किस तरह से करवट लेगी, कहना मुश्किल होता है। इस बार बिहार का चुनाव एक बार फिर से नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द बुना जा रहा है। बीजेपी ने फिलहाल राज्य में नीतीश की जनता दल यूनाइटेड के नेतृत्व में चुनाव लड़ना स्वीकार कर लिया है। वहीं तेजस्वी यादव उनके विरोधी दल के नेता के रूप में मुखर रहेंगे। उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के सामने एनडीए को टक्कर देने की चुनौती है। एनडीए में साल 2020 के पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान के तौर पर दरार देखी गयी थी और इसका फायदा आरजेडी ने उठाया था। लेकिन अब भी राज्य में सबसे बड़ा सवाल यही है कि बिहार की राजनीति की दिशा चुनावी साल में क्या है। क्या नीतीश कुमार के पास ही अब भी राज्य में जीत की चाबी है। क्या बीजेपी अकेले दम पर बिहार में निर्णायक बढ़त हासिल करने की ताकत बना पायी है। क्या तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद एंटी-इनकंबेंसी को भुना पायेगी। कांग्रेस के सामने क्या विकल्प हैं और छोटी पार्टियों का समर्थन किसका बेड़ा पार लगायेगा। क्या नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के सामने प्रशांत किशोर कोई चुनौती पेश कर सकेंगे या फिर वह भी किसी राजनीतिक धमाके की तरह प्रकट होने के बाद नेपथ्य में गुम हो जायेंगे। इन सवालों का जवाब आसान नहीं है, क्योंकि बिहार की राजनीति हमेशा से एक नयी लाइन बनाती रही है। ऐसे में कौन बन सकता है बिहार का सिकंदर और क्या हैं संभावनाएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी अब बढ़ने लगी है। चुनावी समीकरण भी अब आकार ले रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर से चुनावी गठबंधन की बात जोर शोर से उठ रही है। बिहार का चुनाव इस बार कई मायनों में बहुत अलग होने जा रहा है। अब तक के संकेत बता रहे हैं कि बिहार चुनाव में नेताओं के भाषण बहुत ही कसैले और कड़वे होने जा रहे हैं। विधानसभा के बजट सत्र में ही इसकी झलक दिखाई पड़ी। तेजस्वी हों या फिर नीतीश, दोनों ही व्यक्तिगत हमला कर रहे हैं। एनडीए हो या फिर इंडिया गठबंधन, दोनों तरफ से व्यक्तिगत हमले हो रहे हैं। नीतीश कुमार तेजस्वी को बच्चा कहकर बात करते हैं। इस तरीके से वह उनके कद को कम करने का प्रयास करते हैं। नीतीश का कहना है कि उन्होंने तेजस्वी के पिता लालू यादव के साथ राजनीति की है। ऐसे में वह उन्हें क्या सिखायेंगे। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव इस समय नीतीश कुमार के साथ ही उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी का भी राजनीतिक हमला झेल रहे हैं। इसके साथ ही अन्य नेता भी तेजस्वी पर हमलावर हैं।

    क्या बदलेगा गठबंधन का समीकरण
    राजनीति में अनिश्चितता तो रहती है, लेकिन बिहार में बीजेपी ने यह स्पष्ट कर दिया है​ कि एनडीए विधानसभा का चुनाव नी​तीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ेगा। बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में 243 सीटों की विधानसभा में बीजेपी 110 सीटों पर और जेडीयू 115 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इस बार सीटों के बंटवारे को लेकर रस्साकशी और सौदेबाजी देखने को मिल रही है, क्योंकि पिछली बार जेडीयू मात्र 43 सीटें जीत पायी थी। लेकिन सवाल यह है कि उसके आगे क्या होगा। चुनाव के बाद क्या परिणाम आते हैं। कैसी परिस्थितियां होंगी। आरजेडी का प्रदर्शन कैसा होगा। अगर आरजेडी के पास सीटें अच्छी आती हैं, तो नीतीश कुमार के पास आरजेडी के साथ जाने का विकल्प बनता है। ऐसे में इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता है। पिछली बार जेडीयू का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा था। इसके बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया गया, क्योंकि उनके पास दूसरा विकल्प मौजूद है। इस समय जेडीयू और आरजेडी के रिश्ते खराब हैं। ऐसे में बीजेपी और जेडीयू चुनाव में साथ लड़ने की संभावना है।

    कितने असरदार हैं नीतीश कुमार
    यह सच है कि नीतीश कुमार की साख अब पहले जैसे नहीं रही। उनकी राजनीतिक निष्ठा पासे की तरह पलटती रही। इसका नुकसान हुआ है। वहीं उनके खराब स्वास्थ्य और सरकार की कार्यशैली के कारण उनके प्रति विश्वास में कमी आयी है, लेकिन यह भी स्थिति नहीं आयी कि बीजेपी उनसे पल्ला झाड़कर अकेले चुनाव लड़ ले। फिलहाल बीजेपी अभी आश्वस्त नहीं कि वह अकेले चुनाव लड़कर चुनाव जीत सकती है। मुझे लगता है कि बीजेपी अगर अकेले चुनाव लड़ेगी, तो शायद वह सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरेगी, लेकिन उसकी इतनी हैसियत नहीं है कि अकेले सरकार बना ले। ऐसे में नीतीश कुमार को चुनाव तक साथ रखना लाजिमी है। वैसे नीतीश कुमार को लेकर बीजेपी नेताओं में बेचैनी बहुत है। चुनाव के बाद यह बेचैनी और भी दिखाई देगी। चुनाव में सीट जीतने का अनुपात अगर पिछली बार की तरह ही रहा, तो इस बार बिहार में महाराष्ट्र जैसी राजनीति देखने को मिल सकती है।

    नीतीश के स्वास्थ्य का बिहार की राजनीति पर असर
    नीतीश कुमार अब 74 साल के हो गये हैं। उम्र के साथ उनके स्वास्थ्य को लेकर दिक्कतें सामने आयी हैं। ऐसे में उनके नेतृत्व को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर पूरी की पूरी राजनीति तैयार की जा रही है। साल 2005 में जब नीतीश ने सत्ता संभाली थी, तो यह कहा जाता था कि बहुत अच्छे शब्द बोलने वाले व्यक्ति के पास सत्ता आयी है। इससे इतर पिछले दिनों में उनका भाषण देखें, उनका स्टाइल देखें, वह कैसे गुस्सा हो जा रहे हैं। सभी महसूस कर रहे हैं कि उनका स्वास्थ्य अब अच्छा नहीं है। नीतीश कुमार ने अपने बाद दूसरी पंक्ति का कोई नेता उभरने नहीं दिया और 23 साल से पूरी जेडीयू उनके ही इर्द-गिर्द घूम रही है। जेडीयू में दूसरी पंक्ति में अब निशांत कुमार को आगे किया जा रहा है। सवाल यह है कि 40 साल की उम्र पार कर रहा व्यक्ति क्या राजनीतिक विरासत को संभाल पायेगा। नीतीश कुमार के पास 14 प्रतिशत वोट है और बीजेपी भी इस बात को मानती है। यह वजह है कि नीतीश कुमार जिस तरफ जाते हैं, जीत उसी की होती है।

    जेडीयू का वोट बैंक कहां जायेगा
    इस चुनाव में नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथ में रहेगा, लेकिन अगर मान लें कि न रहे तो क्या होगा। इससे अति पिछड़ा वर्ग का वोट टूटेगा। यह आरजेडी से टूटकर जेडीयू में आया है, तो इसका बड़ा हिस्सा बीजेपी में जायेगा और छोटा हिस्सा आरजेडी के पक्ष में जा सकता है। कांग्रेस को इसका कोई फायदा शायद नहीं होगा। बिहार में 15 साल सरकार के बाद भी आरजेडी का वोट प्रतिशत 26 से 27 के बीच बना हुआ है। अति पिछड़ा वर्ग काफी जद्दोजहद के बाद जेडीयू के साथ गया है। आरजेडी में अति पिछड़ा वर्ग की वापसी के लिए तेजस्वी को अखिलेश यादव की तरह राजनीतिक संकेत देने होंगे।

    कांग्रेस के पास क्या विकल्प है
    बिहार में कांग्रेस जिस राह पर चल पड़ी है, उसमें यूपी, बिहार ही नहीं, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और दिल्ली में संकट नहीं, महासंकट है। ऐसे राज्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। बिहार में इस बार कांग्रेस के अस्तित्व की लड़ाई है।

    बिहार में छोटे दलों की क्या है भूमिका
    बिहार की राजनीति जातियों पर आधारित है। छोटी पार्टियों के नेताओं की एक विशेष जाति पर पूरी पकड़ है, जैसे चिराग पासवान का एक अपना वोट बैंक है। जीतन राम मांझी का एक अलग वोट बैंक है। इनके जातिगत वोट बैंक को हासिल करने के लिए गठबंधन की जरूरत है। तेजस्वी यादव इस चुनाव में अखिलेश यादव से कुछ सीखेंगे। कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने के बजाय अगर अपनी सीटों पर प्रत्याशी उतारते हैं, तो उन्हें ज्यादा फायदा होगा। बीजेपी अपना फुटप्रिंट बनाने की कोशिश कर रही है। चिराग पासवान को वो जितनी सीटें पहले देते आ रहे हैं, उतनी ही देंगे।

    जनसुराज पार्टी और प्रशांत किशोर कितने बड़े कारक
    बिहार चुनाव में इस बार जनसुराज पार्टी भी एक फैक्टर है। यह कितना बड़ा है, इसका पता चुनाव के बाद ही पता चलेगा। हमें उप चुनाव और सामान्य चुनाव में अंतर करके देखने की जरूरत है। जब विधानसभा चुनाव होंगे, तो लोग अपने नुमाइंदे नहीं सरकार चुनेंगे और उस वक्त अगर ये लगने लगता है कि कोई पार्टी एकदम हाशिये पर है या फिर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं, तो ऐसे में उनकी तरफ रुझान कम हो जाता है। इसलिए प्रशांत किशोर कुछ न कुछ नुकसान जरूर करेंगे। वो जितना भी वोट लायेंगे, आरजेडी और उनके स​हयोगी दलों का ही नुकसान होगा।

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