देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के भीतर का बवंडर शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने जो ‘लेटर बम’ फोड़ा, उसकी आवाज तो कार्यसमिति की बैठक में किसी तरह दबा दी गयी, लेकिन उस बम से निकले बारूद की गंध आनेवाले कई दिनों तक इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी को अपनी चपेट में लिये रहेगी। 135 साल पुरानी कांग्रेस आज एक बार फिर दोराहे पर आकर खड़ी हो गयी है। अपने स्थापना काल के बाद सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस को अब दो टूक फैसला लेने की चुनौती है। स्थापना के एक सौ साल बाद तक लगातार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति के केंद्र में रही कांग्रेस को आत्ममंथन करना होगा कि आखिर उसकी नीतियां क्यों उसे भारतीय राजनीति में हाशिये पर धकेल रही हैं। पार्टी को उस नये नेतृत्व को हर हाल में आगे करना होगा, जो अपने बुजुर्ग और थक चुके नेताओं के पीछे चलने के लिए मजबूर हो रहा है। कांग्रेस को सोचना होगा कि पुरानी पीढ़ी के अनुभवों का लाभ अब पार्टी की युवा पीढ़ी को मिलना चाहिए, ताकि आक्रामक राजनीति के वर्तमान दौर की चुनौतियों का डट कर मुकाबला किया जा सके। कांग्रेस के भीतर की असहज स्थिति और उसमें उठे बवंडर की पृष्ठभूमि में पार्टी की भावी रणनीति का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
एक सौ साल में तो बड़ी-बड़ी इमारतें भी जर्जर हो जाती हैं, किले भी ढह जाते हैं, फिर कांग्रेस तो 135 साल पुरानी पार्टी है। इसमें दरारें आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कई दिनों की कश्मकश के बाद आखिर एक बार फिर कांग्रेस ने अपनी पतवार सोनिया गांधी के अनुभवी और बुजुर्ग हाथों में सौंप दी है। पिछले साल तीन जुलाई को अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद बीते 417 दिन में कांग्रेस नेताओं की आपसी प्रतिद्वंद्विता, अहं और वैचारिक भिन्नता ने देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की साख को खाक कर दिया। सोमवार को कार्यसमिति की बैठक के घटनाक्रम और वरिष्ठ नेताओं की फिजूल की तू-तू-मैं-मैं के कारण कांग्रेस के हाथ में सिर्फ राख ही बच गयी है। अब सोनिया गांधी के नेतृत्व पर बड़ा सवाल खड़ा हुआ है कि वह इस राख को राजनीति की गंगा में विसर्जित करेंगी या फिर इस राख में दबी चिंगारी से नयी ऊर्जा का प्रज्ज्वलन कर लोकतंत्र की इमारत को पुन: प्रकाशमान करेंगी।
पिछले कई दिनों से कांग्रेस में दो फाड़ होने की चर्चाएं गर्म थीं, पर यह हो ही नहीं पाया। दो फाड़ करने की कोशिशों में कई लोग शायद यह भूल गये कि बूढ़ी कांग्रेस दधीचि की हड्डियों की तरह है। सूखे हाड़ कभी दो फाड़ नहीं हो सकते। कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उसकी गांधी परिवार पर सर्वाधिक निर्भरता है। ममता बनर्जी, हेमंत बिस्वाल, जगनमोहन रेड्डी और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप पार्टी छोड़ कर चले गये। अब पार्टी में फैसला ऐसे नेता लेते हैं, जिनका कोई जनाधार नहीं है। कांग्रेस ने स्वाधीनता संग्राम जैसा संगठनात्मक ढांचा खड़ा करने में गंभीरता से काम नहीं किया। आतंकवाद, कश्मीर, धारा 370, एनआरसी, तीन तलाक या राम मंदिर जैसे मुद्दे पर पार्टी ने दो टूक रास्ता अख्तियार नहीं किया। नरम हिंदुत्व और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के बीच हिचकोले खा रही कांग्रेस न तो अपने परंपरागत हिंदू वोट को सहेज पायी और न मुस्लिम वोटरों को सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों की झोली में जाने से रोक पायी।
28 दिसंबर 1885 को मुंबई में जब एलेन आॅक्टेवियन ह्यूम, दादाभाई नौरोजी और दिनशॉ एडुलजी वाचा ने कांग्रेस की नींव रखी थी, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि यह पार्टी अगले एक सौ साल तक भारतीय राजनीति के केंद्र में रहेगी। इन तीन महान राष्ट्रवादियों ने कांग्रेस की स्थापना किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं की थी, बल्कि उनका लक्ष्य भारत की आजादी था। बाद में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस संगठन को अपने खून-पसीने से सींचा। जिस उद्देश्य को लेकर कांग्रेस की स्थापना की गयी थी, वह 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ ही पूरा हो गया। तब कांग्रेस ने खुद को देश के नवनिर्माण में लगा दिया और बीच के कुछ सालों को छोड़ कर 2014 तक इसने देश पर शासन किया। पार्टी ने इस दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे, झटके खाये, लेकिन वह अपने रास्ते पर चलती रही। यहां तक कि 2014 के आम चुनाव में अब तक की सबसे करारी पराजय झेलने के बावजूद पार्टी ने अपनी पुरानी लीक नहीं छोड़ी। उसके नेतृत्व पर, नीतियों पर और रणनीति पर लगातार सवाल उठते रहे, लेकिन पार्टी के भीतर कुछ नहीं बदला। 2019 में कमोबेश यही स्थिति रही। हालांकि बीच में दिसंबर 2018 में तीन राज्यों की सत्ता में वापसी से कांग्रेस को कुछ हौसला मिला। लोकसभा चुनाव के बाद झारखंड में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया। तब तक पार्टी में बहुत कुछ बदलने का दौर शुरू हुआ था, लेकिन लगातार दो आम चुनावों में हार से कांग्रेस के भीतर खलबली मच गयी। पार्टी के पुराने नेताओं ने इस हार के लिए नयी परिपाटी को जिम्मेदार ठहराया। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि पार्टी नेताओं की नयी पौध मुरझाने लगी। पुराने और बुजुर्ग कांग्रेसी एक बार फिर नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आ गये। इसी संक्रमण ने कांग्रेस का बड़ा नुकसान किया। कांग्रेस की परंपरा रही है कि यह दिल्ली से चलती है और दिल्ली से ही रुकती है। कांग्रेस की नयी पौध ने इसे बदलने का बीड़ा उठाया था, लेकिन यह प्रभावी नहीं हुआ। पार्टी के पुराने लोग भूल गये कि सूचना क्रांति और तकनीकी के इस दौर में पार्टी पुरानी परिपाटी से नहीं चल सकती है। आक्रामक राजनीति के युग में ‘केवल मैं’ से पार्टी का बेड़ा पार नहीं लगाया जा सकता।
कांग्रेस के लिए यह आत्ममंथन का दौर है। पार्टी नेतृत्व को नयी पौध और प्रतिभा को पहचान कर उसे अनुकूल स्थान देना ही होगा। राजनीति का नया दौर परिवार और खानदान से नहीं, काम से चल रहा है। इसमें युवाओं जैसी चपलता, फुर्ती और आक्रामकता जरूरी है। इस नये तौर-तरीकों को कांग्रेस जितनी जल्दी आत्मसात कर लेगी, उसके लंबे जीवन के लिए उतना ही लाभकारी होगा। अन्यथा उसका अस्तित्व धीरे-धीरे इसी तरह सिमटता जायेगा और भारत की यह ग्रैंड ओल्ड पार्टी इतिहास के पन्नों में समा जायेगी।
अब पार्टी के 23 नेताओं द्वारा लिखे गये पत्रों से कांग्रेस के भीतर का जो माहौल बदला है, उससे दो सवाल मन में उठते हैं। पहला, क्या पार्टी ने अब अधिक आत्मविश्वास से आक्रामकता और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने का मन बनाया है और क्या इससे पार्टी को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी। दूसरा सवाल इस बात से जुड़ा है कि आने वाले हफ्तों और महीनों में कांग्रेस को कैसा नेतृत्व मिलता है और पार्टी दो खेमों में बंट चुके अपने कैडर को उत्साहित करने और जमीनी स्तर पर समर्थन जुटाने के लिए किस तरह खुद को संगठित करती है? पहले सवाल का जवाब तो समय के साथ ही मिलेगा। कांग्रेस पार्टी के नेता यही दुआ मांग रहे हैं कि युवा नेताओं में यह तेवर बरकरार रहे। इसमें संदेह नहीं कि पार्टी के कई पुराने नेताओं को यह भय सता रहा है कि पार्टी की कमान युवा नेताओं के अधीन आने से उनके रास्ते बंद हो सकते हैं। वे सोनिया गांधी के नेतृत्व में इसलिए सहज हैं, क्योंकि सोनिया एक सजग और व्यावहारिक नेता रही हैं, जिन्होंने अकसर न्यूनतम प्रतिरोध की राह अपनायी और चीजों में ज्यादा बदलाव की कोशिश नहीं की। इस तरह वे कांग्रेसी नेताओं को एकजुट रखने में कामयाब रहीं। इसके अलावा राहुल के पार्टी अध्यक्ष बनने को लेकर एक तरह की असहजता का भाव उनके अस्थिर मिजाज की वजह से भी है, क्योंकि वे आज यहां होते हैं और अगले दिन वहां से गायब। हालांकि यह भी है कि यदि राहुल कुछ चुनावी सफलताएं हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं, तो कहानी में ट्विस्ट आ सकता है।