वैश्विक महामारी कोरोना ने समूचे समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र को ही पलट कर रख दिया है। हाल के दशकों में कोई ऐसी त्रासदी नहीं हुई थी, जिसमें देश में ऐसी भागम-भाग की हालत हुई हो। कोरोना के कारण हुए भागम-भाग में सिर्फ दिहाड़ी मजदूर ही नहीं परदेस में काम कर रहे लाखों-लाख स्थाई और अस्थाई कामगारों को भी करारा चोट पहुंचाया है। पांच महीने के इस लॉकडाउन के दौरान बेगूसराय को पांच सौ करोड़ से अधिक की क्षति हुई है। ना सिर्फ क्षति हुई है, बल्कि कई जगह उल्टी गंगा भी बह रही है। देश के विभिन्न शहरों में रहने वाले बेगूसराय के लाखों श्रमिक प्रत्येक महीना अपने परिवार को घर चलाने के लिए पैसा भेजते थे। इसके भरोसे सिर्फ कामगारों का परिवार ही नहीं चलता था, बल्कि कई लोग क्रमबद्ध तरीके से जी रहे थे। लेकिन कोरोना में शहर से गांव पैसा आना तो दूर उल्टे गांव से ही शहर की ओर पैसा जा रहा है। गांव से मंगाए गए पैसे पर शहर में लोग जीवन यापन कर रहे हैं और जिन्हें जीवन यापन में कठिनाई हो रही है वह घर से पैसा मांगा कर घर की भागे-भागे से आ रहे हैं। यहां पर कोई मनरेगा में काम करने के लिए आ रहा है तो कोई औद्योगिक नवप्रवर्तन योजना का फायदा उठाने के लिए आ रहा है।

प्रवासी कामगारों के भरोसे चलने वाली पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही बदल गई है। हालांकि अर्थव्यवस्था में हुए इस बदलाव ने आपदा को अवसर में बदलने का भी मौका दिया है। बेगूसराय में करीब दो सौ छोटे-बड़े नए उद्योग शुरू हो रहे हैं। इससे एक ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होगी तो वहीं बिहार के बाजारों पर आयात का बोझ कम होगा। चीन जैसे देश को झटका देने के लिए बिहार के श्रमिक एक्टिव मोड में हैं तथा यह बदलाव अर्थव्यवस्था को एक नया मुकाम देगा। एक अनुमान के मुताबिक बेगूसराय में देश के विभिन्न शहरों से कम से कम 50 करोड़ रुपया आता था, लेकिन अभी 50 लाख भी नहीं आ रहा है। 90 प्रतिशत से अधिक लोग दिल्ली, मुंबई को छोड़कर अपने गांव में आ गए हैं। गांव आने के लिए कुछ लोगों ने अपनी नौकरी छोड़ दी, तो कुछ लोगों ने दुकान भी बेच डाला। तमाम लोग गांव में रहकर रोजगार खोज रहे हैं, आत्मनिर्भर बनने का प्रयास कर रहे हैं। कभी कुदाल चलाने नहीं चलाने वाले हाथ भी इस भीषण गर्मी में खेतों में पसीना बहा रहे हैं।
दिल्ली में मुंशी गिरी करने वाला गांव आकर सब्जी बेच रहा है, फेरी लगाकर गांव-गांव घूम रहा है। परदेस से श्रमिकों के आने का सिलसिला थमने की बजाए लगातार जारी है। लॉकडाउन में परदेस में जलालत झेलने वाले लोग मौका मिलते ही गांव आ रहे हैं। काम की जानकारी मिलते ही अपने गांव की ओर भागे भागे आ रहे हैं। दिल्ली, मुंबई और असम से लोग ट्रेन से आ रहे हैं तो पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश आदि से ग्रुप बनाकर निजी वाहन और बस से घर लौट रहे हैं। असम से लौटे प्रमोद कुमार महतों, राधेश्याम महतों, गोपाल महतों आदि ने बताया कि कोरोना ने हमलोगों को आर्थिक रूप से बर्बाद कर दिया है। करीब छह साल से गुवाहाटी में रहकर कमा रहे थे, लेकिन लॉकडाउन ने पूरी तरह से बर्बाद कर दिया। काम बंद होने के बाद घर से पैसा मंगाकर परदेस में खा रहे थे, अब जब ट्रेन से आने वालों की भीड़ कम हुई तो गांव आ गए हैं, अब परदेस नहीं जाएंगे। परदेस जाने से क्या फायदा, जहां से कंगाल होकर घर लौटे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गरीबों के कल्याण के लिए, उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए विभिन्न तरह की योजनाएं शुरू की गई है। आत्मा को अवसर के रूप में बदला जा रहा है, राज्य सरकार की भी कई योजना चल रही है तो कहीं ना कहीं काम मिलेगा ही।
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