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    Home»Breaking News»11 अगस्त को नहीं है शुभ तिथि, 12 अगस्त को शुभ काल में मनाएं रक्षाबंधन
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    11 अगस्त को नहीं है शुभ तिथि, 12 अगस्त को शुभ काल में मनाएं रक्षाबंधन

    azad sipahiBy azad sipahiAugust 6, 2022No Comments6 Mins Read
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    रक्षाबंधन नजदीक आते ही बाजारों में रंग-बिरंगी राखियां सज गई है, दूरदराज के भाई के लिए बहनों ने राखी डाक एवं कोरियर के माध्यम से भेजना एक सप्ताह पहले से शुरू कर दिया है। लेकिन इस बीच कैलेंडर और पंचांग में प्रकाशित तिथियों को लेकर आम लोगों के बीच उहापोह की स्थिति बनी हुई है।

    एक तरफ घर-घर में प्रचलित ठाकुर प्रसाद कैलेंडर ने 11 अगस्त को रक्षाबंधन घोषित किया गया है। दूसरी ओर मिथिला के विभिन्न पंचांग में 12 अगस्त को रक्षाबंधन की बात है। 12 अगस्त को प्रातः सूर्योदय काल से ही पूर्णिमा की तिथि प्रारंभ हो जाएगी तथा प्रातः 7 बजकर 24 मिनट तक रहेगा, इसलिए 12 अगस्त को ही प्रातःकाल रक्षाबंधन शास्त्र सम्मत है।

    कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित विश्वविद्यालय पंचांग, वैदेही पंचांग, विद्यापति पंचांग, मैथिली पंचांग आदि सभी पंचांग में 12 अगस्त को ही रक्षाबंधन का निर्णय दिया गया है, जो कि उचित है। इस संबंध में ज्योतिष आचार्य अविनाश शास्त्री एवं ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र गढ़पुरा के संस्थापक आशुतोष झा ने कहा है कि ठाकुर प्रसाद कोई पंचांग नहीं, बल्कि यह एक कैलेंडर है और हिंदू पर्व-त्यौहारों का निर्णय पंचांग एवं ज्योतिष ग्रंथ के अनुसार होता है।

    मुहूर्त चिंतामणि में स्पष्ट है कि पूर्णिमा तिथि के प्रारंभ का आधा भाग भद्रा होता है, जिसके अनुसार 11 अगस्त को सुबह 9:43 ने जब पुर्णिमा तिथि का प्रवेश हुआ है तो प्रवेश के साथ ही भद्रा प्रारंभ हो गया है तथा यह रात्रि के 8:33 तक रहेगा। यानी 11 अगस्त को रात्रि 8:43 के बाद रक्षाबंधन का शुभ मुहूर्त प्रारंभ होता है तो रात्रि काल में रक्षाबंधन अव्यवहारिक है।

    वाराणसी से प्रकाशित होने वाले ठाकुर प्रसाद पंचांग और ऋषिकेश पंचांग में 11 अगस्त को रक्षाबंधन कहा गया है, लेकिन उसमें भी भद्रा के समय में रक्षाबंधन को वर्जित माना गया है। कहा जाता है कि रक्षाबंधन पर भद्राकाल में राखी नहीं बांधनी चाहिए। इसके पीछे एक पौराणिक कथा भी है। लंकापति रावण की बहन ने भद्राकाल में ही उनकी कलाई पर राखी बांधी थी और एक वर्ष के अंदर उसका विनाश हो गया था। भद्रा शनिदेव की बहन थी, भद्रा को ब्रह्मा से श्राप मिला था कि जो भी भद्रा में शुभ या मांगलिक कार्य करेगा, उसका परिणाम अशुभ ही होगा।

    कहा जाता है कि महाभारत में यह रक्षा सूत्र माता कुंती ने अपने पोते अभिमन्यु को बांधी थी। जब तक यह धागा अभिमन्यु के हाथ में रहा तब तक उसकी रक्षा हुई, धागा टूटने के बाद ही अभिमन्यु की मृत्यु हुई थी। आचार्य अविनाश शास्त्री कहते हैं कि रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं, बल्कि शुभ भावनाओं एवं शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम तथा भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बांधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है।

    प्रतिवर्ष सावन पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्यौहार होता है, इस दिन गुरु या पुरोहित अपने शिष्य एवं यजमान तथा बहनें अपने भाई को रक्षा-सूत्र बांधती हैं। यह रक्षासूत्र यदि वैदिक रीति से बनाई जाए तो शास्त्रों में भी उसका बड़ा महत्व है। वैदिक राखी दूर्वा, अक्षत (साबूत चावल), केसर या हल्दी, शुद्ध चंदन, सरसों के साबूत दाने को कपड़े में बांधकर सिलाई कर बनाई जाती है। वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएं जीवन को उन्नति की ओर ले जानेवाले संकल्पों को पोषित करती हैं। दूर्वा गणेश जी को प्रिय है अर्थात हम जिनको राखी बांध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाय।

    अक्षत श्रद्धा पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं, जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय। केसर या हल्दी की प्रकृति तेज होती है, अर्थात हम जिनको यह रक्षा सूत्र बांध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो। उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय। चंदन शीतलता और सुगंध देता है, यह उस भावना का द्योतक है कि जिसको हम राखी बांध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव नहीं हो। सरसों तीक्ष्ण होता है, जो दुर्गुणों का विनाश करने एवं समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनाता है। यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व मंगलकारी है।

    रक्षाबंधन के दिन कई तरह के रक्षा सूत्रों का उपयोग किया जाता है, इसके संबंध में भी अलग-अलग धारणा है। रक्षाबंधन के दिन किसी तीर्थ अथवा जलाशय में जाकर वैदिक अनुष्ठान करने के बाद सिद्ध रक्षा सूत्र को विद्वान पुरोहित ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन करते हुए यजमान के दाहिने हाथ मे बांधना शास्त्रों में सर्वोच्च रक्षा सूत्र माना गया है। इसे विप्र रक्षा सूत्र कहा जाता है। सर्व सामर्थ्यवान गुरु अपने शिष्य के कल्याण के लिए गुरु रक्षा सूत्र बांधते है। अपनी संतान की रक्षा के लिए माता पिता द्वारा बांधा गया रक्षा सूत्र शास्त्र में करंडक कहा गया है। अपने से बड़े या छोटे भाई को समस्त विघ्नों से रक्षा के लिए बांधी जाती है। देवता भी एक दूसरे को इसी प्रकार रक्षा सूत्र बांध कर विजय पाते हैं। यह रक्षा सूत्र आज के दौर में सबसे अधिक प्रचलित है।

    पुरोहित या वेदपाठी ब्राह्मण द्वारा रक्षा सूत्र बांधने के बाद बहिन का पूरी श्रद्धा से भाई की दाहिनी कलाई पर समस्त कष्ट से रक्षा के लिए रक्षा सूत्र बांधती है। भविष्य पुराण में भी इस स्वसृ रक्षासूत्र की महिमा बताई गई है। इससे भाई दीर्घायु होता है एवं धन-धान्य सम्पन्न बनता है। अगस्त संहिता के अनुसार गौ माता को राखी बांधने से भाई के रोग और शोक दूर होते हैं। इस गौ रक्षा सूत्र का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है। यदि लड़की को कोई भाई नहीं हो तो उसे वटवृक्ष, पीपल या गूलर के वृक्ष को रक्षा सूत्र बांधना चाहिए। पुराणों में इस वृक्ष रक्षा सूत्र का विशेष उल्लेख है। बरगद या पीपल के धागा लपेटने की प्रक्रिया रक्षाबंधन से ही संबंधित है। आज भारद्वाज गुरुकुल सहित कई अन्य विद्यालय के छात्र-छात्रा वृक्षों में रक्षा सूत्र बांधकर पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हुए संकल्प लेते हैं।

    रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण मंत्रोच्चार करते हैं ”येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।” इस मंत्र का अर्थ है कि दानवों के महापराक्रमी राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षासूत्र तुम चलायमान नहीं हो, चलायमान नहीं हो।

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