विशेष
चंपाई सोरेन प्रकरण ने प्रदेश की सियासत के स्याह पहलू को रखा सामने
नेताओं की महत्वाकांक्षा ने बार-बार कठघरे में खड़ा किया है झारखंड को
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में फिलहाल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है, उसका अंत होता नहीं दिख रहा है। इस ड्रामे के केंद्र में दिलजले पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन हैं, जिन्होंने एक लेटर बम जारी कर हंगामा मचाया हुआ है। लेटर में उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि हेमंत सोरेन ने उनके साथ अन्याय किया है। कुछ फैसलों के कारण उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचायी गयी है और अब वह अलग राह पकड़ चुके हैं। लेकिन यह लेटर बम जारी करने से पहले चंपाई सोरेन शायद अपने मुख्यमंत्रित्व काल के वह क्षण भूल गये हैं, जब उन्होंने कुर्सी पर विराजमान होने के बाद हेमंत सोरेन और झामुमो के लिए कहे थे। वह बार-बार कहते थे कि हेमंत सोरेन के साथ अन्याय हुआ है। उन्हें षडयंत्र के तहत जेल में डाला गया है। बार-बार वह यही कहते थे कि यह चंपाई सोरेन की सरकार नहीं, बल्कि हेमंत सोरेन पार्ट टू सरकार है। वह हेमंत सोरेन की नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। उस समय चंपाई सोरेन सच्चाई ही बयां कर रहे थे। सच्चाई भी यही थी कि चंपाई सोरेन को मुख्यमंत्री भी तो हेमंत सोरेन ने ही बनाया था। उन्होंने अपना हिस्सा काट कर चंपाई सोरेन को दिया था। साफ था कि जब हेमंत जेल से बाहर आयेंगे, तो सीएम वही बनेंगे। उन्होंने अपने बगीचे की हिफाजत के लिए आपको रखा था, इस उम्मीद के साथ कि बगीचे में लगे फलों की सुरक्षा होगी। लेकिन आपने तो एक अलग ही राग अलापना शुरू कर दिया। खैर आपने यह भी साफ किया है कि आपको सत्ता का मोह नहीं था, एक-दो फैसलों के कारण आपके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची है। वैसे आत्मसम्मान की रक्षा के लिए किसी को समझौता नहीं करना चाहिए, यह सही बात है। ठीक है आपने एक लेटर बम डाल दिया। सब कुछ साफ कर दिया, और सारा ठीकरा हेमंत सोरेन के माथे फोड़ दिया। अब आपको निश्चित रूप से आत्ममंथन करना चाहिए कि मुख्यमंत्री बने रहने के दौरान आपने हेमंत सोरेन के बारे में जो बखान किया था, वह सही था या अब जो आप आरोप मंडल कर रहे हैं, वह सही है। लेटर में चंपाई सोरेन ने यह भी साफ कर दिया कि शिबू सोरेन और पार्टी को लेकर उनके मन में कोई रोष नहीं है, लेकिन पार्टी नेतृत्व को लेकर उनके मन में दुख है। दूसरी तरफ आप नया दल बनाने की बात भी कह रहे हैं। अब कह रहे हैं कि आदिवासी, मूलवासी और गरीब गुरबों को लेकर आप संघर्ष करेंगे। अच्छी बात है, लेकिन क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि ऐसा कहनेवाले आप अकेले नहीं हैं। हर वह व्यक्ति ऐसा कहता है, जब वह अपने दल को छोड़ कर अति महत्वाकांक्षा में दूसरी जगह जाता है। जिस प्रकार से चंपाई सोरेन के भाजपा में जाने की चर्चाएं मीडिया में लगातार चल रही थीं और अजीब सा आभा मंडल तैयार किया जा रहा था, उसका अंतत: क्या परिणाम निकला, यह शायद अब स्पष्ट हो चुका है। चंपाई सोरेन ने अब झामुमो से अलग रास्ता अख्तियार करने की घोषणा की है। इससे पहले शायद झारखंड के उस इतिहास को याद नहीं किया, जिसमें पाला बदलने वालों के लिए राजनीतिक वनवास के अलावा कोई दूसरी मंजिल नहीं है। एकाध अपवाद को छोड़ कर झारखंड की दो प्रमुख राजनीतिक ताकतों, झामुमो और भाजपा को छोड़नेवालों को जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया है। सूरज मंडल से लेकर सीता सोरेन, हेमलाल मुर्मू से लेकर साइमन मरांडी, स्टीफन मरांडी से लेकर शैलेंद्र महतो, लोबिन हेंब्रम और गीता कोड़ा तक का हश्र झारखंड देख चुका है। उसमें से कइयों ने तो फिर उसी दल में जाकर ठौर खोजने की कोशिश की या फिर हाशिये पर चले गये। कुछ इसी तरह का हश्र भाजपा नेताओं का भी हुआ। एक समय था, जब एकीकृत बिहार के समय झारखंड में इंदर सिंह नामधारी, समरेश सिंह, दीनानाथ पांडेय और षाड़ंगी जी की तूती बोलती थी। उनकी एक आवाज पर हजारों लोग एकत्र हो जाया करते थे। एक समय ऐसा भी आया, जब वे नेता यह मान बैठे कि भाजपा उनकी बदौलत झारखंड में है। उन्होंने भाजपा को चुनौती दे दी। अलग-अलग कुनबे से जुड़ गये या शांत बैठ गये। हुआ क्या, चंद दिनों में ही वे झारखंड की राजनीति से छिटक गये। कुछ को तो फिर भाजपा की शरण में जाना पड़ा। झारखंड की सियासत में झामुमो और भाजपा ऐसी ताकत है, जिससे बाहर निकलनेवाला नेता किसी दूसरी पार्टी में फिट नहीं हो सकता है। हो सकता है, राजनीति में बह रही हवा के झोंके में वह चंद समय के लिए अपना अस्तित्व बचा ले, लेकिन अंतत: उससे पछताना ही पड़ता है। बहुत उम्मीदें लेकर सुखदेव भगत भी भाजपा में आये थे। क्या हुआ, राजनीतिक हाशिये पर चले गये। उन्हें फिर तभी जमीन मिली, जब वह अपने पुराने आशियाने में लौटे। झारखंड में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि पाला बदलने के इस खेल से किसी का भला नहीं होनेवाला है, न झारखंड का और न नेता का और न ही किसी दल विशेष का। चंपाई सोरेन प्रकरण की पृष्ठभूमि में झारखंड में पाला बदलनेवाले नेताओं की क्या है वर्तमान स्थिति, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड में विधानसभा चुनाव का रंग चढ़ने लगा है। इसका असर भी दिख रहा है। वैसे तो समय के साथ राजनीति की दशा और दिशा भी बदली है, लेकिन एक दौर था, जब किसी पार्टी या संगठन के प्रति वफादारी निभाते-निभाते नेता अपना पूरा जीवन खपा देते थे। पार्टी के प्रति उनका समर्पण उनकी पहचान बन जाया करती थी। मगर अब न वह सोच रही और ना ही राजनीति की परिभाषा। बदलते वक्त के साथ मानो इस पर भी तेजी से पेशेवर अंदाज हावी होने लगा है। जहां ज्यादा फायदा, वहां शिफ्टिंग। शायद यही वजह है कि चुनाव के वक्त राजनेताओं का पाला बदलना मौसम के जैसा हो गया है। इस बार भी यह खेल चल पड़ा है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने इसकी शुरूआत की है। वह झामुमो के कद्दावर नेता माने जाते हैं, लेकिन अब वह अलग राह पर निकल पड़े हैं। वह बार-बार यह दोहरा रहे हैं कि या तो वह अपना नया दल बनायेंगे या फिर किसी साथी के साथ आगे बढ़ेंगे।
झारखंड में पुराना है पाला बदलने का खेल
झारखंड के ढाई दशक के राजनीतिक इतिहास में पाला बदलने की कई घटनाएं हो चुकी हैं। बगावत और अलग रास्ता अख्तियार करनेवाले नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसे नेताओं को जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया। झारखंड में राजनेताओं का दल बदल करना आम है। चुनाव के वक्त तो इनका उत्साह वैसा होता है, जैसे नये घर में कोई शिफ्ट करने के वक्त। इस दलबदल के खेल में हर राजनीतिक दल से ताल्लुकात रखने वाले राजनेता शामिल हैं। इन राजनीतिक दलों में क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ राष्ट्रीय पार्टी से जुड़े लोग भी शामिल हैं। लंबा राजनीतिक अनुभव रखने वाले कई ऐसे राजनेता हैं, जो एक के बाद एक कई दलों में अपना राजनीतिक भविष्य तलाशते रहे। नेताओं के पार्टी बदलने के पीछे कई वजहें हैं। पार्टी के अंदर आंतरिक राजनीति के साथ अपनी पहचान बनाने के लिए नेता दलबदल करते हैं, जिससे उन्हें लाभ का पद नये दल में किसी न किसी रूप में मिल जाता है। यह अलग बात है कि जनता उन्हें स्वीकार नहीं करती और अंतत: उन्हें पछतावा ही होता है।
चंपाई सोरेन प्रकरण ने दिया सवाल को जन्म
झारखंड की दो प्रमुख सियासी ताकतें, झामुमो और भाजपा के अलावा कांग्रेस में पाला बदलने का यह खेल चल तो रहा है, लेकिन इस समय यह सवाल ‘कोल्हान टाइगर’ के नाम से मशहूर झामुमो के कद्दावर नेता चंपाई सोरेन प्रकरण के कारण सामने आया है। झारखंड में क्षत्रीय दल के रूप में झामुमो सबसे ताकतवर पार्टी है। इस पार्टी के दबदबे से कोई भी अनजान नहीं है। इस पार्टी के कद्दावर नेता चंपाई सोरेन ने बगावत का रास्ता अपना कर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी के अंदर की खींचतान और अंतर्द्वंद्व की राजनीति को सार्वजनिक करने की कोशश की है। ऐसे में सवाल उठता है कि 50 साल पुरानी इस पार्टी में क्या पहली बार केंद्रीय नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं। क्या पहली बार ऐसा हो रहा है, जब पार्टी का कोई बड़ा नेता अलग होने जा रहा है। इसका जवाब है नहीं।
सफल नहीं हुए झामुमो से अलग होनेवाले
झामुमो से अलग होनेवाले नेताओं की फेहरिस्त काफी लंबी है। इनमें से तीन तो ऐसे हैं, जो अलग रास्ता अपनाने के बाद फिर घर में लौटे और झामुमो में उन्हें पुराना सम्मान मिला। इनमें प्रो स्टीफन मरांडी, साइमन मरांडी और हेमलाल मुर्मू शामिल हैं। इन तीनों ने अलग-अलग समय पर झामुमो को छोड़ा, लेकिन सियासी हाशिये पर पहुंचने के बाद फिर वापस आ गये। लेकिन कुछ नेता ऐसा नहीं कर सके और आज पूरी तरह राजनीतिक हाशिये पर हैं। इनमें पहला नाम कृष्णा मार्डी का है। 1981 में झामुमो से जुड़ कर वह सरायकेला से दो बार के विधायक और सिंहभूम से साल 1991 में सांसद भी बने। इन्होंने पार्टी से सीधी बगावत की और 1992 में झामुमो मार्डी गुट बनाया, लेकिन चार साल बाद ही 1996 में उन्होंने झामुमो में ही अपने गुट का विलय कर दिया। इसके बाद साल 2006 में वह भाजपा में शामिल हुए। दो साल बाद उसे छोड़ साल 2008 में आजसू में आये। फिर इसे छोड़ 2013 में कांग्रेस में शामिल हो गये। साल 2014 में कांग्रेस को भी इन्होंने बाय-बाय कर दिया। बीच में साल 2015 में झामुमो उलगुलान संगठन बनाया, लेकिन उसे भी ज्यादा लंबा नहीं चला सके। दूसरा नाम है सूरज मंडल का, जो कभी झामुमो में नंबर दो की हैसियत रखते थे। युवा कांग्रेस से राजनीति का सफर शुरू करने वाले सूरज मंडल झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन का दाहिना हाथ कहे जाते थे। उस दौरान उन्होंने ऐसा आभा मंडल तैयार कर लिया कि शिबू सोरेन राजनीति के जिस शिखर पर विराजमान हैं, वह सूरज मंडल के कारण ही संभव हो पाया है। लोग उन्हें शिबू सोरेन की परछार्इं भी कहते थे। सूरज मंडल को भी गुमान हो गया था कि अगर वे शिबू सोरेन को छोड़ देंगे, तो शिबू सोरेन जीरो हो जायेंगे। उन्होंने नीतियों का विरोध कर पार्टी छोड़ दी और अपनी अलग पार्टी झारखंड विकास दल बना ली, लेकिन उसके बाद क्या हुआ। आज कहां है वह पार्टी और कहां हैं सूरज मंडल, झारखंड यह अच्छी तरह परिचित है। फिलहाल वह भाजपा का दामन थाम राजनीति में अपने नाम को जीवित रखने की कोशिश कर रहे हैं। सूरज मंडल पहली बार झामुमो के टिकट पर साल 1991 में गोड्डा लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गये थे। झारखंड अलग राज्य निर्माण के पूर्व झारखंड क्षेत्रीय परिषद की कमेटी में सूरज मंडल उपाध्यक्ष भी रहे। इसी तरह शैलेंद्र महतो, दुलाल भुइयां, हेमलाल मुर्मू, स्टीफन मरांडी, साइमन मरांडी और कुणाल षाड़ंगी ने भी झामुमो छोड़ी, लेकिन सफल नहीं हो सके। हाल का एक उदाहरण सीता सोरेन का भी है। इन्होंने सोरेन परिवार और झामुमो छोड़ते समय यह कहा कि वह झारखंड की राजनीति में नया अध्याय लिखने जा रही हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में उन्हें मुंह की खानी पड़ी।
भाजपा छोड़नेवालों के साथ भी वही हुआ
ऐसा नहीं है कि केवल झामुमो छोड़नेवालों को ही सियासी वनवास मिला। भाजपा छोड़नेवाले भी जब सफल नहीं हुए, तो घर लौट आये। इनमें सबसे बड़ा नाम बाबूलाल मरांडी का है, जो 14 साल बाद 2019 में अपने घर लौट गये और आज प्रदेश अध्यक्ष ही नहीं, पार्टी का सबसे बड़ा आदिवासी चेहरा हैं। वैसे बाबूलाल मरांडी वह शख्स हैं, जिनकी मेहनत और संघर्ष पहचान है। भाजपा से अलग होकर भी उन्होंने राजनीतिक रूप से अपने को स्थापित किया। वह एक से ग्यारह तक पहुंच गये। उनकी इस सफलता के कारण उन्हें नेता तैयार करने का कारखाना कहा जाने लगा। अभी भाजपा में लगभग एक दर्जन विधायक ऐसे हैं, जो बाबूलाल की पाठशाला से ही निकल कर आये हैं। बाबूलाल अपवाद इसलिए रहे, क्योंकि उनके पैर कभी जमीन से अलग नहीं हुए। अंतत: भाजपा को भी यह आभास हो गया कि बाबूलाल की जरूरत उसको है। सम्मान के साथ उन्हें दल में लाया गया और पार्टी की कमान उन्हें सौंपी गयी। उस पद पर बाबूलाल खरा उतर रहे हैं और अपनी अहमियत को उन्होंने स्थापित किया है। इसी तरह वर्तमान नेता प्रतिपक्ष अमर बाउरी, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रविंद्र राय और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश भी कभी बाबूलाल की पंक्ति में पीछे खड़े थे। बाद में उन्होंने भी घर वापसी कर ली और अपने को स्थापित किया।
झारखंड का सियासी इतिहास बताता है कि नेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षा के कारण पार्टी बदली, लेकिन जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। जिन्हें यह बात जल्दी समझ आ गयी, उनकी राजनीतिक जमीन बची रह गयी, लेकिन जो लौट नहीं सके, वे खो गये। अब चंपाई सोरेन भी इसी राह पर आगे बढ़ गये हैं, तो उनका भविष्य क्या होगा, यह देखनेवाली बात होगी, लेकिन इतना तय है कि पाला बदलने के इस खेल से झारखंड का तो भला नहीं ही होगा।