सेवा करते-करते मानों मैंने उस अमृत को चख लिया, जिसे कई सिद्धि के बाद भी अर्जित नहीं किया जा सकता
पिता कहते नहीं, लेकिन कभी उनकी आंखें पढ़ कर देखना, पास बैठने को बोलेंगी
माथे पर हाथ फेरने को कहेंगी, बोलेंगी बेटा मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है
इंसान ईश्वर ढूंढने मंदिर-मंदिर जाता है, बस पिता को गले लगा लो, ईश्वर प्राप्त हो जायेंगे
मैं अपने पिता के लिए रोज पहाड़ तो लाता, लेकिन वह बूटी कौन सी थी, जो उनके लिए संजीवनी का काम करती, उसकी पहचान नहीं कर पाया, बस ईश्वर यहीं जीत जाते हैं और इंसान यहीं पिछड़ जाता है
पिता को तो सभी प्यार करते हैं। स्वाभाविक भी है। जैसे सभी करते हैं, वैसे मैं भी अपने पिता से प्रेम करता था। पापा मेरे हीरो थे, ज्यादातर लोगों के लिए उनके पिता हीरो ही होते हैं। मैं पापा से जो कुछ भी मांगता, उससे ज्यादा ही पाता। मुझे लगता था, यही पिता-पुत्र का प्रेम होता है। पिता हमेशा देता है और बच्चा हमेशा मांगता है। लेकिन एक पिता को भी अपने बच्चों की जरूरत उतनी ही होती है, जितनी बच्चों को पिता की। इसे जो महसूस कर लेता है, वह ईश्वर प्राप्त कर लेता है, उसे मंदिर-मंदिर जाने की जरूरत नहीं पड़ती, वह उस अमृत का पान कर लेता है, जिसे समुद्र मंथन के दौरान भी पाया न जा सका। जिसे अनेकों सिद्धि के बाद भी हासिल नहीं किया जा सकता। पिता कहता नहीं है कि बेटा मुझे तुम्हारी जरूरत है, उसे बस महसूस करना पड़ता है। अपने शुरूआती दिनों में, मैं अपनी दुनिया में मगन रहता और पापा भी अपनी दुनिया में रहते। पापा परिवार को समय कम दे पाते। जब पापा ऑफिस से आते, हम सोये हुए होते और जब हम जागते, पापा सोये हुए होते। पत्रकार थे। यह कोई पहेली नहीं, हर पत्रकार की सामान्य दिनचर्या है। खासकर अखबार वालों की। ऊपर से पापा संपादक। जब भी मैंने पापा को देखा, उन्हें हमेशा ऊर्जा से लैस ही पाया। थकान क्या होती है, शायद यह शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं था। वह अपने काम से बहुत प्रेम करते थे। जिद्दी थे। क्या करें पत्रकार थे। पत्रकारिता उनके लिए सांस का काम करती थी। जीवनवाहिनी थी। इसी में वह जीते। उनके लिए समाज और पत्रकारों की पीड़ा प्रथम थी। उनका मानना था कि जिस समाज ने उन्हें इतना कुछ दिया है, उसे वापस लौटाना भी उनकी जिमेदारी है। कर्मठ और जुनूनी व्यक्ति थे मेरे पिता।
पीपल पर लदे फल खा, पानी पी, पेट की अग्नि शांत की
अपने जन्म से ही उन्होंने गरीबी ऐसी देखी कि कई बार वह और उनके भाइयों ने बचपन के दिनों में पीपल के पेड़ पर लदे काले फल खा और पानी पी कर पेट की अग्नि शांत को शांत किया। महुवा और कोइना चुनते। कभी चावल मिला, तो दाल नहीं, कभी गुड़ खा कर गुजारा कर लेते, बहुत हुआ तो सत्तू पी लेते। एक वक्त ऐसा भी था, जब मेरे पिता के पिता, यानी मेरे दादाजी, जिन्हे मैं बाबा बोलता, को देखते लोग अपने घर का दरवाजा बंद कर लेते, उनके दिमाग के कोने में यह बैठा था कि कहीं अपने सात बेटे और दो बेटियों को पालने के लिए वह उनसे खाना न मांग लें। लेकिन यह भी सत्य है कि मेरे बाबा ने कभी भी, किसी के दरवाजे पर हाथ नहीं फैलाया था। उन्होंने और मेरी आजी (दादी) ने अपनी जिम्मेदारियों को खूब निभाया और अपनी संतानों को इस लायक बनाया कि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें। देखते ही देखते समय का चक्र ऐसा घूमा कि अपनी मेहनत, लगन और जूनून की बदौलत, एक साधारण से टाइपिस्ट की नौकरी से अपने करियर की शुरूआत करने वाले मेरे पिता, पत्रकारिता के शिखर पर पहुंचे।
पापा मेरे दिन और रात हो गये
पापा मेरे लिए हीरो थे और सदा हीरो रहेंगे। मैं अपने पिता से प्रेम तो करता था, लेकिन क्या पता था कि एक वक्त ऐसा आयेगा, जब मेरे पिता मेरे लिए मेरे दिन और रात हो जायेंगे। मेरा रोम-रोम पिता के लिए समर्पित हो जायेगा। वात्सल्य सिर्फ माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के लिए ही नहीं होता, वात्सल्य एक बेटे का उसके पिता के लिये भी होता है, यह अधिकार मैं इन 10 महीनों में हासिल कर पाया। जब अपने पिता को मैं अपने तीन साल के बेटे रुद्रव के जैसे नहलाता, उनके आखिरी समय में उनके डायपर बदलता, उन्हें तैयार करता, उनके लिए नये-नये कपड़े खरीदता, उनके बालों को हाथों से सेट करता। उनकी दाढ़ी को ट्रिम करता, उन्हें टिप-टॉप कर देता। जब पापा ना खाने की जिद करते, तो अपने हाथों से उन्हें खिलाता। उनके लिए उनके स्वास्थ्य के अनुसार डिश बनाता और बनवाता। उन्हें उठाता-बैठाता, वाक कराता, उनकी मसाज करता। मेरे पिता में मुझे बेटा रुद्रव दिखने लगा था। तीन साल का बेटा रुद्रव और सत्तर साल के मेरे पिता। मेरे लिए अब दोनों समान थे। जब पापा खान-पान में ढिलाई बरतने की कोशिश करते, तो मैं कभी-कभी गुस्सा भी करता, पापा-मम्मी को बोलते, देखो कैसे बोल रहा है, मम्मी बोलती करता भी तो वही है। पापा भी मेरी हर बात को सुनते। मैं अपने पिता की ऊर्जा बन चुका था।
जिसे कभी सुई तक नहीं लगी थी, उसकी नसों को छेदा जा रहा था
पिता का बीमार पड़ना मेरे लिए अत्यंत पीड़ा का विषय था, क्योंकि जब से मैंने होश संभाला, मैंने कभी भी अपने पिता को बीमार नहीं पाया। हमेशा उन्हें फिट ही पाया। मैंने कभी नहीं देखा था कि उन्हें एक सुई भी लगी हो, या उन्होंने कभी कोई टैबलेट भी खाया हो। हां बस एक बार उनका गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन हुआ था। उसी वक्त उन्होंने अस्पताल का मुंह देखा था। दिल्ली का गंगा राम अस्पताल, वह भी दो दिनों में डिस्चार्ज हो गये थे। लेकिन साल 2024 के अक्टूबर महीने में जब पापा को फोर्थ स्टेज लंग कैंसर डिटेक्ट हुआ, ऐसा लगा मानों हमारे पैरों के नीचे से किसी ने जमीन अचानक से सरका दी हो। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि पापा को कैंसर भी हो सकता है। जो व्यक्ति रोजाना दस-दस किलोमीटर वाक करता हो, सादा खाता हो, सादा जीवन जीता हो, उसे कैंसर घेरेगा, भरोसा नहीं हुआ। हां शुरूआती दिनों में पापा सिगरेट पिया करते थे, लेकिन वह भी 15 साल पहले छोड़ चुके थे। जिस दिन पापा को पता चला कि उन्हें फोर्थ स्टेज लंग कैंसर है, तो डॉक्टर से उन्होंने पहला सवाल यही पूछा कि लाइफ है या नहीं। डॉक्टर शॉक्ड था कि कोई डायरेक्ट पूछ रहा है कि मैं रहूंगा या नहीं। पापा ने कहा कि बताइये, मेरे लिए जानना जरूरी है। तभी इलाज कराऊंगा, नहीं तो क्या फायदा। मैं बस अपने पिता की आंखों में झांक रहा था। उनकी आंखों में डर बिल्कुल भी नहीं था। थी तो अपने दो बेटों के लिए चिंता कि मेरे बाद मेरे बच्चों का क्या होगा। जैसा हर पिता अपने बच्चों के लिए करता है। मैं यह इसलिए समझ पा रहा था, क्योंकि पापा ने कैंसर डिटेक्ट होते सबसे पहले मुझसे कहा था कि सब संभाल लेना। तुम बड़े हो। फर्क मत करना। मैंने उनसे कहा था पापा आप यह क्या कह रहे हैं। कुछ नहीं हुआ है आपको। कैंसर अब लाइलाज बीमारी नहीं है। आप आसानी से ठीक हो जायेंगे। आप खुद से खुद को ठीक कर लेंगे। आपका विल पावर बहुत स्ट्रांग है। डॉक्टर को अपना काम करने दीजिये, बाकी आप पॉजिटिव रहिये। आप इसे आसानी से हरा दीजियेगा।
समय के साथ-साथ पापा के प्रति मेरा प्रेम प्रगाढ़ होता चला गया
खैर इलाज शुरू हुआ और समय बीतता चला गया, समय के साथ-साथ पापा के प्रति मेरा प्रेम प्रगाढ़ होता चला गया। मां को पापा के कैंसर होने की जानकारी नहीं दी गयी थी। लेकिन समय के साथ-साथ मैंने उनको भी तैयार किया। तैयार करना इसलिए भी जरूरी था कि कहीं कोई अनहोनी होती, तो मां बर्दाश्त नहीं कर पाती। देखते ही देखते एक कीमो से चार कीमो तक का सफर तय हुआ। जिस व्यक्ति को मेरे होश में कभी इंजेक्शन तक नहीं लगा था, उसकी नसों को अब छेदा जा रहा था। हर 15 दिन में होने वाला ब्लड टेस्ट भी अब हफ्ते में तब्दील हो रहा था। 11 हीमोग्लोबिन से 5.5 हीमोग्लोबिन पर पापा आ गये। डिस्चार्ज समरी या ओपीडी नोट्स में कीमो टोलेरेटेड वेल से सपोर्टिव केयर लिखा जाने लगा। पापा कमजोर होने लगे थे। 80 किलो से 57 पर आ चुके थे। लेकिन चार कीमो के बाद भी पापा ने व्हील चेयर नहीं पकड़ा। इलाज के दौरान अस्पताल में ऐसे कई पल हमने साथ बिताये, जब पिता की आंखों में आंसू छलकते देखा और मैं अपने आंसू अंदर दबाकर उनकी आंसुओं को पोछता। पापा बोलते बेटा इतना पैसा इलाज में लग रहा है, क्या छोड़कर तुम लोगों के लिए जाऊंगा। मैं कहता पापा सब आपका ही तो है। आप टेंशन क्यों ले रहे हैं। हम दोनों भाई सक्षम हैं। इलाज के क्रम में मैं जब पापा के साथ दिल्ली रहता, छोटा भाई राहुल ऑफिस और घर का मोर्चा संभालता। पापा को अपने जीवन पर किताब लिखनी थी। लेकिन काम में व्यस्तता के कारण लिख नहीं पाये। लेकिन यह मेरे दिमाग में थी। चार कीमो के बाद, पापा बोले गांव जाने की इच्छा हो रही है, जा पाऊंगा? मैं उन्हें गांव भी लेकर गया। उन्होंने गांव में बुढ़वा महादेव मंदिर का निर्माण करवाया है। उन्होंने महाशिवरात्रि के दिन भंडारा का भी आयोजन करवाया था। ठीक यही वह समय था, जब मैंने पापा की बायोग्राफी शूट कर डाली। पापा को देर तक बैठे मैं दिक्कत होती, लेकिन जब भी उन्हें ठीक लगता मैं शूट कर लेता। मेरे मन के किसी कोने में यह घर कर रहा था कि अगर में पापा की कहानी नहीं शूट कर पाया, तो बहुत कुछ अधूरा रह जायेगा। मैंने पापा की कहानी उन्ही की जुबानी शूट कर ली। पापा की जीवनी कोई उपन्यास से कम नहीं। धीरे-धीरे वह भी सामने लाऊंगा।
रात-रात भर पापा के पैरों के पास सो जाता
इलाज के क्रम में पापा के कुल पांच कीमो हुए, सात इम्युनोथेरपी और रेडिएशन के कुल दस सेशन हुए, लेकिन मजाल है कि पापा ने कभी भी व्हील चेयर पकड़ी हो। वह हमेशा वाक करके गये और वाक करके आये। एक चीज जो दोनों को हौसला दिये हुए थी, वह थी पॉजिटिव माइंडसेट। मुझे पापा और ईश्वर पर पूरा भरोसा था कि पापा बिलकुल ठीक हो जायेंगे। पापा मुझे छोड़ कर नहीं जायेंगे। समय के साथ-साथ मैं खुद को भूल चुका था। दिन और रात, मेरे लिए सब सामान्य हो चुके थे। मेरे जीवन का हर एक क्षण पिता को समर्पित हो चूका था। ऐसी कई रातें भी आयीं, जब इलाज के लिए हफ्तों अस्पताल के आसपास रुकना पड़ता। ऐसा समय भी आया, जब मैं कई रात लगातार सोया नहीं, फिर भी पता नहीं कहां से ऊर्जा मिलती। रात-रात भर जब पापा का पैर दबाता, खांसते तो पीठ सहलाता और जब पापा सोते, तो उनकी नाक बजती, यही नाक का बजना मुझे सुकून देती कि पापा सो रहे हैं, मैं उनके पैरों के पास सो जाता। हां जब इलाज के बाद जब रांची आता तो मम्मी एक्टिव हो जाती। खाना का डिपार्टमेंट मेरी मम्मी और मेरी पत्नी संभाल लेती। लेकिन पापा के लिए जो अलग-अलग तरीकों का जूस और सूप होता, वह मैं ही बनता। उनके लिए कुछ अलग सी रेसेपी तैयार कर राखी थी। छोटा भाई राहुल आजाद सिपाही का एक मोर्चा संभाले हुए था। मैं एडिटोरियल देखता। मैं अगर थोड़ी देर के लिये भी इधर-उधर होता, पापा परेशान होने लगते। मुझे ढूंढने लगते। मेरी मां को बोलते बेटा कहां है। मेरे छोटे भाई राहुल को बोलते, भैया कहां है।
पापा के कमरे मैं चुपके से जाता, नाक बजती तो आ जाता
ऐसी कई रातें आयीं जब पापा दर्द में कराह रहे होते, फीवर भी आता। कीमो का साइड इफेक्ट असहनीय होता है। रात को सोता तो डर लगा रहता। कई बार पापा और मम्मी को देखने चुपके से उनके कमरे मैं चला जाता। नाक बजने की आवाज आती मन प्रसन्न हो जाता। हमारे लिए अब हर सुबह नयी होती चली गयी। हर सुबह पापा का मूड नया होता। एक दिन बिना दर्द के बीत जाए, तो उस पल को हम जी लेते। खुश हो लेते। मुस्कुरा लेते। यह सिलसिला दस महीनों तक चला। इलाज के दौरान जब बाहर जाता तो मैं पिता के लिए वर्ल्ड का बेस्ट शेफ बन चूका था। उनकी पसंदीदा दल पिठ्ठी बनाता। सत्तू भरी मकुनी भी बनाता। मैं हर वो डिश बनाना सीख चूका था, जो पिता को पसंद थी। मैंने उनके लिये एक स्पेशल डाइट प्लान बनाया हुआ था। इसका जिक्र आगे करूंगा।
मैं अपने पिता के साथ वो पल बिता पाया, जब पापा को मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी
मेरे पिता भले बीमार थे, उसकी पीड़ा तो मुझे थी, लेकिन दिल के कोने में एक आनंद भी था, जो कह रहा था कि मैं अपने पिता के साथ वो पल बिता पाया, जब मेरे पिता को मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मैं बिना ब्लड टेस्ट के बता देता कि मेरे पिता के शरीर में कितना खून तैर रहा है। उनकी हर एक हरकतों से मैं अब वाकिफ हो चला था। जीवन में मैंने अपना पहला खून पिता को ही दिया और आखिरी जूस पिता ने जो पिया या निवाला जो लिया, वह भी मेरे हाथों से ही लिया। मैं अपने पिता के लिए कितना खरा उतर पाया या नहीं, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन पितृ प्रेम और सेवा की तृप्ति क्या होती है, उसकी पहचान मुझे हो चली थी। उस अमृत को मैंने चख लिया था, सच कहूं तो मैं अपने पिता की सेवा कर तर गया। मेरा जीवन सफल हो गया। आज मेरे पिता मेरे साथ नहीं हैं, लेकिन जब-जब मेरे पिता पर पीड़ा, दर्द और तकलीफ ने हावी होने की कोशिश की, मैं उनका हाथ पकड़कर उनकी आंखों के सामने मौजूद रहा। उनके सर को सहलाता, उनके हाथ-पांव दबाता, उनके लिए हर वो उपाय करता जो मेरे लिए मुमकिन था।
बस ईश्वर यहीं जीत जाते हैं और इंसान यहीं पिछड़ जाता है
जंगल-जंगल जड़ी ढूंढने के लिए भी भटका, दर्जनों पेड़ों के पत्तों का सहारा भी लेता, दिन-रात रिसर्च करता। कैंसर से जुड़ी कई केस स्टडीज को खंगालता। रात-रात भर सोशल मीडिया का हर एक प्लेटफार्म छान मारता। जहां भी कोई गुंजाइश दिखती उसके पीछे भागता। एक तरफ डॉक्टर तो अपना इलाज कर ही रहे थे, लेकिन मैं भी एक तरफ से मोर्चा संभाल डटा रहा, क्योंकि मुझे पता था कि कैंसर ट्रीटमेंट का सबसे बड़ा साइड इफेक्ट उसका ट्रीटमेंट ही है। लेकिन मेरे सामने कोई चारा भी तो नहीं था। ट्रीटमेंट भी करवाना था और उसके साइड इफेक्ट से पापा को भी बचाना था। डॉक्टर तो अपना 100 परसेंट दे ही रहे थे, लेकिन मैं कहां पीछे हटने वाला था। जब मेरे पिता मुझे छोड़ कर चले गये और मैं कुछ भी नहीं कर पाया, तब मुझे यही लगा कि जब लक्ष्मण जी मूर्छित पड़े थे, तब बजरंग बली उनके लिए संजीवनी बूटी से लैस पहाड़ उठा लाये। लेकिन मैं अपने पिता के लिए रोज पहाड़ तो ले आता, लेकिन वह बूटी कौन सी थी, जो उनके लिए संजीवनी का काम करती, उसकी पहचान नहीं कर पाया। बस ईश्वर यहीं जीत जाते हैं और इंसान यहीं पिछड़ जाता है।
एक पिता के लिए उसका सबे बड़ा सहारा उसकी संतान ही होती है
एक पिता के लिए उसका सबसे बड़ा सहारा उसकी संतान ही होती है। पिता का व्यक्तित्व चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, समाज में उसकी पद-प्रतिष्ठा, मान सम्मान चाहे कितनी भी उंची क्यों न हो, पिता मानसिक रूप से कितना भी मजबूत क्यों न हो, लेकिन उसकी असली उर्जा उसके संतान में ही छिपी रहती है। पिता जब तकलीफ में भी होता है, तब भी वह अपनी संतान को अहसास तक नहीं होने देता कि वह कितना कष्ट में है। लेकिन पिता की आंखें सब कुछ कह देती हैं। दर्द में वह अपनी संतान को ढूंढता है। उसके पास रहना चाहता है। पिता चाहता है कि उसकी संतान उसके सिर पर हाथ फेरे। उसका हाथ पकड़ उसे सहलाये। उसको बोले पापा आप ठीक हैं न, कोई दिक्कत तो नहीं। पिता बस इतना ही सुनना चाहता है। उसका रोम-रोम इन शब्दों को सुनने मात्र से ही अपनी संतान को आशीर्वाद देने लगता है। मुझे नहीं पता था कि मैं अपने पिता को इतना प्यार करता था कि मेरे पिता मेरे दिन और रात हो गये। यह कहानी है एक पिता और पुत्र के बांडिंग की। यह कहानी है उस दस महीनों की जब मेरा एक-एक सेकंड पापा का हो गया। यह कहानी है पिता और पुत्र के वात्सल्य की, उन आंसुओं की, जो मैं कभी दिखा नहीं पाया, लेकिन पता है जिस दिन फटूंगा, बादल जरूर फटेगा। मैंने अपने पिता को खो तो दिया, लेकिन मैंने उस अमृत को प्राप्त लिया, जो पिता के खोने का अहसास नहीं होने देती। क्योंकि मैं तृप्त हो चुका हूं, पिता की सेवा कर संतुष्ट हो चुका हूं। अभी पिता का आधा कार्य बचा है, उसमें व्यस्त हो चुका हूं। इसी कहानी की परत खोलते स्वर्गीय हरिनारायण सिंह के पुत्र और ‘आजाद सिपाही’ के संपादक राकेश सिंह।