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    Home»विशेष»आखिरी छठ, सूना रहा खरना
    विशेष

    आखिरी छठ, सूना रहा खरना

    shivam kumarBy shivam kumarAugust 27, 2025No Comments15 Mins Read
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    मुंबई में रोशन तनेजा एक्टिंग इंस्टीट्यूट से जो एक्टिंग सीखी, सब पापा पर इस्तेमाल किया
    पापा को चिंताओं ने घेरना शुरू कर दिया
    छठ पूजा करीब थी। अस्पताल से रांची आने के बाद पापा के मन में बहुत तरह की बातें चलने लगी थीं। पापा को अब चिंताओं ने घेरना शुरू कर दिया था। पापा अब गुम-सुम बैठने लगे थे। लेकिन मैं यह सब लगातार वाच कर रहा था। जब भी पापा सोचते, मैं उनके पास बिना मतलब बैठ अखबार से संबंधित बातें करने लगता। क्योंकि पापा इधर-उधर की बातों को टाल देते, लेकिन अखबार और खबर से संबंधित किसी भी बात को वह हलके में नहीं लेते, फिर उनका मौन मैं तोड़ देता। मैं पापा को कई बार टोकता भी, पापा आप कुछ सोच रहे हैं क्या। वह कहते नहीं मैं कुछ नहीं सोच रहा। मैं उनसे कहता ज्यादा मत सोचिये। आप तो जिंदगी की हर लड़ाई जीते हैं, यह भी जीतेंगे। आपको थोड़े न कुछ हुआ है। कैंसर कोई रोग थोड़े न होता है। इसे आसानी से आप हरा देंगे। इसे हारने के लिए सबसे पहला स्टेप है, पॉजिटिव थिंकिंग। आप बस यही सोचिये की इस बीमारी को मैं हरा दूंगा। घर पर वैसे मेरे छोटे भाई राहुल के अलावा किसी को भी पता नहीं था कि पापा को कैंसर है। मम्मी को तो भनक तक नहीं थी कि पापा को कैंसर है। हमने बताया नहीं था। उन्हें बस यही जानकारी थी कि पापा को थोड़ा इन्फेक्शन है। उसी का इलाज चल रहा है। सब ठीक हो जायेगा। मेरी मां का नाम मंजू सिंह है। मां कोरोना को मात दे चुकी थीं। उस दौरान 12 दिनों तक मां का इलाज चला। पापा और छोटे भाई राहुल को मैंने उस फ्लोर से ही हटा दिया था। उस फ्लोर पर सिर्फ मैं और मां रहते। उस दौरान कोरोना ने मम्मी का 20 प्रतिशत लंग्स को डैमेज कर दिया था। मैं ही मां को खाना देता, उनके कमरे को साफ करता, उनसे खूब बातें करता। मां रूम में मुझे घुसने से मना करतीं। लेकिन मैं रूम के बहार हॉल मैं बैठा रहता। वहीं सोता, खता-पिता। कई बार जब मां के कमरे में जाता और देर तक रुकता, तो मां भगा देती। मैं कहता मां ये सब कोरोना-वोरोना मैंने निगल लिया है अब कुछ नहीं होगा। उस दौरान तो एक वक्त लगा कि मैं ही डॉक्टर बन गया हूं। खैर यह अपने आप में एक कहानी थी। कोरोना को मात देने के बाद मां की सेहत पर गहरा असर भी पड़ा। मां को ब्रेन का इशू होने लगा था। उसकी दवा चल रही थी। मां के लिए थोड़ा भी स्ट्रेस खतरनाक था। मां ये कतई सहन नहीं कर पातीं कि पापा को कैंसर हो गया है। मुझे और भाई को फूंक-फूंक कर शब्दों का चयन कर बात करना पड़ता घर पर।

    पापा ने इस साल छठ पूजा नहीं की, खरना भी रहा सूना
    अब छठ महापर्व के गीत हर जगह सुनाई देने लगे थे। मां छठ पूजा में व्यस्त हो गयीं। पूरा भरा परिवार मिलकर, एक जगह यानी हमारे कोकर स्थित आवास पर छठ पूजा करता। बच्चों की किलकारी, महिलाओं के गीत, मर्दों का छठ का सामान लाना, हर तरफ शोर, ठहाके और गीत, लेकिन पापा की खामोशी इन सभी पर भारी थी। इस बार खरना के दिन हमने लोगों को घर नहीं बुलाया। नहीं तो हर साल करीब 300 से 400 लोग घर पर आया करते। खरना का प्रसाद ग्रहण करते और पापा की खूब बैठकी लगती। समाज से हर वर्ग के लोगों का तांता लगा रहता। पापा हर साल छठ किया करते, लेकिन इस साल उन्होंने छठ पूजा नहीं की। तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी। इस बार उनके मुख से तेज गायब था। उत्साह कम था। मुरझाये से थे मेरे पापा। मैं समझ रहा था कि पापा को अब कौन सी चिंतायें सताने लगी थीं। उन्हें कुछ और नहीं अपने बच्चों की चिंता सताने लगी थी, जो किसी भी पिता के लिए नेचुरल है। क्योंकि दिल्ली जाते ही पापा की कीमो शुरू होने वाला था। कीमो के बारे में कई तरह की कहानियां पहले से ही प्रचलित थीं और हैं। हम लोग पापा को अकेला नहीं रहने देते। छठ पूजा में वैसे सभी परिवार वाले एकजुट होकर पूजा में भाग लेते। हमारे कई रिश्तेदार रांची में ही रहते और हर हफ्ते मुलाकात भी होती है। अब समय था पापा से इधर-उधर की बातें करने का। कभी-कभी तो हम सभी मूर्खता भरी बातें करते। घर के सभी बच्चे उनके सामने अपनी मासूमियत बिखेरते। खूब शरारत करते। लेकिन पिता तो पिता हैं, वह सब कुछ समझ रहे थे। सो हमारी सारी होशियारी धरी की धरी रह जाती। खैर छठ पूजा अच्छे से मना। लेकिन हमें पता नहीं था कि यह छठ पूजा पापा के साथ आखिरी होने वाला था। पापा के साथ परिवार का कोई भी सदस्य तस्वीर लेता, पापा कोई रिएक्शन नहीं देते। चेहरा उतरा हुआ ही रहता। मैं समझ रहा था कि पापा क्या सोच रहे थे।

    जितना मैंने स्कूल-कॉलेज में नहीं पढ़ा, उतनी तो महीनों में पढ़ाई कर ली
    जबसे मुझे पता चला था कि पापा को कैंसर हो गया है, ठीक उसी समय से मैं कैंसर के बारे में स्टडी करने लगा। काफी आर्टिकल्स पढ़े। जितना मैंने स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई नहीं की थी, उतनी तो मैंने महीनों में कर ली थी। रात-रात भर सोशल मीडिया, वेब आर्टिकल्स छान मरता। मैंने कैंसर पेशेंट की जर्नी को समझना शुरू किया। उनके माइंडसेट को समझने की कोशिश की। मैंने कई केस स्टडीज को खंगालना शुरू किया। सोशल मीडिया पर कैंसर पेशेंट्स के कमेंन्ट्स पढ़ता। वहां से कई क्लू मिलते। उसके बाद उनसे संपर्क करने की कोशिश भी करता। कई लोग जो कैंसर को हरा चुके थे, या फिर लड़ रहे थे, वह कैसे सरवाइव कर रहे थे, उनके बारे में समझता। रिसर्च के दौरान पता चला कि कई लोग जो कैंसर को मात दे चुके थे, या कैंसर से लड़ रहे थे, उन लोगों ने अपना एक डाइट प्लान भी बनाया हुआ था। कइयों में मैंने उस डाइट प्लान को कॉमन भी पाया। उसके बाद मैंने पापा के हिसाब से उनके लिये एक डाइट प्लान भी बनाया। मैंने कई विदेशी प्रोफेसर्स के रिसर्च को भी सुना। कहीं-कहीं पाया कि कैंसर एक मेटाबोलिक डिजीज है। यह लाइफस्टाइल डिसआॅर्डर है। खान-पान का भी बहुत फर्क पड़ता है। ऑटोफेगी के बारे में समझा। मैंने इस दौरान नैचुरोपैथी को भी समझने की कोशिश की और पापा के ट्रीटमेंट में उसका भी सहारा लिया। अब मरता क्या न करता। मुझे बस अपने पिता दिख रहे थे। मैं अब पूरी तरह से समाज से कट गया था। मेरा लोगों से संपर्क टूट चुका था। मेरा पूरा वक्त पिता के लिए समर्पित हो गया था। इस दौरान झारखंड में विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर था। मेरा शो भ्रमण काफी हिट हो रहा था। लोग उसे काफी पसंद कर रहे थे। शो के लिए मैं पूरा झारखंड घूमता। लेकिन इसी बीच जब पापा बीमार हुए, सब छोड़ मैं पापा के साथ हो लिया। अचानक मैं और पापा चुनावी माहौल से गायब हो गये। अब सिर्फ मिशन पापा सामने थे। मुझे पता नहीं था कि मैं अपने पिता को इतना प्यार करता हूं कि मैं खुद को ही भूल जाऊंगा। मेरे पिता मेरे लिये दिन और रात हो चुके थे। उठता तो पापा, सोता तो पापा। पापा मेरी पहली और आखिरी प्राथमिकता हो चुके थे। पहली कीमोथेरपी की तारीख नजदीक आ रही थी। मेरा और पापा दोनों का मन जाने का नहीं हो रहा था। लेकिन न जाते, तो क्या करते। पहली कीमोथेरेपी की तारीख 9 नवंबर 2024 की थी। 8 तारीख को पापा और मैं दिल्ली के लिए रवाना हुए।

    स्टार होटल का एक रूम किचन, कलछुल, कड़ाही, तवा और बर्तन
    दिल्ली एयरपोर्ट पर लैंड होने के बाद, हम शाम करीब छह बजे गुरुग्राम के स्टार होटल पहुंचे, जो मेदांता से महज 150 मीटर की दूरी पर था। वहां पहले से मेरे बड़े पापा के बेटे रामनारायण सिंह उर्फ मुन्ना भैया पहुंचे हुए थे। पापा और भैया कमरे में गप करने लगे और मैं चला गया मार्केट। बारी थी कलछुल, कड़ाही, तवा, बर्तन खरीदने की। राशन और जरूरी सामान खरीदने की। एक छोटा सा आशियाना बनाने की। मैंने पहुंचते ही खाना बनाने के लिए सिमित जरूरी संसाधनों को खरीदा। इसमें भी बड़ा दिमाग लगाना पड़ता है। क्या लेना है, कितना लेना है, क्या नहीं लेने से काम चल जायेगा। खैर मुन्ना भैया इंद्रापुरम में ही रहते। इंद्रापुरम, नोएडा के पास है। उन्होंने कुछ बर्तन घर से भी ले लिया था। अब स्टार होटल के एक रूम किचन में हम तीन लोगों ने अपना आशियाना बना लिया था। मुन्ना भैया भी सब काम धाम छोड़ हमारे साथ ही शिफ्ट हो गये थे। यह बहुत बड़ा सपोर्ट था मेरे लिए। पापा की शुरू से ही आदत रही, वह शाम को ही डिनर कर लिया करते। उस दिन रांची से ही हमने खाना पैक करवा लिया था, तो हमने वही खाया। उस दिन खाना बनाना नहीं पड़ा। हां सुबह के लिए मैंने कुछ हरी सब्जी खरीद ली थी और फल ले लिये थे, क्यूोंकि सुबह 10 बज कर 30 मिनट पर हमें डॉक्टर के पास पहुंचना था।

    पापा ने अपना पहला कीमो वाक करते-करते लिया
    तारीख 9 नवंबर 2024, सुबह। मैं पापा के लिए जूस बनाने में लग गया। पापा का जूस आठ-दस चीजों को मिलाकर बनता। मुन्ना भैया भी जल्दी उठ गये। उन्होंने भिंडी काटनी शुरू की। जूस बनाने के बाद, मैं मड़वा का आटा सानने में व्यस्त हो गया। पापा की डाइट से अब गेंहू को मैंने बंद कर दिया था। शुगर तो वह पहले भी नहीं लेते थे। अब पहली बार मैं मड़वा सान रहा था। गेंहू का आटा तो कई बार सान चुका था। लेकिन मड़वा सानने का तरीका थोड़ा अलग होता है। गर्म पानी में उसे सानते हैं। मड़वा का आटा सानने में काफी संघर्ष करना पड़ता। उस दिन पापा को मड़वा की रोटी, दाल और भिंडी का भुजिया खिलाया। उसके पहले पापा ने जूस पिया था और सलाद भी खाया था। अब हम तैयार थे पापा की पहली कीमो के लिए। 10 बजे हम होटल से निकले और 10 बज कर 15 मिनट पर अस्पताल पहुंच गये। अस्पताल में घुसते ऐसा लगा मानो शहर के सारे बीमार यहीं पहुंच चुके हों। तरह-तरह के रोगी दिखने लगे। देसी-विदेशी। लिफ्ट में जाने के लिए भी लोग संघर्ष करते। लंबी लाइन। वैसे अस्पताल की व्यवस्था बढ़ियां थीं। जब हम टेंथ फ्लोर पर पहुंचे। लिफ्ट से निकलते ही कैंसर मरीजों का रेला लगा था। किसी के बाल उड़े हुए थे। कोई थका हुआ दीखता। कोई व्हील चेयर पर कराह रहा। दो-तीन छोटे बच्चे उम्र करीब तीन से चार साल। कुछ महिलों ने विग पहन रखी थी, समझ मैं आ रहा था कि कीमोथेरेपी चल रही है। अपने आस-पास इतने मरीजों को देखकर मैं और पापा शांत थे। समझा कि यहां तो हर कोई परेशान है। सो हम अब अपने नंबर आने का इंतजार करने लगे। ठीक 10 बज कर 50 मिनट पर हमारा नंबर भी आ गया। डॉक्टर ने पापा से पूछा, आप ठीक हैं। पापा ने कहा हां ठीक हूं। डॉक्टर ने कहा आपको दो दिनों के लिए एडमिट करेंगे, उसके बाद डिस्चार्ज कर देंगे। फर्स्ट टाइम कीमो होना है, इसलिए दो दिन रखेंगे। उसके बाद पापा एडमिट हुए। सिंगल प्राइवेट रूम लिया गया। मैं और पापा रूम में बैठे। पापा बोले रूम अच्छा बनाया है। मैंने अस्पताल के कमरे की पर्दों को हटा सोफे पर बैठ गया। कीमो और इम्मूनोथेरपी एक साथ होनी थी। कीमो की तैयारी शुरू हुई। पापा के हाथों में कैनुला डाला गया। कैनुला डालते वक्त पापा को थोड़ी चुभन हुई। पापा अब तैयार थे कीमो लेने के लिए। पापा ने अपना पहला कीमो वॉक करते-करते ही लिया। थोड़ी देर बाद सोफे पर बैठ कर फोन पर इधर-उधर बात भी कर रहे थे। मैंने पापा से पूछा कि कोई दिक्कत तो नहीं हो रही है न। उन्होंने कहा नहीं। मैंने कहा अब आप लेट जाते, तब वह लेटे। करीब तीन घंटे में पापा का पहला कीमो सेशन कंपलीट हुआ। चूंकि पापा का यह पहला कीमो था, तो मैं जरा ज्यादा ही सावधान था। खैर कीमो खत्म हुआ। डॉक्टर राउंड पर आये, पूछा सर सब ठीक है न। पापा ने कहा जी सब ठीक है। डॉक्टर ने कहा कि हम लोग आपको एक दिन और रखेंगे, चूंकि यह पहला कीमो है, तो जरा देखेंगे कि बॉडी कैसे रियेक्ट करती है। खैर दो दिन के बाद पापा डिस्चार्ज हुए। डिस्चार्ज नोट में कई इंस्ट्रक्शंस लिखे हुए थे। उसमें डब्लूबीसी इंजेक्शन के बारे में भी लिखा हुआ था। तीन बार एक दिन छोड़कर डब्लूबीसी की इंजेक्शन लगनी थी, सो हमने सोचा इसे कंपलीट होने में एक हफ्ता लगेगा, तो इस बार गुरुग्राम में ही रुक जाते हैं। उसके बाद ही रांची जायेंगे। सोच यह भी थी कि अगर कीमो का कोई दुष्प्रभाव भी होता है, तो तुरंत अस्पताल मूव कर सकते।

    पटल, नेनुआ, दाल, चटनी और मड़ुआ-जौ की आठ-दस रोटियां, वह भी गोल
    डिस्चार्ज के बाद शाम को हम आ गये स्टार होटल। डिस्चार्ज लेने से बड़ा संघर्ष कुछ और नहीं। भागम-भाग हो जाता है। मैंने पापा से पूछा कि आप क्या खायेंगे। पापा ने कहा कि पटल का भुजिया और मूंग की दाल बना दो। लेकिन सबसे पहले एक दो गिलास पानी पिलाओ। पानी पिलाने के बाद मैं बाजार चला गया। मुन्ना भैया को बोला आप पापा को देखिये। मैंने बाजार से दाल, पटल और कुछ हरी सब्जी भी ले ली। कद्दू, नेनुआ पापा को पसंद है, वह भी ले लिया। बाजार में कई सारे विदेशी मरीज भी दिखते, जो बाहर से आये हुए थे इलाज कराने। बाजार में ही सर्विस रोड पर एक गुरुद्वारा था और ठीक बगल में बजरंग बली का मंदिर। मैं वहां भी हो लिया और प्रार्थना कर तुरंत होटल भागा। उसके बाद पटल का भुजिया, नेनुआ की सब्जी, दाल, मिर्च-लहसुन-धनिया पत्ते की चटनी और मल्टी ग्रेंस आटे की आठ-दस रोटियां बनायीं। लिखने और पढ़ने में यह जितना आसान है लड़कों के लिए शायद उतना आसान नहीं है। रोटी बनाने में बड़ी कलाकारी करनी पड़ती। गोल जो बनाता। वह भी मड़वा-जौ मिक्स। पापा ने उस शाम बड़े चाव से खाना खाया। उन्हें अस्पताल का खाना बिलकुल पसंद नहीं आता। खाना खा कर पापा आराम से लेट गये और टीवी देखने लगे। मैंने और मुन्ना भैया ने भी खाना खाया और गप करने लगे। करीब सात बजे पापा को हिचकी आनी शुरू हुई। मैंने पापा को पानी पिलाया। लेकिन हिचकी जो थी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे तक हिचकी रुकी ही नहीं। फिर मुझे लगा कहीं कोई दिक्कत वाली बात तो नहीं। मैंने तुरंत हॉस्पिटल के इमरजेंसी नंबर पर फोन घुमाया। उन्होंने एक दवा का नाम बताया, मैं मेडिकल गया और दवा ले आया। दवा खाने के बाद आधे घंटे में पापा को आराम हो गया। पापा ने कहा कि बेटा पैर सहला दो सो जाऊंगा। मैंने पापा के पैरों में तेल लगाया और पापा अच्छे से सो गये। सुबह हुई, मुझे जल्दी उठना पड़ता, पापा के लिए नाश्ता बनाया। सुबह का नाश्ता करने के बाद हम अस्पताल गये, पापा को डब्लूबीसी का इंजेक्शन लगना था। इंजेक्शन लगने से आधे घंटे पहले पापा को क्रोसिन खा कर जाना था। खैर पेट में इंजेक्शन लगा। उसके बाद हम घर आ गये। फिलहाल इस दौरान कीमो का कोई असर पापा पर नहीं दिख रहा था। सिर्फ हिचकी आयी थी। वह भी चली गयी थी।

    रोशन तनेजा सर से जो एक्टिंग सीखी, सब पापा पर इस्तेमाल किया
    डब्लूबीसी का इंजेक्शन लगने के बाद रात में पापा को सुस्ती होने लगी। पापा ने कहा खाने का मन नहीं कर रहा है। मैंने कहा बताइये न क्या खायेंगे। खाना तो पड़ेगा न पापा। मुझे आइडिया आया कि पापा कि पसंदीदा कुछ बनाया जाये। मैंने तुरंत पूछ लिया दल पिट्ठी बना दूं। उन्होंने कहा हां बनाया जा सकता है। फिर मैंने आंटा सानना शुरू किया। बड़े साइज की रोटी बेली और स्टील का छोटा ग्लास उठाया, कटाई करना शुरू किया। छोटे-छोटे गोलनुमा टुकड़ों से मैंने पिठ्ठों का निर्माण किया। यह पहली बार था, जब मैंने खुद से दलपिठ्ठी बनायी। जैसा मम्मी बनाती थीं, वैसा ही बना। चटपटा। पापा ने बड़े चाव से दो-दो बार लेकर दलपिठ्ठी खाया। मैंने भी सोचा भूख तो पापा को एक की भी नहीं थी दो-दो प्लेट खा लिये। लगता है अच्छा बना था। उसके बाद पापा फोन पर बात करने लगे। रोज की तरह मैंने उनके पैरों में तेल लगाया, मालिश की और पापा की नाक बजने लग जाती। पापा की नाक बजना सुकून देने वाला पल होता। सुबह हुई लेकिन यह सुबह सामन्य सुबह जैसी नहीं थी। पापा का शरीर दर्द से टूट रहा था। बहुत ज्यादा थकान और सुस्ती महसूस हो रही थी। इंजेक्शन का असर हो रहा था। मैंने तुरंत अस्पताल के इमरजेंसी नंबर पर फोन किया। मैंने बताया कि ऐसा-ऐसा हो रहा है। उन्होंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है। एक पैरासिटामोल दिया जा सकता है। यह सिलसिला तब-तक चला, जब-तक डब्लूबीसी का इंजेक्शन लगना बंद नहीं हुआ। इस दौरान पापा को खिलाने-पिलाने में बड़ी मस्सकत करनी पड़ती। फिर मुझे अपना एक्टिंग परफॉरमेंस दिखाना पड़ता। पापा से इधर-उधर की बात करते-करते जूस का गिलास सामने रखता और बातों-बातों में उनकी हाथों में पकड़ा, उन्हें पीला देता। पापा जब भी खाने में आनाकानी करते, तो उनकी पसंदीदा डिश बना, उनके सामने बड़े चाव के साथ खाने लगता, फिर उसमें से पापा भी मांग कर खा लेते। हर बार मैं यही करता। रोशन तनेजा सर मेरे एक्टिंग के गुरु रह चुके थे, मुंबई में सीखी सारी कला अब मैं पापा के ऊपर अप्लाई कर रहा था।

     

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