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    Home»विशेष»जंगल से संसद तक झारखंड की आवाज बने शिबू सोरेन
    विशेष

    जंगल से संसद तक झारखंड की आवाज बने शिबू सोरेन

    shivam kumarBy shivam kumarAugust 6, 2025No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    अपने खून-पसीने से लिखी झारखंड आंदोलन की बेमिसाल कहानी
    इसलिए शिबू सोरेन को झारखंड का ‘नेल्सन मंडेला’ भी कहा जाता है
    झारखंड की सियासत में उनकी कमी को भावी पीढ़ियां महसूस करेंगी

    भारत के राजनीतिक इतिहास में झारखंड आंदोलन दरअसल आदिवासी पहचान की वह कहानी है, जिसे दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने खून-पसीने से लिखा। 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने बचपन में साहूकारों की लूट देखी, खनन कंपनियों का लालच देखा। 10 बार सांसद, तीन बार मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री और उससे भी बढ़ कर उन्होंने तीर-कमान से नहीं, बल्कि संघर्ष और अपनी सियासी चालों से आदिवासियों को उनका हक दिलाया। अलग झारखंड का सपना देखने वाले कई लोग थे, पर उसे सच करने वाला सिर्फ एक नाम था—दिशोम गुरु। लोग कहते हैं, गुरुजी सिर्फ नेता नहीं थे, आंदोलन की आत्मा थे। उनके समर्थकों के लिए वे एक विचार थे, एक प्रतिरोध की पहचान। नेमरा के छोटे से घर से निकल कर जंगलों के रास्ते लोकतंत्र के बियाबान मुंडेरों तक का शिबू सोरेन का सफर कहीं से भी आसान नहीं रहा और होना भी नहीं था। किसी आंदोलन को कुछ समय तक नेतृत्व देना आसान होता है, लेकिन किसी आंदोलन को तीन दशक तक नेतृत्व देना और फिर किसी औघड़ की तरह सब कुछ त्याग कर उसी जनता के पास लौट जाना बेहद कठिन होता है। दुनिया के राजनीतिक इतिहास में ऐसा करनेवाले तीन ही शख्स हुए हैं। महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला और शिबू सोरेन। इसलिए शिबू सोरेन को ‘झारखंड का नेल्सन मंडेला’ भी कहा जाता है। शिबू सोरेन ने झारखंड आंदोलन को वह आवाज दी, जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। आदिवासी चेतना को उन्होंने न केवल जगाया, बल्कि उसे उसका अधिकार दिलाया। इसलिए आज दुनिया भर के आदिवासी झारखंड के आदिवासियों से प्रेरणा लेते हैं। शिबू सोरेन के व्यक्तित्व के इस असाधारण पहलू के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    शिबू सोरेन ‘झारखंड के नेल्सन मंडेला’ और भारत वर्ष में आदिवासी समुदाय के सबसे बड़े नेता के रूप में याद किये जायेंगे। उन्होंने झारखंड राज्य की परिकल्पना की। झारखंडी संस्कृति, अस्मिता और पहचान को राजनीतिक धरातल पर उतारा। झारखंड के राजनीति क्षितिज पर उभरे शिबू सोरेन की संघर्ष गाथा एक छोटे से गांव नेमरा के अत्याचारी और आततायी सूदखोरों और महाजनों के शोषण, उत्पीड़न और दोहन के विरोध से शुरू हुई। वह चिंगारी, जो नितांत स्थानीय स्तर पर अन्याय और शोषण के खिलाफ प्रस्फुटित हुई। प्रतिकूलताओं से लड़ने-जूझने और सामाजिक, आर्थिक समस्याओं से टकराने का जज्बा बालक शिबचरण मांझी को काफी अल्प आयु में प्राप्त हुआ, जब उनके शिक्षक पिता सोबरन मांझी की हत्या समाज के दबंग ठेकेदार, सूदखोर और महाजनों द्वारा कर दी गयी। संघर्ष के दिनों में बालक शिबचरण मांझी का नाम शिबू सोरेन में बदल गया।

    छोटी शुरूआत, लेकिन सिस्टम को बड़ी चुनौती
    भारतीय राजनीति में झारखंड आंदोलन दरअसल आदिवासी पहचान की वह कहानी है, जिसे दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने अपने खून-पसीने से लिखा। 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने बचपन में साहूकारों की लूट देखी, खनन कंपनियों का लालच देखा। 1969 का अकाल, जब सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था और आदिवासी भूख से मर रहे थे, ने उनके भीतर ज्वाला भर दी। उन्होंने कसम खायी—जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी जायेगी। नेमरा (रामगढ़) की गलियों से उठी उनकी आवाज ने 1960-70 के दशक में आवाम को झकझोरा। जब धनकटनी आंदोलन शुरू हुआ, तब आदिवासी महिलाएं खेतों से धान काट कर ले जाती थीं, पुरुष तीर-कमान लिये पहरे पर खड़े रहते थे। पर सिस्टम भी था—सरेंडर, गिरफ्तारी, गिरफ्तारी वारंट तक जारी। शिबू सोरेन की शुरूआत छोटी थी, पर असर बड़ा। धान जब्ती आंदोलन से शिबू सुर्खियों में आये। साहूकारों के गोदामों से अनाज निकालना, तीर-कमान लिये आदिवासी पहरेदारों का पहरा—यह केवल विरोध नहीं था, यह सिस्टम को सीधी चुनौती थी।

    ऐसे बनी नयी पहचान
    एक दिन शिबू सोरेन पारसनाथ के जंगलों में छिप गये। वहीं से आंदोलन चला—‘बाहरी’ लोगों को निकालो, कझारखंड को शोषण से मुक्त करोत। सपनों के इस आंदोलन ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की पहचान दी। 1973 में उन्होंने एके राय और बिनोद बिहारी महतो के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा बनायी। उस समय उनके नारे गूंजते थे ‘हमारी जमीन हमारी है, कोई दीकु (बाहरी) नहीं छीन सकता।’ इसके साथ ही झारखंड आंदोलन तेज होने लगा।

    झामुमो की स्थापना की और उसे जिंदा रखा
    उस समय झामुमो का बनना कोई आसान बात नहीं थी। राजनीतिक विरोध, विभाजन और मानसिक खींचतान के बीच उन्होंने पार्टी को जीवंत रखा। तब लालू यादव ने 1998 में कहा था, झारखंड मेरी लाश पर ही बनेगा। लेकिन शिबू सोरेन ने सभी विरोधों को पार करते हुए, कांग्रेस, राजद और भाजपा से गठबंधन बनाया और बातचीत से राज्य का मामला संसद तक पहुंचाया।

    राजनीति के शतरंज में माहिर खिलाड़ी
    शिबू सोरेन ने समझ लिया था कि झारखंड का सपना सिर्फ जंगलों में धरना देकर पूरा नहीं होगा। इसके लिए दिल्ली की सत्ता के दरवाजे खोलने होंगे। और यही उन्होंने किया। 1989 में वीपी सिंह की सरकार को समर्थन, 1993 में नरसिंह राव को अविश्वास मत से बचाना, फिर 1999 में वाजपेयी की एनडीए सरकार से डील—शिबू हर बार सही मोड़ पर सही दांव खेलते रहे। कहा जाता है कि गुरुजी का भरोसा सिर्फ लिखित वादों पर था, शब्दों पर नहीं। और हुआ भी वही। 15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड बना। जयपाल सिंह मुंडा ने आंदोलन की शुरूआत की थी, लेकिन उसे मंजिÞल तक पहुंचाने वाला नाम था शिबू सोरेन।

    कॉरपोरेट से जंग, जीती भी, हारी भी
    शिबू सोरेन की राजनीति का मूल था—आदिवासी पहचान और जल-जंगल-जमीन की रक्षा। उन्होंने सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध का मंच बनाया। खदान मजदूरों को संगठित किया और खनन कंपनियों की नाक में दम किया। उनकी पहल पर पेसा कानून आया, जिसने ग्राम सभाओं को जमीन पर फैसला लेने का अधिकार दिया। 2006 का वन अधिकार कानून भी उनकी जिद का नतीजा था। सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध-अवसर में बदला, कंपनियों की चौकी को बाधित किया। लेकिन फिर भी व्यापार-शक्ति रास्ते में आयी कॉरपोरेट का कॉकस नहीं टूटा। खनिज संपदा पर कंपनियों की पकड़ कायम रही। झारखंड से अरबों का कोयला और लौह अयस्क दिल्ली तक गया, पर गांवों तक सिर्फ गरीबी पहुंची। यही विडंबना है। झारखंड अलग राज्य तो बना, पहचान मिली, पर आर्थिक न्याय अब भी अधूरा है।

    चिरूडीह कांड ने बनाया महानायक
    संताल परगना का चिरूडीह कांड संथाल विद्रोह की ही एक क्रांति की अभिव्यक्ति था। इसी के बाद शिबू सोरेन झारखंड आंदोलन के महानायक बन गये। 23 जनवरी 1975 को चिरूडीह कांड हुआ, जिसके बाद शिबू सोरेन ने जो विद्रोह का बिगुल बजाया, उसका नतीजा है कि संतालों की जमीन महाजनों के कब्जे से मुक्त हो गयी। दो फरवरी 1979 को दुमका में पहली प्रमंडलीय स्तर की रैली आयोजित की गयी। इस रैली में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने स्वयं दुमका आकर शिबू सोरेन के साथ मंच साझा किया। कर्पूरी ठाकुर ने अपने संबोधन में शिबू सोरेन को आदिवासियों का महान नेता कहा था।

    मुकदमे, सजा और जनता का अटूट विश्वास
    दिशोम गुरु का सफर सियासत और मुकदमों की सफेद-स्याह परछाइयों और विवादों से भरा रहा। 975 में बाहरी-विरोधी अभियान, जिसमें 11 मौतें हुईं। उन पर हत्या का आरोप लगा। 1993 के अविश्वास मत में रिश्वत का आरोप, 1994 में उनके निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या का मामला—2006 में सजा हुई, फिर 2007 में बरी हुए। आरोप जितने भी लगे, शिबू सोरेन बरी हो गये। फिर भी जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जेल से निकल कर भी चुनाव जीते। तीन बार मुख्यमंत्री बने। दस बार सांसद रहे। पार्टी के एक नेता कहते हैं—एक आदिवासी जब खड़ा होता है, तो उसे राजनीति में फंसाया भी जाता है। हेमंत सोरेन को भी जेल में डाला गया। पर क्या साबित हुआ? जनता अब इन चालों को अच्छी तरह समझने लगी है। शिबू सोरेन पर मुकदमे, सजा और विवादों का बोझ था, पर जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा। उनके योगदान को लोग याद करते हैं। उन्होंने झारखंड का सपना रखा, आदिवासी पहचान को राष्ट्रीय विमर्श में रखा और सबसे बड़ी बात— कॉरपोरेट पावर को चुनौती दी। आज के दौर में विकास की जो रफ्तार है, वह आर्थिक अधिकारों के सवाल को और गहरा कर देती है। क्या राज्य की खनिज संपदा उसी जनता को लाभान्वित कर पायेगी, जिसने इसे जन्म दिया? गुरुजी चले गये, पर सवाल वहीं हैं।

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