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    Home»विशेष»जब पूरा शहर पटाखों के धमाकों से गूंज रहा था, मैं, पापा और एक दिया कमरे में खामोश थे
    विशेष

    जब पूरा शहर पटाखों के धमाकों से गूंज रहा था, मैं, पापा और एक दिया कमरे में खामोश थे

    shivam kumarBy shivam kumarAugust 26, 2025No Comments15 Mins Read
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    बेटा हफनी बढ़ रही है…
    तारीख 17 अक्टूबर 2024, मेरे पिता हरिनारायण सिंह जी रोज की तरह मॉर्निंग वॉक कर घर आये। पापा रोजाना करीब आठ से दस किलोमीटर वॉक किया करते। उसके बाद करीब 40 मिनट वह योगा भी करते। मैं अपने कमरे से निकल कर पापा से कुछ बातचीत करने के लिए आया। रोज सुबह सब परिवार एक साथ बैठकर चाय या काढ़ा पीते हैं। नाश्ता भी साथ ही करते। पापा ने उस दिन योगा नहीं किया। वह वॉक से आकर अपना पसीना सफेद गमछा से पोछते हुए बोले कि बेटा कुछ दिनों से मुझे ज्यादा हफनी महसूस हो रही है। मैंने कहा कि पापा आप दस किलोमीटर वाक करते हैं, दो-तीन तल्ला सीढ़ी भी चढ़ते-उतरते हैं, उसके बाद योगा भी करते हैं, इसलिए हफनी ज्यादा हो रही होगी। इसे घटाना चाहिए, आप ज्यादा से ज्यादा तीन से चार किलोमीटर ही वॉक किया करें। उन्होंने फिर कहा कि नहीं यह कोई सामान्य हफनी नहीं लग रही है, एक बार मुझे डॉक्टर से दिखा दो। देर न करते हुए हम लोग पास के सैमफोर्ड अस्पताल चले गये। वहां फिजीशियन ने पापा का चेकअप किया। डॉक्टर ने आला लगाया और पापा की ब्रीदिंग चेक की। डॉक्टर के चेहरे का एक्सप्रेशन अचानक बदला। उनकी आंखों का भाव अचानक से बदल गया। डॉक्टर ने कहा कि एक एक्स-रे करना पड़ेगा। हमने उसी वक्त वहीं एक्स-रे कराया। डॉक्टर ने रिपोर्ट देखी और कहा कि लंग्स में पानी भरा हुआ है। फिर उन्होंने पापा को कहा कि सर अभी आप घर जायें, चिंता की बात नहीं है। सीनियर डॉक्टर से कंसल्ट करके ट्रीटमेंट शुरू किया जा सकता है। लेकिन डॉक्टर ने मुझे हल्का इशारा करते हुए रुकने के लिए कहा। पापा को मैंने कहा कि आप दो मिनट बाहर बैठिये। मैं दवा लिखवा लेता हूं और किस डॉक्टर से संपर्क करना है, बात कर लेता हूं।

    मुझे कुछ संदिग्ध सा दिख रहा: डॉक्टर
    मैं फिर से डॉक्टर के केबिन में गया। डॉक्टर ने कहा कि मुझे कुछ संदिग्ध सा दिख रहा है। मुझे लगता है आपको देर न करते हुए कोई निर्णय लेना चाहिए। हो सके तो आप दिल्ली या मुंबई में बड़े डॉक्टर से संपर्क करें। मुझे लगता है कि आपके पिता को कैंसर है। मैं पूरी तरीके से नहीं कह सकता, लेकिन आपको देरी नहीं करनी चाहिए। हम घर वापस आ गये। मैंने पापा से कहा कि हमें दिल्ली या मुंबई के बड़े अस्पताल में चलना चाहिए। वहीं से इलाज कराना उचित रहेगा। पापा ने कहा कि एक बार डॉक्टर देबुका जी के यहां चलते हैं। चूंकि डॉक्टर देबुका पापा के बहुत अच्छे मित्र हैं और उनकी पत्नी डॉक्टर रेखा देबुका मेरी मां की घनिष्ट मित्रों में से एक हैं। पापा ने कहा कि उनसे भी कुछ सलाह लेनी है, क्योंकि मुझे रिबकेज के पास भी थोड़ा दर्द महसूस होता है। मैंने पूछा कबसे। उन्होंने कहा कि पहले चलो। हम डॉक्टर देबुका जी के यहां गये। उन्होंने एक्सरे रिपोर्ट देखी। फिर पापा ने कहा कि कुछ दिन पहले वह पास के शिव मंदिर में सीढ़ी से फिसल गये थे, लेकिन तुरंत संभल भी गये, लेकिन रिबकेज के आस-पास थोड़ा दर्द तभी से महसूस हो रहा है। मैंने पापा कि तरफ देखा और मन में सवाल किया कि इसका जिक्र तो पापा ने कभी नहीं किया। तभी देबुका अंकल ने पापा को कहा कि सर एक दो टेस्ट कल सुबह ही करवा लेना चाहिए, फिर हमें निर्णय लेना चाहिए, अभी रात होने को है, रेडियोलॉजी बंद हो गया होगा। कल सुबह आप लोग रेडियोलॉजी जाकर एक-दो टेस्ट करवा लीजिये। मैंने लिख दिया है। सुबह होते ही हम रेडियोलॉजी सेंटर पहुंच स्पाइन और सिटी चेस्ट करवाया।

    रिपोर्ट देख शॉक्ड हो गया
    मैं जब रिपोर्ट लेने गया और पढ़ा, तो मैं शॉक्ड हो गया। मैं समझ चुका था कि पापा को कैंसर हुआ है और ज्यादा फैला हुआ है। लेकिन मैं नर्वस नहीं हुआ। खुद को संभाला। रिपोर्ट लेकर मैं सीधे देबुका अंकल से मिलने चला गया। अंकल ने रिपोर्ट देखी और बताया कि मुझे तो कंफर्म कैंसर ही लग रहा है। मुझे लगता है कि आप लोगों को जल्द एम्स जाना चाहिए। थोड़ी देर बाद पापा भी डॉक्टर देबुका के यहां पहुंच गये। मेरा छोटा भाई राहुल उन्हें लेकर वहां पहुंचा। देबुका अंकल ने पापा को कहा कि सर मुझे लगता है कि आपको इस रिपोर्ट की जानकारी होनी चाहिए। पापा ने कहा कि कुछ सीरियस तो है, यह मैं महसूस कर सकता हूं। उन्होंने पापा को कहा कि सर मुझे लगता है कि आप जितनी जल्दी हो एम्स चले जायें। वहां से इलाज शुरू करवायें। पापा ने कहा कि खुल कर बताइये न कि हुआ क्या है मुझे। उन्होंने कहा कि सर मुझे लगता है कि कैंसर है। लेकिन घबराने कि बात नहीं है, आजकल इसका इलाज आसान हो गया है। पापा ने जब सुना तो कोई रिएक्शन नहीं दिया। पापा मुस्कुराये और बोले कि कोई बात नहीं, अब जो है, उससे लड़ना ही है।
    दिल्ली रवाना
    जब एम्स की बारी आयी, तो मैंने कहा कि संजय सेठ जी से बात करनी चाहिए। पापा ने कहा ठीक है बात करो। मैंने उन्हें कॉल किया कि अंकल आप कहा हैं, मैं आपसे मिलना चाहता हूं। चुनावी माहौल था। प्रचार अभियान चरम पर था। उन्होंने कहा कि बेटा शाम को मैं घर पर मिलूंगा आप वहीं आ जाना। मैं, पापा और मेरे चाचा जी उनसे मिलने उनके आवास पहुंच गये। पापा को देखते ही संजय सेठ जी ने कहा कि भैया आप क्यों आ गये, मैं ही आ गया होता। पापा ने कहा कि क्या मैं आपसे मिलने नहीं आ सकता। संजय सेठ जी ने कहा कि भैया आपका घर है। आप कभी भी आ सकते हैं। संजय सेठ जी से मैंने पूरी बात बतायी और कहा कि अंकल एम्स से ट्रीटमेंट करवाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि मैं लेटर बनवा देता हूं, लेकिन भैया एम्स से बेटर मेदांता रहेगा। वहां के चेयरमैन त्रेहान जी मेरे परिचित भी हैं। एम्स में बहुत जद्दोजहद भी रहती है। मेदांता भी अच्छा आॅप्शन है। हम अगले दिन सुबह दिल्ली निकल गये। चूंकि सरकारी संस्थानों में सांसदों के लेटर का अपना महत्व होता है। संजय सेठ जी के दिल्ली आॅफिस से लेटर लेकर हम पहुंच गये एम्स। यानि 20 तारीख को। इसी बीच मैं रांची के एक बड़े कैंसर स्पेशलिस्ट के संपर्क में भी था। उन्होंने बड़ी मदद भी की। मैं उन्हें रिपोर्ट भेज चुका था। फोन पर बात भी हो गयी थी। उन्होंने मुझे बता दिया था कि बीमारी बहुत गंभीर है और पापा को फोर्थ स्टेज लंग कैंसर है। उन्होंने एक निर्धारित समय भी बतला दिया था। यह बात मैंने अपने अंदर रखी। लेकिन मैंने पापा को इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया। खैर लेटर लेकर हम एम्स गये। कड़ी धूप थी। मैंने पापा को छांव में बिठाया। वहां लेटर दिया, लेकिन वहां की एक्टिवनेस देख कर लगा कि एम्स में काफी समय लग सकता है। काफी भटकना पड़ेगा। हमारे पास समय कम था। चूंकि लंग्स में पानी भरा हुआ था और मुझे लगा कि देर करना उचित नहीं रहेगा। फिर निर्णय लिया गया कि मेदांता गुरुग्राम ही सही रहेगा। सो हमने कैब किया और हम तुरंत मेदांता गुरुग्राम की ओर चल दिये।

    सुई पापा की नसों को छेद रही थी
    मेदांता पहुंचते ही वहां सबसे पहले हमने पल्मोनोलॉजिस्ट को दिखाया। डॉक्टर ने पहले हुए टेस्ट की रिपोर्ट्स को देखा। कहा कि प्लूरल करना होगा, यानी लंग्स से पानी निकलना होगा। इसके बाद एक युवा डॉक्टर आये। वह इसी में स्पेशलिस्ट थे। वह रायपुर के थे। पापा ने उनसे पूछा कि पानी निकालते वक्त दर्द तो नहीं होगा। डॉक्टर ने कहा कि सर आपको पता भी नहीं चलेगा। पापा को एक कमरे में ले जाया गया। प्रोसेस शुरू हुआ। मैंने किसी बहाने से उस कमरे में जाने कि कोशिश की। मुझे पता था कि पापा नर्वस होंगे। मैं पहुंच गया पापा के पास और पूछा कोई दिक्कत तो नहीं है न पापा। उन्होंने कहा नहीं बेटा सब ठीक है। मैंने कहा कि मैं बाहर ही हूं। आप टेंशन मत लीजियेगा। करीब 800 एमएल पानी निकाला गया। उसके बाद उस फ्लूइड को टेस्ट के लिए भेजा गया। उसी दिन पापा का ब्लड टेस्ट भी किया गया। पहली बार पापा की नसों में से खून लेते हुए देखा। पापा मेरी ओर देखे। जब सुई उनकी नसों को छेद रही थी तो वह हल्का सिसके। उन्होंने मेरी तरफ देखा। मेरे लिए यह पल काफी कष्टदायक था। मैंने आज तक पापा को ऐसे नहीं देखा था। लेकिन अभी तो यह शुरूआत मात्र थी। मुझे क्या पता था कि मुझे और पापा को अभी बहुत कुछ देखना-सहना था। पापा अपनी पूरी जिंदगी में सिर्फ एक बार अस्पताल का मुंह देखे थे, जब उन्होंने अपना गॉल ब्लाडर का आॅपरेशन करवाया था। साल था 2005, पापा उन दिनों हिंदुस्तान अखबार के संपादक हुआ करते थे। तब वह दो दिन के लिए दिल्ली के ही गंगा राम अस्पताल में भर्ती थे। उसके बाद उन्होंने कभी भी अस्पताल का मुंह नहीं देखा। ना ही वह कभी बीमार पड़े, क्योंकि उनका लाइफस्टाइल बहुत ही सादा रहा। साद खाते, सादा जीवन जीते। उनके लिए पत्रकारिता ही उनका जीवन था। उसी में उनके प्राण बसते थे।

    जब मैं मना रहा था कि पापा को टीबी हो कैंसर नहीं
    प्लूरल फ्लूइड से कई टेस्ट किये जा रहे थे। हर दिन एक-दो रिपोर्ट आती। फ्लूइड से टीबी का भी टेस्ट हुआ। लेकिन पापा को टीबी नहीं निकला। उस वक्त सच कहूं तो मैं मना रहा था कि पापा को कैंसर न निकल के टीबी निकल जाये। क्योंकि टीबी का इलाज है, लेकिन कैंसर का इलाज वह भी फोर्थ स्टेज का, कुछ समझ नहीं आ रहा था। यह मेरे लिए ऐसा समय था, जब मुझे लगा कि मुझे कमजोर नहीं होना है। मुझे मजबूती के साथ खड़ा रहना है। कभी-कभी तो लग रहा था कि मैं गिर जाऊंगा। लेकिन अंदर से मैं खुद को कहता पापा को देखना है। हार नहीं माननी है। अभी बहुत लड़ाई लड़नी है। कुछ और रिपोर्ट आये और फ्लूइड से यह पता चल गया कि पापा को कैंसर ही है, क्योंकि उसमें कैंसर पार्टिकल्स दिखे। अब बारी थी पेट सिटी स्कैन की। पापा को कैनुला लगा। नसों में इन्सर्ट किया जाता है। इसके जरिये दवा डाली गयी। फिर पापा ने मेरी ओर देखा। मैं पिता के दर्द को सिर्फ देख सकता था, महसूस कर सकता था, सह तो वही रहे थे। फिर पीने के लिए दो बोतल लिक्विड दिया गया। मीठा था। एक छोटे ठंडे कमरे में पापा को बिठा दिया गया। उस कमरे के आस-पास रेडिएशन का भी खतरा था। मुझे बाहर बैठने को कहा गया। कुछ 10 मिनट बीते होंगे, पता नहीं मुझे आभास हुआ कि पापा मुझे याद कर रहे हैं। मैं सीधे उस कमरे में चला गया। पापा कांप रहे थे। मुझे अंदर से लग रहा था कि पापा को एसी पसंद नहीं है। ऊपर से वह कमरा बहुत चिल्ड था। मैंने तुरंत सिस्टर को कहा कि ये यहां नहीं बैठ पायेंगे, या तो ऐसी बंद करें नहीं तो इन्हे हीटर दीजिये। एसी सेंट्रलाइज्ड था। फिर हीटर का प्रबंध हुआ।

    फोर्थ स्टेज लंग कैंसर कन्फर्म
    उसके बाद पेट सिटी स्कैन हुआ। जब रिपोर्ट आयी, तो पता चला कि पापा का कैंसर फैला हुआ है। पापा कैंसर के आखिरी पड़ाव पर थे, यानि फोर्थ स्टेज लंग कैंसर। रिपोर्ट देखकर डॉक्टर ने पापा को कहा कि चिंता की बात नहीं है, आजकल कैंसर का इलाज बहुत अच्छा हो गया है। टार्गेट बेस्ड इलाज भी संभव है। सो आप बायोप्सी करवा लीजिये। सच कहूं तो मैं बायोप्सी के लिए मन से तैयार नहीं था। कई किस्से सुन चुका था। लेकिन बायोप्सी के बाद ही कैंसर का वैरिएंट और टारगेट पता चलता। सो बायोप्सी करवाना जरूरी हो गया। बायोप्सी के लिए एक तारीख निर्धारित हुई। बायोप्सी वाले दिन पापा ने पूछा कि यह कैसे करते हैं। मैंने उन्हें प्रोसेस बताया। बताते हुए मैं अपनी पीड़ा को कैसे लिखूं पता नहीं। समझा जा सकता है, मैं और पापा कभी अखबार की हेडलाइन डिस्कस करते, आज हम कैंसर के बारे में बात कर रहे थे। खैर पापा को बायोप्सी के लिए ले जाया जाने लगा। अचानक पापा का दाहिना पैर तन गया। पापा ने कहा कि बहुत खिंचाव हो रहा है। मैंने पैर सहलाया, फिर थोड़ी देर में ठीक हो गया और पापा की बायोप्सी हुई।

    पापा रात में कई बार खांसते और मैं रात भर जग कर पापा की पीठ सहलाता
    बायोप्सी की रिपोर्ट आने में एक हफ्ते का वक्त लगना था। इस बीच लंग्स से पानी निकालने के बाद पापा की खांसी बढ़ गयी थी। हूल वाली खांसी आने लगी थी। पापा रात मैं कई बार खांसते। हर खांसी पर मेरा कलेजा मानो बाहर निकल जाता। मैं रात भर जग कर पापा की पीठ को सहलाता। उनके पैरों को दबाता। पीठ दबाने के क्रम में कुछ ऐसे पॉइंट्स की जानकरी हो गयी, जब मैं वहां दबाता तो पापा की खांसी कुछ देर के लिए रुक जाती। उसके बाद मैं यही फार्मूला अप्लाई करता। यह सिलसिला एक हफ्ता चला, जब तक बायोप्सी की रिपोर्ट नहीं आयी। यह एक हफ्ता बहुत ही कठिन था। पता नहीं कितनी रात मैं रोया, पापा का पैर दबाते उनके पैरों पर सो जाता। जोर से रो भी नहीं सकता था, सिसक भी नहीं सकता था, और तो और आंखों में आंसू भी नहीं रख सकता था, क्योंकि अगर मैं टूटता, तो पापा भी टूट जाते।

    जब पापा ने डॉक्टर से पूछा बचने की कोई उम्मीद है या नहीं
    उसके बाद बायोप्सी की जब रिपोर्ट आयी, तो पल्मोनोलॉजिस्ट ने आंकोलॉजिस्ट को रेफर कर दिया। उन्होंने पापा को कहा कि अब यही आपको देखेंगे। हम मेदांता के दसवें तल्ले पर आंकोलॉजी डिपार्टमेंट में गये। घुसते ही वहां बड़े और मोटे अक्षरों में लिखा ‘कैंसर’। पापा की भी नजर उस पर पड़ी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी हमें देखने होंगे। हमने रसीद कटवायी और हमारा नंबर आया, फिर हम आंकोलॉजिस्ट के पास गये। भारत के सबसे बड़े कैंसर स्पेशलिस्ट की टीम के वह डॉक्टर थे। डॉक्टर ने पापा की रिपोर्ट देखी। उन्होंने पापा से पूछा कि आप किस लिए आये हैं, क्या आपको पता है। पापा ने डॉक्टर को कहा, जी मुझे कैंसर है। मुझे पता है। आप खुल कर बात कर सकते हैं। डॉक्टर ने कहा कि सर कैंसर थोड़ा फैला हुआ है। हम ट्रीटमेंट प्लान बनाते हैं। उसके बाद पापा ने डॉक्टर से डायरेक्ट पूछा, बचने की कोई उम्मीद है। डॉक्टर यह सुनकर शॉक्ड हो गये कि कोई मरीज उनसे डायरेक्ट पूछ रहा है कि बचने की कोई उम्मीद है या नहीं। पापा ने कहा जी मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं कि अगर बचने की कोई उम्मीद है, तब तो इलाज कीजिये, नहीं तो मुझे जाने दीजिये। डॉक्टर ने कहा कि सर इलाज संभव है, तभी तो मैं यहां हूं। आप चिंता ना करें। एक हफ्ते के बाद ट्रीटमेंट शुरू करते हैं। पापा ने कहा तब मैं छठ पूजा के बाद ही आता हूं, क्योंकि मैं भी छठ करता हूं और मेरी पत्नी भी करती हैं। उसके बाद का मुझे डेट दे दीजिये। डॉक्टर ने छठ पूजा के बाद का डेट दे दिया।

    दिवाली, धमाकों के बीच, पापा, मैं और एक दिये की खामोशी
    इसी बीच पापा बाहर गये, लेकिन डॉक्टर ने इशारे से मुझे रुकने को कहा। डॉक्टरों का यह इशारा बहुत ही खौफनाक होता है। मैंने मन में कहा कि अब यह भी डरायेंगे क्या। मैं रुका और पूछा, मैं समझ चुका था, डॉक्टर क्या कहने वाले थे। डॉक्टर ने कहा कि हमें टारगेट नहीं मिल पाया है। लेकिन एक और टेस्ट होता है नाम है, गार्डेंट टेस्ट। इसे लिक्विड बॉयोप्सी भी कहते हैं। सैंपल को अमेरिकी लैब में भेजा जाता है। डॉक्टर ने कहा कि इसमें 10 प्रतिशत चांस होता है कि हमें टारगेट मिल पाये। पहले भी कुछ मामलों में यह सफल हो पाया है। टारगेट मिलने के बाद ट्रीटमेंट प्लान आसानी से तैयार किया जा सकता है और इसमें सर्वाइवल रेट ज्यादा होता है। मैंने कहा कि ठीक है, यह टेस्ट हम करवाने को तैयार हैं। टेस्ट काफी कॉस्टली था, इसलिए डॉक्टर ने पूछा कि आप यह टेस्ट करवा पायेंगे या नहीं। मैंने कहा कोई दिक्कत नहीं है, हम टेस्ट करवा लेंगे। उस टेस्ट को हमने करवा लिया। लेकिन उसकी रिपोर्ट 22 दिनों के बाद आनी थी। इस दौरान हमारी दिवाली भी अस्पताल के सामने अपार्टमेंट के एक रूम में मनी। एक कमरा भाड़े पर लिया था। यह पहली दिवाली थी, जब बाहर पटाखों का धमाका हो रहा था, लेकिन हमारा कमरा खामोश था। पापा, मैं और एक दिया। पापा लेटे हुए थे, मैं उनके पैरों को दबाता। मेरी चिंता यह थी कि पटाखों के धुएं के कारण पापा की खांसी कहीं और न बढ़ जाये। खैर रात के बाद सुबह कब हुई, पता भी नहीं चला। मैं पूरी रात पापा का पैर दबाता रहा। पापा की जब नाक बजती, तो मुझे सुकून मिलता कि पापा चैन से सो रहे हैं और मैं उनके पैरों के पास सो जाता। इस दौरान खाने का प्रबंध स्विगी के जरिये ही होता। या कभी-कभी मेरी चचेरी बहन खाना ले आती। अब बारी थी रांची जाने की और उससे पहले एक ऐसा कमरा देखने की, जिसमें किचन भी हो और गैस सिलेंडर भी। मेदांता अस्पताल के पास स्टार होटल मिला। वहां सरदार जी मिले। मैंने बात की कि 15 दिनों के बाद आऊंगा और कमरा लूंगा। रूम मैं किचन भी था, गैस सिलेंडर भी था, फ्रिज भी था और बर्तन भी। मैं अब अपने पिता के लिए विश्व का सबसे बढ़ियां शेफ बनने वाला था।
    इसी कहानी की परत खोलते स्वर्गीय हरिनारायण सिंह के पुत्र और ‘आजाद सिपाही’ के संपादक राकेश सिंह। (आगे पढ़ें, पापा का आखिरी छठ, सूना रहा खरना…)

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