पिछले करीब साढ़े छह साल से देश पर शासन कर रहे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में पहली बार दरार पैदा होती दिख रही है। लोकसभा में कृषि क्षेत्र से संबंधित तीन विधेयकों के पारित होने के विरोध में शिरोमणि अकाली दल ने केंद्रीय कैबिनेट से अपने मंत्री को हटा लिया है। हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा दे दिया है और उसे राष्ट्रपति ने मंजूर भी कर लिया है। यह सही है कि शिरोमणि अकाली दल के एनडीए से अलग होने के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन सियासत में इसके दूरगामी परिणाम जरूर होंगे। भारत में तमाम विकास होने के बावजूद खेती और किसानों का अलग स्थान है और पंजाब जैसे राज्यों में तो सियासत का हर फलसफा खेतों से होकर ही गुजरता है। इसलिए शिरोमणि अकाली दल को खुल कर इन बिलों के विरोध में उतरना पड़ा। एनडीए का सबसे बड़ा घटक होने के नाते भाजपा की यह जिम्मेवारी बनती है कि वह इस बारे में आत्ममंथन करे, क्योंकि कम से कम चार राज्यों में वह अपने सहयोगी दलों के साथ मिल कर सरकार चला रही है और इस तरह के मतभेद उसके सियासी भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। शिरोमणि अकाली दल का विरोध अपनी जगह है और एनडीए में दरार अलग बात है। आखिर क्या हैं कृषि संबंधित ये तीन बिल और इनका एनडीए के भीतर ही विरोध क्यों हो रहा है, इन सवालों के जवाब के साथ इस मुद्दे पर भावी सियासत की संभावनाओं को टटोलती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

छह साल पहले 2014 में जब 16वीं लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश की सत्ता पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का कब्जा हुआ था, तब दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक देश में सियासत के नये युग का सूत्रपात हुआ था। पांच साल तक यह सरकार शान से चली और देश ने उपलब्धियों की नयी ऊंचाइयां हासिल कीं। फिर 2019 में लगातार दूसरी बार ऐतिहासिक बहुमत हासिल कर एनडीए ने सत्ता संभाली और देश की रफ्तार तेज से और तेज होने लगी। लेकिन अब चट्टान की तरह मजबूत दिखनेवाले उसी एनडीए में दरार दिखने लगी है। उसके भीतर से विरोध के स्वर उठने लगे हैं और इसका देश की सियासत पर गहरा असर पड़ना स्वाभाविक है।
एनडीए के भीतर यह दरार उन तीन विधेयकों को लेकर पैदा हुई है, जो कृषि से संबंधित हैं और लोकसभा ने उन्हें विपक्ष के विरोध के बीच पास किया है। इन तीन विधेयकों में कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक, 2020, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 पारित किया है। आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 शामिल हैं। इन विधेयकों के बारे में विपक्ष का कहना है कि इनके जरिये सरकार देश में कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देना चाहती है, जिसका सीधा असर छोटे किसानों पर पड़ेगा। इसके अलावा महंगाई और जमाखोरी भी बढ़ेगी। इन विधेयकों का एनडीए के घटक दल शिरोमणि अकाली दल ने भी विरोध किया है और उसकी मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है। हालांकि शिरोमणि अकाली दल का कहना है कि कैबिनेट से अलग होने के बावजूद मोदी सरकार को पार्टी का समर्थन जारी रहेगा।
लेकिन यह सोचनेवाली बात है कि आखिर इन विधेयकों में ऐसा क्या है, जिनका एनडीए के भीतर ही विरोध हो रहा है। उससे भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर छह साल में पहली बार एनडीए में दरार क्यों पैदा हुई है। दुनिया जानती है कि भारत का पहिया आज भी खेती और किसानों के बूते ही चलता है। इसलिए स्वाभाविक तौर पर सियासत की हर चाल के पीछे किसानों का मुद्दा जुड़ा होता है। पंजाब और हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्यों में कृषि क्षेत्र ही सियासत की दशा-दिशा तय करता है। चूंकि किसान इन विधेयकों को लेकर संशय की स्थिति में हैं, इसलिए शिरोमणि अकाली दल को अपना वजूद बचाये रखने के लिए इन विधेयकों का विरोध करना ही था। इन विधेयकों के विरोध में शिरोमणि अकाली दल को सियासी लाभ भी दिख रहा है। पंजाब के कृषि प्रधान क्षेत्र मालवा में अकाली दल की पकड़ है। अकाली दल को 2022 के विधानसभा चुनाव दिखाई दे रहे हैं। इसलिए विधेयकों का विरोध और हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा उसकी मजबूरी भी बन गयी थी।
पंजाब विधानसभा के चुनावों में अब लगभग डेढ़ साल ही बचा है। ऐसे में शिरोमणि अकाली दल किसानों के एक बड़े वोट बैंक को अपने खिलाफ नहीं करना चाहता है। इसके अलावा बेअदबी और पार्टी में फूट से जूझ रहे अकाली दल के लिए ये विधेयक गले की फांस बन गये थे, क्योंकि अगर पार्टी इनके लिए हामी भरती, तो प्रदेश के बड़े वोट बैंक (किसानों) से उसे हाथ धोना पड़ता। पंजाब में बिल के विरोध में अकाली दल के अलग-अलग नेता हरसिमरत के इस्तीफे को लेकर दो धड़ों में बंटे थे। शिरोमणि अकाली दल के कई सीनियर नेता पार्टी अध्यक्ष से कह चुके थे कि पार्टी का वजूद किसानों को लेकर ही है। इसलिए, अगर केंद्र बात नहीं मानता है तो हरसिमरत को इस्तीफा दे देना चाहिए।
जहां तक एनडीए में दरार का सवाल है, तो सबसे बड़ा घटक दल होने के नाते भाजपा की यह जिम्मेवारी बनती है कि वह इस पर आत्ममंथन करे। उसे यह सोचना होगा कि आखिर उसके सबसे पुराने साथी ने फैसले का विरोध क्यों किया। आज जब देश को सियासी एकता की सबसे अधिक जरूरत है, सत्तारूढ़ गठबंधन में किसी भी दरार का दुनिया भर में गलत संदेश जायेगा। इसलिए इसकी गंभीरता भाजपा को भी समझनी होगी और एनडीए के दूसरे घटक दलों को भी। अकाली दल का विरोध भले ही सियासी चाल हो, लेकिन यह सरकार के फैसले का विरोध है। इसलिए इसका असर कहीं अधिक गहरा होगा। विरोध की यह तपिश हरियाणा और बिहार के साथ मध्यप्रदेश तथा उत्तर-पूर्व तक पहुंच सकती है और फिर यह छोटी सी दरार इतनी चौड़ी हो जायेगी, जिसको पाटना बेहद मुश्किल हो जायेगा। इसलिए भाजपा को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, ताकि समय रहते इस दरार को यहीं पाट दिया जाये। इसी में एनडीए और देश की भलाई है।

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