महात्मा गांधी को भगवान माननेवाले झारखंड के टाना भगत पिछले तीन दिन से आंदोलन पर हैं। उन्होंने अपनी मांगों को पूरा करने के लिए लातेहार के चंदवा के पास रेलवे लाइन को जाम कर दिया है। अपने परिवारों के साथ सत्याग्रह कर रहे इन टाना भगतों ने प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा दिये गये आश्वासन को मानने से इनकार कर दिया है और सीधे मुख्यमंत्री-राज्यपाल से लिखित आश्वासन मांग रहे हैं। पिछले तीन साल से चल रहा टाना भगतों का यह आंदोलन पहली बार इतना व्यापक हुआ है और इसके कारण सीआइसी सेक्शन पर रेल यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अपनी अहिंसावादी प्रवृत्ति और विशिष्ट जीवन शैली के लिए चर्चित टाना भगत समुदाय के लोग आखिर क्यों इतने गुस्से में हैं। जो समुदाय अपना भोजन भी खुद पकाते हैं और तिरंगे झंडे की पूजा करते हैं, उन्हें आंदोलन करने पर क्यों मजबूर होना पड़ा, यह सवाल आज पूरे देश को बेचैन कर रहा है। टाना भगतों का यह आंदोलन स्वतंत्र भारत की उस राजनीतिक खुंटचाल का परिणाम है, जिसके तहत लोगों को उनके वाजिब अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। टाना भगत आजादी के बाद से ही उपेक्षा के शिकार रहे और किसी ने भी इनकी बात सुनने की जरूरत नहीं समझी। इसलिए अब अपने अधिकारों के लिए ये आंदोलन पर उतर आये हैं। टाना भगतों के इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में उनके इतिहास को टटोलती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

बुधवार दो सितंबर की दोपहर को जब लातेहार जिला के चंदवा-टोरी स्थित रेल पटरी पर टाना भगतों का जमावड़ा शुरू हुआ था, किसी ने सोचा भी नहीं था कि सफेद कपड़े पहननेवाले और गांधी टोपी धारण करनेवाले ये लोग अपनी मांगों को लेकर इतने गंभीर हैं। ये टाना भगत अपनी मांगों को पूरा कराने के लिए रेल पटरियों पर धरना पर बैठ गये। रात भर ये लोग वहीं बैठे रहे। दूसरे दिन सुबह जब इस आंदोलन का असर रेल यातायात पर पड़ा, तब प्रशासन की नींद खुली और आनन-फानन में अधिकारियों की टीम आंदोलनरत टाना भगतों से बातचीत करने पहुंची। लेकिन आजादी के बाद से ही लगातार अपनी उपेक्षा से आजिज आ चुके अहिंसावादी टाना भगत इस बार आर-पार की लड़ाई का मन बना चुके हैं। उन्होंने साफ कर दिया कि जब तक राज्यपाल और मुख्यमंत्री के स्तर से उन्हें लिखित आश्वासन नहीं मिलेगा, वे अपना आंदोलन खत्म नहीं करेंगे।
टाना भगतों की मांग है कि उनकी जो जमीन वन भूमि बता कर खनन कंपनियों को दे दी गयी है, उन्हें वापस किया जाये और उनकी जमीन को लगान मुक्त किया जाये। इन दो मांगों को लेकर टाना भगत पिछले तीन साल से आंदोलन कर रहे हैं। वर्ष 2017 में चतरा के टंडवा से शुरू हुआ उनका आंदोलन इस बार निर्णायक मोड़ पर पहुंचता दिख रहा है।
टाना भगत झारखंड का वह समुदाय है, जो आज भी महात्मा गांधी को भगवान मानता है और तिरंगे की पूजा करता है। टाना भगत, यह नाम सुनते हुए आज भले ही माथे पर अनजान होने के बल पड़ते हैं, लेकिन भारत की स्वतंत्रता के इतिहास का एक पूरा काल टाना भगत समुदाय को समर्पित है। महात्मा गांधी स्वाधीनता के जिन आंदोलनों के कारण आज पूजनीय हैं, टाना भगत समुदाय ने अहिंसा के उस पाठ को पहले ही पढ़ लिया था। आदिवासी क्रांति में बिरसा मुंडा काल के कुछ दशक बीतने के बाद टाना भगत समुदाय का समय शुरू होता है, जिसके प्रणेता जतरा उरांव थे। वर्ष 1914 में तत्कालीन बिहार के छोटानागपुर जिले में ब्रिटिश सरकार को जंगलों में रहनेवाले, फल-फूल और पशुधन से गुजारा करने वाली वन्य जनजाति के अहिंसक प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा। सैकड़ों आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की और इससे भयभीत अंग्रेजों ने इनके अगुआ जतरा उरांव भगत को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। लेकिन जतरा उरांव का प्रभाव ऐसा था कि 26 हजार आंदोलनकारियों ने अपना अहिंसक प्रदर्शन और तेज कर दिया था। इस आंदोलन ने ऐसा विस्तृत स्वरूप लिया कि यह क्षेत्रीयता से मुक्त हो गया और फिर देश की मुख्य धारा की क्रांति में शामिल हो गया। साल 1919 में टाना भगतों का आंदोलन महात्मा गांधी के आंदोलनों से जा मिला और अहिंसा की विचारधारा को बड़ा जनसमर्थन मिला। जतरा भगत ने भूत-प्रेत जैसे अंधविश्वासों के खिलाफ सात्विक एवं निडर जीवन की नयी शैली की अवधारणा रखी। उस शैली से शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए नयी चेतना आदिवासी समाज में पनपने लगी। तब आंदोलन का राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट होने लगा। सात्विक जीवन के लिए एक नये पंथ पर चलने वाले हजारों आदिवासी जैसे सामंतों, साहुकारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संगठित ‘अहिंसक सेना’ के सदस्य हो गये और बाद में टाना भगत कहलाये। टाना भगत आंदोलन अपनी अहिंसक नीति के कारण विकसित होता रहा और महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया। उन्होंने आजादी के लिए लड़ रही कांग्रेस से कदम मिलाकर साथ दिया और हर आंदोलन में अपनी बड़ी उपस्थिति हमेशा दर्ज करायी। 1922 के गया कांग्रेस सम्मेलन और 1923 के नागपुर सम्मेलन में बड़ी संख्या में टाना भगत शामिल हुए। आजादी के बाद 1948 में भारत सरकार ने ‘टाना भगत रैयत एग्रीकल्चरल लैंड रेस्टोरेशन एक्ट’ पारित किया। इस अधिनियम में 1913 से 1942 तक की अवधि में अंग्रेज सरकार की ओर से टाना भगतों की नीलाम की गयी जमीन को वापस दिलाने का प्रावधान किया गया था।
जब देश में राजनीति की नयी अवधारणा विकसित हुई, जिसका उद्देश्य जन कल्याण नहीं, बल्कि सत्ता हासिल करना था, टाना भगतों की अनदेखी शुरू हुई। टाना भगतों का यह समुदाय अपने बुने हुए कपड़े पहनता रहा और गांधी जी को अपना भगवान मानता रहा। हर सुबह शंख और तुरही बजा कर तिरंगे की पूजा करने के बाद अपने हाथों पकाया हुआ भोजन करनेवाले टाना भगत सरकारी उपेक्षा को भी नजरअंदाज करते रहे, लेकिन अब उनका धैर्य भी जवाब देने लगा है।
टाना भगतों का यह आंदोलन उनकी वाजिब मांगों को पूरा करने के लिए है। उनकी कोई भी मांग ऐसी नहीं है, जिसके कारण किसी भी राजनीतिक दल को कोई समस्या हो। इसलिए उनकी मांगों को जितनी जल्दी हो सके, पूरा किया जाना चाहिए। वैसे भी देश की आजादी में इतना बड़ा योगदान करनेवाले टाना भगतों के वंशज इस सम्मान के हकदार तो हैं ही कि उनकी बातें सुनी जायें।

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