झारखंड का सिस्टम अपने हिसाब से चलता रहा है। यहां के कुछ अफसर पूरी तरह बेलगाम हो गये हैं। यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि इन कुछ बेपरवाह अफसरों के कारण गाहे-बगाहे सरकार की किरकिरी होती रहती है। झारखंड में कम से कम चार ऐसे मामले हुए हैं, जिनके कारण राज्य सरकार की किरकिरी हुई या उसके सामने नये किस्म की चुनौती आकर खड़ी हो गयी। लोकतंत्र की स्थापित अवधारणा है कि इसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्तंभ के रूप में काम करती है और तीनों के काम तथा जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से विभाजित की गयी हैं। झारखंड की कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारियों के प्रति उतनी गंभीर नहीं है, क्योंकि हाल के दिनों में जो चार मामले सामने आये हैं, उनसे साफ पता चलता है कि कुछ अफसरों ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभायी। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन सिस्टम तो कार्यपालिका से ही चलता है, यह बात ऐसे अफसर नहीं समझते। तभी तो बिना पर्यावरण क्लीयरेंस के विधानसभा और हाइकोर्ट का भवन बनवा दिया, नियोजन नीति में गैर-कानूनी प्रावधान जोड़ दिया और लैंड म्यूटेशन बिल में अपनी चमड़ी बचाने का नियम जोड़ दिया। आखिर इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व की बजाय अफसरों को दोषी क्यों नहीं समझा जाता। सब कुछ नेताओं को ही क्यों झेलना पड़ता है। झारखंड की अफसरशाही के सामने यही सवाल उठाती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
झारखंड सरकार ने लैंड म्यूटेशन बिल को विधानसभा में पेश नहीं करने का फैसला किया, तो विपक्ष ने इसे अपनी जीत बतायी। हाइकोर्ट ने नियोजन नीति को गलत करार दिया, तो इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व की मंशा पर सवाल उठाये गये। विधानसभा और हाइकोर्ट के नये भवन के लिए पर्यावरण क्लीयरेंस नहीं लेने के कारण एनजीटी द्वारा जुर्माना लगाया गया, तो इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया गया। सहायक पुलिसकर्मी आंदोलन कर रहे हैं, तो इसकी जिम्मेदारी सरकार पर डाल दी गयी। लेकिन एक बार भी किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आखिर इतनी गड़बड़ियां हुर्इं कैसे और इनके लिए जिम्मेदार कौन है।
संसदीय लोकतंत्र की मूलभूत अवधारणा यही है कि कोई भी शासन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका नामक स्तंभों की मदद से चलता है। विधायिका नीतियों का निर्धारण करती है, कार्यपालिका उन नीतियों का पालन कराती है और कोई विवाद होने पर न्यायपालिका उसमें पंच की भूमिका निभाती है। बहुत से देश में मीडिया को चौथा स्तंभ कहा जाता है। अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने 30 अप्रैल, 1789 को शपथ लेने के बाद अपने संबोधन में कहा था कि राष्ट्रपति के रूप में मैंने शपथ जरूर ली है, लेकिन अमेरिका का शासन तीन कंधों पर टिका हुआ है। कोई भी कंधा हिलने से देश हिल जायेगा। तब से लेकर आज तक यही माना जाता है कि लोकतंत्र की गाड़ी इन तीन पहियों पर ही चलती है।
एक बार फिर झारखंड में लौटते हैं। दिसंबर में विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार गैर-भाजपा दलों ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी। लेकिन नौ महीने बाद यह सरकार राज्य के कुछ अधिकारियों की बेपरवाही या गैर-जिम्मेदार फैसलों के कारण संकट में घिरती नजर आ रही है। सरकार के सामने एक के बाद एक ऐसी चुनौतियां आकर खड़ी हो रही हैं, जिनके बारे में उसे कुछ पता ही नहीं है। विधानसभा और हाइकोर्ट के नये भवन को ही लें। इन भवनों के निर्माण की प्रक्रिया कब और कैसे शुरू हुई, कैसे निर्माण पूरे हुए, इससे यह सरकार कभी जुड़ी नहीं रही। लेकिन अब इन भवनों के निर्माण से पहले पर्यावरण क्लीयरेंस नहीं लिये जाने के कारण एनजीटी ने झारखंड सरकार पर भारी जुर्माना ठोंक दिया है, तब कोई यह नहीं कह रहा कि पर्यावरण क्लीयरेंस नहीं लेनेवाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। आखिर अधिकारियों ने नियमों का अध्ययन क्यों किया। इसी तरह नियोजन नीति को अवैध करार देने के हाइकोर्ट के फैसले के कारण हजारों लोगों के सामने रोजगार का संकट पैदा हो गया है। ऐसी दोषपूर्ण नीति बनानेवाले अधिकारियों को चिह्नित करने की कोई बात ही नहीं हो रही है। लैंड म्यूटेशन बिल का मसौदा तैयार करने में जिस अधिकारी ने विवादास्पद प्रावधान जोड़ा, उसकी पहचान भी नहीं हुई है। राजनीतिक नेतृत्व तो अपनी कार्यपालिका पर पूरी तरह आश्रित होता है। ऐसा लगता है कि अफसरों ने कभी सरकार को इस बात की जानकारी ही नहीं दी कि जमीन से संबंधित इस महत्वपूर्ण और संवेदनशील बिल में क्या प्रावधान जोड़े जा रहे हैं। इसी तरह सहायक पुलिसकर्मियों का मामला भी है। राज्य में एक सशक्त और संगठित पुलिस बल होने के बावजूद इस तरह का बोझ डालने के फैसले के पीछे भी निश्चित तौर पर नौकरशाही का हाथ होगा। अब वही बोझ नासूर बन कर सामने आ गया है, तो अधिकारी पीछे हट गये हैं।
शासन ऐसे नहीं चलता है, यह अधिकारियों को समझ लेना चाहिए। यदि किसी फैसले के लिए राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है, तो नौकरशाही को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि उस फैसले तक पहुंचने का रास्ता उसने ही दिखाया है। इस जिम्मेदारी से पीछे हटने के कारण ही आज हर मुद्दे के लिए सरकार की आलोचना होती है। यह रवैया ठीक नहीं है। इससे जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था के दो स्तंभों के बीच की खाई चौड़ी होती है, वहीं समाज के विकास की प्रक्रिया को भी झटका लगता है। नौकरशाही लोकतंत्र का मजबूत फौलादी कवच है। इससे उम्मीद की जाती है कि वह विधायिका के काम को राज्यहित के अनुरूप आंके और अपने विवेक से उन पर अमल करे। लेकिन झारखंड में इसके विपरीत काम होता है। यहां के कुछ अफसर हमेशा इस बात की ताक में रहते हैं कि कैसे चीजों को विवादित बनाया जाये और कुछ उल्टा हुआ, तो पल्ला झाड़ कर निकल लिया जाये। यह दुखद स्थिति है। सरकार को ऐसे अधिकारियों को चिह्नित करना चाहिए और उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह के गलत फैसलों की वजह से उसकी किरकिरी न हो सके। पुरानी कहावत है कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर सकती है, तो नौकरशाही के भीतर का कोई एक अफसर भी पूरे राज्य पर असर डाल सकता है। ऐसे अफसरों के खिलाफ जितनी जल्दी एक्शन होगा, राज्य के लिए उतना ही अच्छा होगा।
झारखंड के कुछ नौकरशाहों को सख्त खुराक की जरूरत
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