- 1932 का खतियान और आरक्षण पर फैसला लेकर बैकफुट पर धकेला विपक्ष को
पिछले साल फरवरी में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने दुनिया के प्रख्यात संस्थान हार्वर्ड बिजनेस स्कूल और हार्वर्ड केनेडी स्कूल द्वारा आयोजित इंडिया कांफ्रेंस में जो कुछ कहा, उसका लब्बो-लुआब यह था कि वह तन-मन-धन से आदिवासी हितों के लिए समर्पित हैं। करीब डेढ़ साल बाद उनका यह कथन सही साबित हो रहा है। हेमंत सोरेन ने झारखंड के आदिवासियों, मूलवासियों और सदानों की भावनाओं से जुड़े दो मुद्दों, 1932 का खतियान और आरक्षण पर फैसला लेकर इनका दिल जीत लिया है। हेमंत ने उनकी नजरों में अपने को यह साबित कर दिया है कि वह आज की तारीख में आदिवासी मूलवासी हितों के सबसे बड़े पैरोकार हैं। वह केवल चुनावी वादों पर यकीन नहीं करते, बल्कि उन्हें पूरा करने की इच्छाशक्ति भी रखते हैं। हार्वर्ड केनेडी स्कूल के कार्यक्रम में पूछे गये पहले सवाल कि ‘झारखंड कैसा है’ के जवाब में ‘जोहार’ से शुरू कर हेमंत सोरेन ने साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाले इस खूबसूरत प्रदेश की जो तस्वीर दुनिया के सामने पेश की, वह सराहनीय तो थी ही, साथ ही इसके साथ किये गये छल-प्रपंच और राजनीतिक धोखेबाजी को भी उन्होंने सामने रखा था। झारखंड आंदोलन, उसकी पृष्ठभूमि और उसकी जरूरत को रेखांकित करते हुए हेमंत अक्सर अपने पीछे लगी दिशोम गुरु शिबू सोरेन की तस्वीर को दिखाते हुए कहते रहते हैं कि यह राज्य लंबे संघर्ष का प्रतिफल है। इसकी परिकल्पना यहां के आदिवासियों के विकास को लेकर की गयी थी। लेकिन यह बेहद अफसोस की बात है कि झारखंड को जहां पहुंचना चाहिए था, वहां यह नहीं पहुंच सका है। लेकिन 14 सितंबर, 2022 को उन्होंने आदिवासियों-मूलवासियों सदानों की अस्मिता से जुड़े दो मुद्दों पर साहसिक फैसला लेकर अपनी सियासी राह में पैदा हुए कील-पत्थरों को एक झटके में उखाड़ फेंका है। हेमंत ने राज्य की सुरक्षित लोकसभा सीटों और सुरक्षित विधानसभा सीटों का समीकरण भी एक झटके में बदल दिया है। 1932 के खतियान और आरक्षण जैसे दो महत्वपूर्ण फैसलों के बाद झारखंड की संभावित सियासी तस्वीर और उसमें हेमंत सोरेन को मिली वाहवाही का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
कहानी शुरू करते हैं 23 दिसंबर, 2019 से। झारखंड की पांचवीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव का परिणाम घोषित हुआ था और पहली बार झारखंड ने पूर्ण बहुमत की सरकार को आत्मसात किया था। झामुमो-कांग्रेस-राजद को बहुमत मिल गया था और हेमंत सोरेन का मुख्यमंत्री बनना तय हो गया था। अपने आवास पर मीडिया के सवालों के जवाब में झामुमो के इस युवा नेता ने दुनिया को आश्वस्त किया था कि उनकी सरकार का हर फैसला झारखंडियों के हितों को ध्यान में रख कर किया जायेगा। खास बात यह कि वह यह बात आज तक नहीं भूले हैं और आज जब झारखंड में एक बड़ा वर्ग 1932 के खतियान और आरक्षण की सीमा बढ़ाये जाने के उनकी कैबिनेट के फैसलों पर खुशी से झूम रहा है, हेमंत सोरेन सियासत की उबड़-खाबड़ जमीन पर अपनी सरकार और पार्टी के लिए रास्ता आसान कर दिया है। यह पहला मौका नहीं है, जब हेमंत सोरेन ने आदिवासी हितों को सबसे ऊपर रखा है। पिछले पौने तीन साल में उनका एक भी फैसला आदिवासी-मूलवासी हित के खिलाफ नहीं गया है। यही नहीं, जरूरत के समय काम से भी उन्होंने पहचान बनायी है। चाहे कोरोना संकट हो या कोयला खदान की नीलामी, प्रवासी मजदूरों के लिए विशेष ट्रेन की व्यवस्था करने का सवाल हो या गरीबों के लिए दूसरी कल्याण योजनाएं शुरू करने का मामला, हेमंत ने साबित कर दिया है कि वह सचमुच काम में यकीन रखते हैं। सरना धर्मकोड और निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसे विवादित और संवेदनशील मुद्दों को जिस तरीके से उन्होंने टेकल किया है, उसने साबित कर दिया है कि हेमंत सोरेन केवल बातें नहीं करते, काम करते हैं।
हेमंत सोरेन के इस फैसले की सबसे खास बात यह है कि इस समय झारखंड सियासी संकट के दौर से गुजर रहा है। खुद हेमंत सोरेन पर अयोग्यता की तलवार लटक रही है और उनकी सरकार के सामने भारी संकट है। इसके बावजूद 1932 के खतियान को झारखंडियों की पहचान के रूप में मान्यता देने का उनका फैसला उनके लिए आॅक्सीजन का काम कर गया है। इतना ही नहीं, इस खतियान आधारित स्थानीय नीति तथा नौकरियों में ओबीसी, एसटी और एससी आरक्षण के कोटे में बढ़ोतरी को लागू करने का उनका फैसला मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है।
झारखंड में हमेशा से 1932 आधारित स्थानीय नीति का मुद्दा आदिवासियों और मूलवासियों की भावनाओें से जुड़ा रहा है। आबादी के अनुपात को छोड़ दिया जाये, तो यह मुद्दा आम आदिवासियों और सदानों की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। वे इसके आगे कुछ भी नहीं मानते। यह सही भी है, क्योंकि राजनीतिक दलों ने हमेशा से कहा है कि झारखंड आदिवासियों-मूलवासियों और सदानों के लिए बनाया गया है। इस पर उनका हक है। तो 1932 का खतियान स्वाभाविक रूप से राज्य की राजनीति के केंद्र में रहा है।
यह सही है कि कैबिनेट की मुहर लगने के बावजूद दोनों प्रस्तावों को जमीन पर उतारने से पहले कई प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। यही नहीं, इस पर कुछ क्षेत्रों और सत्ता पक्ष के कुछ विधायकों-सांसदों की तरफ से विरोध भी आयेगा, लेकिन जहां तक झामुमो का सवाल है, हेमंत सोरेन ने अपनी पार्टी के लिए चुनाव में बैटिंग करने के लिए एक आसान पिच बना दी है। यही नहीं, उन्होंने ओबीसी को भी एक झटके में साध लिया है। हालांकि स्थानीय नीति और नौकरियों में कुल 77 प्रतिशत आरक्षण पहले झारखंड विधानसभा से पारित होगा। विधेयक की मंजूरी के बाद इसे केंद्र के पास भेजा जायेगा, ताकि इसे नौवीं अनुसूची में शामिल किया जा सके। अब यह अलग बात है कि केंद्र इसे नौवीं अनुसूची में शामिल करेगा या नहीं, या कोर्ट में मामला जाने पर उस पर सहमति मिल ही जायेगी, क्योंकि बाबूलाल मरांडी के समय में पांच जजों की बेंच ने इसे सही नहीं माना था। लेकिन हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे पर कैबिनेट की स्वीकृति लेकर सियासी बढ़त हासिल कर ली है।
केंद्र सरकार क्या करेगी
और अदालतों-कानूनी पेचीदगियों की कसौटी पर ये फैसले कितनी दूर तक टिकेंगे, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अब इतना तय है कि इन मुद्दों पर हेमंत सोरेन से कभी कोई सवाल नहीं किया जायेगा।
सियासी मतलब और असर
हेमंत सोरेन कैबिनेट के फैसले इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि झारखंड विधानसभा का अगला चुनाव यूपीए गठबंधन मिल कर लड़ेगा। जाहिर तौर पर सीटों को लेकर बैठकें करनी पड़ेंगी, लेकिन एसटी, एससी और ओबीसी की श्रेणी के आरक्षण में कुल 17 फीसदी इजाफा करके यूपीए इन वर्गों का कम से कम 10 फीसदी वोट अपने पक्ष में करना चाहता है। हेमंत सोरेन की नजर राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से छह आरक्षित सीटों पर है। इसके अलावा विधानसभा की की सुरक्षित सीटों पर वह बढ़त बनाने की फिराक में हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला किया है। फैसलों का सीधा असर पड़ेगा और इस दृष्टिकोण से हेमंत सोरेन कैबिनेट का फैसला बड़ा सियासी धमाका कहा जा सकता है। यही कारण है कि हेमंत सरकार ने अपने कोर वोटर, यानी 26.2 फीसदी आदिवासी, धर्मांतरित इसाई और 19 फीसदी अल्पसंख्यक पर फोकस कर अब तक कई बड़े फैसले लिये हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में करीब 50 फीसदी ओबीसी हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो को करीब 28 लाख वोट मिले थे। झामुमो का अगला लक्ष्य 38 से 40 लाख वोट हासिल करना है।
असंवैधानिक बता चुका है कोर्ट
हालांकि यह भी सच है कि ये दोनों फैसले 2003 में ही अदालती कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। झारखंड हाइकोर्ट इन्हें असंवैधानिक करार दे चुका है। हाइकोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा था कि सरकार की यह नीति आम लोगों के हित में नहीं है। इस नीति से वैसे लोग स्थानीय होने के दायरे से बाहर हो जायेंगे, जिन्हें देश के विभाजन के बाद रांची में बसाया गया था। ऐसे लोग लंबे समय से झारखंड में रह रहे हैं और उन्हें स्थानीय के दायरे से बाहर किया जाना उनके साथ भेदभावपूर्ण होगा।
क्या कहा था अदालत ने
अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि राज्य के हर इलाके में सर्वे भी नहीं हुए हैं। ऐसे में किसी एक सर्वे को ही आधार माना जाना उचित नहीं है और यह दूसरे लोगों के साथ भेदभावपूर्ण होगा। वर्ष 2002 में ही झारखंड सरकार ने पिछड़ों को 27 आरक्षण देने का प्रस्ताव लाया था। इससे राज्य में आरक्षण की सीमा 50 से अधिक हो गयी थी। यह मामला भी हाइकोर्ट पहुंचा था और पांच जजों की बेंच ने इसे भी असंवैधानिक करार दिया था। अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं देने का आदेश दिया है। इस आधार पर झारखंड में भी 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को संवैधानिक करार नहीं दिया जा सकता। उस समय अदालत ने झारखंड सरकार से कहा था कि सुप्रीम कोर्ट में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने के लिए एक मामला लंबित है। याचिका पर अंतिम फैसला आने के बाद सरकार हाइकोर्ट में अपनी याचिका दायर कर सकती है। इन तमाम किंतु-परंतु के बीच यह तय है कि हेमंत सोरेन ने राज्य में सियासी संकट के बीच अपनी चाल से भाजपा को न सिर्फ मात दे दी है, बल्कि भविष्य के लिए अपनी राजनीतिक जमीन भी तैयार कर ली है। हेमंत सोरेन और उनकी सरकार डंके की चोट पर जनता के बीच यह संदेश देने में कामयाब रही है कि आदिवासी हितों को लेकर लिये गये फैसलों के कारण ही उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।