अभी तीनों विधानसभा सीट पर है झामुमो का कब्जा
टिकट को लेकर, झामुमो मे संदेह नहीं, भाजपा में झकझूमर
मेरे पैरों में घुंगरू बंधा दे, तो फिर मेरी चाल देख ले-भाजपाई टिकटार्थी
तीनों सीट पर बड़ा फैक्टर साबित होंगे अर्जुन मुंडा और सांसद विद्युत वरण महतो
झारखंड में विधानसभा का चुनाव अगले दो-तीन महीने मे अवश्यंभावी है। जाहिर है कि अलग-अलग राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा सीटें अपनी झोली मे डालने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इस क्रम मे खास बात यह भी कि इंडी गठबंधन और एनडीए लगातार सर्वे भी कर रहे हैं कि कौन दावेदार कितना प्रभावी होगा। किस विस क्षेत्र में कौन सा उम्मीदवार जिताऊ साबित होगा, मौका उसे ही मिलेगा। कोई कितने साल से दल का झंडा ढो रहा है या कोई हाल-फिलहाल एक दल से दूसरे दल में आया है, इससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ने वाला है शीर्ष नेतृत्व को। बस, उम्मीदवारी उसी के हिस्से में आनी है, जो पार्टी को सीट निकाल कर दे सके। इसी मूलमंत्र को लेकर चल रही हैं राज्य की सभी प्रमुख पार्टियां। बहरहाल क्या है जमशेदपुर संसदीय क्षेत्र अंतर्गत पड़नेवाली बहरागोड़ा, घाटशिला और पोटका विधानसभा सीट की वर्तमान चुनावी फिजा की तस्वीर बता रहे हैं आजाद सिपाही के संवाददाता अरुण सिंह
समीर मोहंती के खिलाफ भाजपा का उम्मीदवार कौन, अभी स्पष्ट नहीं
घाटशिला। पश्चिम बंगाल और ओड़िशा की सीमा पर अवस्थित बहरागोड़ा विधानसभा क्षेत्र कभी सीपीआइ का लाल दुर्ग माना जाता था। वर्ष 2000 के चुनाव में भाजपा की झोली में इस सीट को डॉ दिनेश कुमार षाड़ंगी ने डाला था। वह लगातार दो दफा चुनाव जीते थे। 2009 में झामुमो के विद्युत वरण महतो ने डॉक्टर साहब का विजय रथ रोक दिया था। 2014 के शुरूआती महीने में विद्युत बाबू भाजपा में आ गये और अब लगातार तीसरी बार सांसद बने हैं। इन्हें तो भाजपा रास आयी, लेकिन समीर मोहंती और कुणाल षाड़ंगी भाजपा से लंबे समय तक तालमेल बिठा कर नहीं रख सके। 2019 के चुनाव में तब के झामुमो विधायक कुणाल षाड़ंगी ने भगवा धारण कर लिया, भाजपा के टिकट पर लड़े, लेकिन हार गये। जब कुणाल भाजपा में आ गये, तो समीर मोहंती झामुमो में चले गये। समीर को टिकट मिला और पहुंच गये विधानसभा। अब एक बार फिर से 2024 का विस चुनाव सामने है। राजनीतिक परिदृश्य काफी हद तक बदल चुका है। कुणाल षाड़ंगी भाजपा से इस्तीफा दे चुके हैं और फिलहाल किसी दल में नहीं हैं। उनके सामर्थको की मानें तो ऊर्जावान और युवा रोल मॉडल कहे जाने वाले कुणाल निर्दलीय चुनावी रण में कूदने की तैयारी कर रहे हैं। वैसे जानकारों की माने तो कुणाल बड़े हड़बडियां हैं। उनमें सब्र की कमी है। वह 2019 में भाजपा से टिकट के लिए ही नहीं, जीत की उम्मीद से भी गये थे। उन्हें लगा था कि शायद जेएमएम के टिकट पर वह हार जायें। लेकिन वह भाजपा के टिकट से जेएमएम के प्रत्याशी, जो पहले भाजपा में थे, समीर मोहंती से चुनाव हार गये। कुणाल ने लोकसभा चुनाव में टिकट के लिए खूब प्रयास किया, लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। उसके बाद उन्होंने भाजपा छोड़ दी। इस फैसले को लेकर जानकार कह रहे हैं कि कुणाल ने जल्दबाजी कर दी। फिलहाल कुणाल पूरे क्षेत्र में अपनी टीम के साथ लोगों से संपर्क कर रहे हैं। विशेषकर यूथ और पहली बार वोट डालनेवालों पर उनकी नजर है। लेकिन झामुमो या कोई अन्य प्रभावी दल उन्हें अपना उम्मीदवार बनायेंगे, तो उन्हें परहेज भी नहीं। कुल मिलाकर, कुणाल का चुनाव लड़ना तय है। समीर मोहंती विधायक हैं। रिकॉर्ड वोट से जीत कर आये हैं। झामुमो उनके स्थान पर किसी और को टिकट देगा, संदेह है। रही भाजपा की बात, तो डॉ दिनेशानंद गोस्वामी यहां से प्रबल दावेदार हैं। 2014 में पार्टी टिकट पर लड़े थे, हार गये। 2019 में पार्टी ने कुणाल को आजमाया और वह भी पराजित हुए। अब गोस्वामी के अलावे काजल प्रधान, राहुल षाड़ंगी, काबू दत्ता, जिलाध्यक्ष चंडीचरण साव के नाम की भी चर्चा है। एक और नाम यहां चर्चा में है-डॉ संजय गिरी का। क्षेत्र में सक्रिय हैं, तेजी से पैठ बन रही इनकी। लेकिन अभी तक स्पष्ट नहीं है कि दलीय या निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। वैसे अभी तक झामुमो की तरफ से तो यही लग रहा है कि समीर मोहंती ही प्रत्याशी हैं, लेकिन भाजपा का चेहरा साफ नहीं हो रहा है। टिकट आवंटन के समय ही स्थिति स्पष्ट होगी।
रामदास सोरेन पर ही दांव लगायेगा झामुमो, भाजपा से लखन मार्डी या लक्ष्मण टुडू का हो रहा इंतजार
जैसे बहरागोड़ा विस क्षेत्र खेती और शिक्षा के मामले में अव्वल है, वैसे ही घाटशिला विस क्षेत्र यूरेनियम और कॉपर जैसी खनिज संपदा के लिए मशहूर है। इस विस क्षेत्र का गुड़ाबांदा एरिया में भरपूर मात्रा में पन्ना, क्वार्जाइट एवं क्वार्ट्ज जैसे बेशकीमती पत्थर पाये जाते हैं। स्वर्णरेखा, गुर्रा, शंख एवं खरसाती नदी यहां से गुजरती है। बावजूद इसके किसानों को खेती के लिए समुचित जल मयस्सर नहीं होता। स्वर्णरेखा मल्टी परपस प्रोजेक्ट की नहर का पानी दूर से ही देख कर यहां के किसान संतोष कर लेते हैं। नहर का पानी फसल तक पहुंचे, परियोजना शुरू होने के 35-40 साल बाद भी इसकी समुचित व्यवस्था नहीं हो पायी है।
अब ये बात अलग है कि इन सबके बावजूद बेरोजगारी-गरीबी यहां की बड़ी समस्या है। कॉपर माइंस बंद पड़ी हैं। इसका दोषारोपण भाजपा और झामुमो एक दूसरे पर करते नहीं थकते। समग्र विकास के मामले में घाटशिला भले ही पिछड़ा हो, किंतु राजनीति के मामले में बहुत ही फारवर्ड है। यहां फिलवक्त रामदास सोरेन झामुमो के विधायक हैं और सप्ताह भर पहले ही मंत्री बने हैं। इस सीट पर झामुमो से टिकट हथियाने के लिए कोई दूसरा नाम सामने नहीं आया है। बस, रामदास बाबू एकमात्र टिकटार्थी हैं । वैसे तो अंदरखाने टिकट की चाह कुछ नेताओं को जरूर है, सामने आने का साहस कहिये या कुछ और खुल कर कोई नेता हाथ-पैर नहीं मार रहा। जाहिर सी बात है कि आसन्न चुनाव में भी प्रत्याशी को लेकर झामुमो में ना खींचतान है और ना ही गुटबाजी। सांगठनिक दृष्टिकोण से भी देखें तो झामुमो में ज्यादा उठापटक नहीं है।
इसके उलट प्रमुख विपक्षी दल भाजपा में टिकट पाकर चुनाव लड़ने की आस पाले नेताओं की लंबी कतार है। आजादी के बाद के चुनावों में कांग्रेस, झारखंड पार्टी, सीपीआइ, फिर कॉंग्रेस के कब्जे में रही घाटशिला विस सीट। वर्ष 2009 में रामदास सोरेन इस सीट को झामुमो के पाले में लेकर आये थे, लेकिन अगले चुनाव में भाजपा प्रत्याशी लक्ष्मण टुडू के सहारे पहली बार यहां भगवा लहराया था। घाटशिला सीट पर तब भाजपा प्रत्याशी को विजय दिलाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने विशेष रुचि दिखलायी थी और रिजल्ट पार्टी के पक्ष में रहा था। लेकिन 2019 के चुनाव में भाजपा ने लक्ष्मण टुडू को दरकिनार करके युवा एवं स्थानीय नेता लखन मार्डी को टिकट थमा दिया। कोल्हान की सभी चौदह विस सीटें भारतीय जनता पार्टी हार गयी। लेकिन तब घाटशिला के भाजपा प्रत्याशी लखन मार्डी सवसे कम वोट के अंतर से चुनाव हारे थे। लखन को इस चुनाव में टिकट पाने में इस बात का लाभ मिलने की संभावना है, तो दूसरी तरफ, सीटिंग विधायक रहते लक्ष्मण टुडू को पार्टी सिंबल से अलग रख दिया गया था और पार्टी को सीट गंवानी पड़ी, इसका फायदा टिकट बंटवारे में इस बार इन्हें मिलेगा, ऐसी उम्मीद उनमें बरकरार है। इन दोनों के अलावे जिला परिषद की अध्यक्ष बारी मुर्मू, गीता मुर्मू, डॉ सुनीता देबदूत सोरेन, जिला पार्षद देवयानी मुर्मू, पद्मश्री जमुना टुडू, जिला पार्षद सुभास सिंह, बुड्ढेश्वर मार्डी, मुसाबनी के ब्लॉक प्रमुख रामदेव हेम्ब्रम ने भी अपना-अपना दावा पेश कर रखा है ।
इस क्रम में ध्यान देनेवाली बात ये भी है कि वर्ष 1995 से 2004 तक यानी तीन बार कांग्रेस का विधायक और झारखंड में कांग्रेस का सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रह चुके डॉ प्रदीप कुमार बलमुचू ने भी घाटशिला सीट से चुनाव लड़ने के लिए पार्टी फोरम में आवेदन दिया है। 2009 में हारने के बाद पार्टी ने इन्हें राज्यसभा भेजा था, तो 2014 के चुनाव में डॉ बलमुचू ने अपनी बेटी डॉ सिंद्रेला बलमुचू को मैदान में उतारा था। 2019 में डॉ प्रदीप बलमुचू घाटशिला सीट पर कांग्रेस के सिंबल पर लड़ना चाहते थे। गठबंधन के तहत घाटशिला सीट झामुमो के हिस्से में थी। जब पार्टी ने टिकट देने से मना कर दिया तो बलमुचू आजसू पार्टी से चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन काफी वोटों से पिछड़ गये।
कुल मिलाकर, अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित घाटशिला सीट पर मुख्य मुकाबला झामुमो- भाजपा के बीच ही होना तय है। झामुमो शत-प्रतिशत रामदास सोरेन पर भरोसा करेगा। भाजपा की पसंद कौन प्रत्याशी होगा, अभी स्पष्ट नहीं। लेकिन यह सीट अगर भाजपा जितना चाहती है, तो उसे चाहे जो कुछ करना पड़े, पार्टी के स्थानीय कर्ता धर्ताओं की गुटबाजी पर लगाम लगानी होगी, वर्ना सारी मेहनत पर एक बार फिर पानी फिर जायेगा। कम से कम भाजपा के प्रदेश नेतृत्व को तो अच्छी तरह मालूम है कि पिछले चुनाव में लखन मार्डी की हार पर पार्टी के कुछ लोगों ने बैंड बाजा बजवाया था और नाच-गाकर जश्न मनाया था ।
पोटका में झामुमो का उम्मीदवार तय, भाजपा में झकझूमर
पूर्वी सिंहभूम जिले के पोटका विधानसभा क्षेत्र काराजनितिक चुनावी परिदृश्य भी कमोवेश बहरागोड़ा एवं घाटशिला जैसा ही। यहां भी पिछले कई चुनावों से भाजपा और झामुमो ही मुख्य मुकाबला में रहते हैं। चुनावी गठबंधन और सांगठनिक कमजोरी के चलते कांग्रेस दूर-दूर तक नजर नहीं आती। 2009 के चुनाव में कांग्रेस कैंडिडेट के तौर पर सुबोध सिंह सरदार ने बेहतर प्रदर्शन किया था। वे दूसरे स्थान पर रहे थे, लेकिन 2014 चुनाव से पहले डॉ प्रदीप बलमुचू के स्थान पर सुखदेव भगत प्रदेश अध्यक्ष बने, तो सुबोध सरदार का टिकट काट कर एक महिला को दे दिया गया, जो चौथे स्थान पर रही और कुछ समय बाद कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गयी थीं। ये नेताओं की गुटबाजी के कारण हुआ और पोटका में संगठन अब बुरे दौर से गुजर रहा है। सुबोध सरदार कांग्रेस के पुराने नेता हैं। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे से लेकर कई पुराने नेताओं से इनका सीधा संपर्क रहा। लेकिन अपनी आर्थिक कमजोरी और पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता के कारण पिछड़ कर रह गये। 2014 के चुनाव से कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने फोन करके पार्टी में शामिल होने का आॅफर दिया था। सुबोध अपने को पक्का कोंग्रेसी मानते हैं और उन्होंने कोई ठोस जवाब नहीं दिया, तब झामुमो ने संजीव सरदार को आजमाया। संजीव पहला चुनाव हारे और दूसरी दफा जीत कर विधानसभा जा पहुंचे।
इस बार भी झामुमो अपना उम्मीदवार संजीव सरदार को ही बनायेगा, इसमें संदेह नहीं। झामुमो में भी कुछ ऐसे नेता हैं, जो टिकट चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर संजीव से भारी कद-काठी का इनमें से कोई नहीं दिखाई पड़ता। कुल मिला कर कहा जाये, तो पोटका में भी झामुमो की टिकट के लिए बहुत अधिक मारामारी नहीं है। एसटी के लिए रिजर्व सीट पोटका में भाजपा का टिकट हासिल करने वालों की संख्या ज्यादा है। मेनका सरदार के अलावे जिला परिषद की अध्यक्ष बारी मुर्मू, गणेश सरदार, राजू सरदार, मनोज सरदार भी टिकट चाहते हैं। मेनका सरदार यहां से तीन बार चुनाव जीत चुकी हैं। लेकिन अभी तक उनके नाम पर मुहर नहीं लगी है। वैसे चर्चा है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा पोटका या खिजरी सीट से चुनाव लड़ सकते हैं। यदि उनकी पसंद पोटका सीट रही, तो मेनका सरदार को मौका मिलना मुश्किल है। सूत्रों की मानें तो एक-डेढ़ महीना पहले मेनका सरदार दिल्ली गयी थीं और राष्ट्रीय संगठन से जुड़े एक पदधारी ने पूर्व विधायक मेनका को इस स्थिति के लिए तैयार रहने को कहा था। जाहिर है कि पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा यदि चुनाव लड़ने के इच्छुक होंगे तो पोटका में भाजपा की गुटबाजी चुनाव पीरियड तक ही सही, खत्म हो जायेगी। कोई स्थानीय भाजपाई उनके नाम पर असहमति जताये, इसकी संभावना दूरतलक नजर नहीं आती।
पोटका संथाल एवं भूमिज बहुल विस क्षेत्र है। इसके अलावे ओबीसी वोटर सबसे अधिक हैं। जमशेदपुर टाउन से सटा बागबेड़ा हरहरगुटू में हिंदी भाषी वोटरों की अच्छी- खासी संख्या है, जिन्हें भाजपा का वोटर माना जाता है। हालांकि अपने विधायक काल में संजीव सरदार ने यहां अपनी पैठ मजबूत की है।