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चुनाव आयोग को भेजी गयी झारखंड सरकार की शिकायत पर मचा बवाल
इस परिपाटी को यहीं रोका जाना जरूरी, वरना ध्वस्त हो सकती है व्यवस्था
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
15 नवंबर 2000 को देश के राजनीतिक नक्शे पर 28वें राज्य के रूप में जब झारखंड का उदय हुआ था, तब किसी को इस बात का इल्म नहीं था कि निश्छल और संवेदनशील संस्कृति के समाज वाला यह प्रदेश हर स्तर पर नकारात्मक गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में चर्चित हो जायेगा। इस बार झारखंड की चर्चा इसकी नौकरशाही के कारण हो रही है, जो पहले से ही कुछ अधिकारियों के भ्रष्टाचार के कारण बदनाम है और अब इसने खुद को राजनीतिक मोहरा बना लिया है। मामला झारखंड सरकार की कैबिनेट सचिव वंदना डाडेल द्वारा चुनाव आयोग को भेजी गयी शिकायत से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने एक केंद्रीय मंत्री और एक राज्य के मुख्यमंत्री की उनकी राजनीतिक गतिविधियों की शिकायत की है और कार्रवाई की मांग की है। भारतीय राजनीति की शुचिता के लिए यह शायद ठीक नहीं है, जब लोकतांत्रिक व्यवस्था का ‘फौलादी कवच’ मानी जानेवाली नौकरशाही पर राजनीतिक इस्तेमाल का आरोप लगे है। 1975 में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इस खतरनाक खेल का परिणाम भुगत चुका है, जब एक नौकरशाह राजनीतिक मोहरा बन गया और उसका अंतिम परिणाम इमरजेंसी से हुआ। इसके अलावा कई राज्यों में भी यदा-कदा इस तरह के मामले सामने आये, जिसका खामियाजा अंतत: नौकरशाहों को ही भुगतना पड़ा।
झारखंड सरकार द्वारा भेजी गयी शिकायत का यह प्रकरण भी नौकरशाही को उस अंधेरी सुरंग में धकेल सकता है, जिसका अंतिम परिणाम पूरी व्यवस्था का ध्वस्त होना ही हो सकता है। यह प्रकरण इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि यह पत्र विशुद्ध रूप से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए लिखा गया है और अधिकारियों को इससे बचना चाहिए। क्या है यह पूरा प्रकरण और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
भारत के सबसे कामयाब सेनाध्यक्ष और एकमात्र फील्ड मार्शल एसएफएचजे मानेकशॉ के जीवन से जुड़ा एक चर्चित प्रकरण है। बांग्लादेश युद्ध शुरू होने से ठीक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल मानेकशॉ को बुलाया। थल सेनाध्यक्ष जब वहां पहुंचे, जो पीएम ने उनसे कहा कि उन्हें सूचना मिल रही है कि सेना सत्ता पर कब्जे की तैयारी कर रही है। जनरल मानेकशॉ ने उन्हें कहा, आपको क्या लगता है। इस पर पीएम ने पूछा, क्या आप ऐसा कर सकते हैं? इस पर जनरल ने जवाब दिया, मैं ऐसा कर सकता हूं, लेकिन करूंगा नहीं, क्योंकि मेरा काम जंग लड़ना है, राजनीति नहीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच हुई इस बातचीत को चर्चित फिल्म ‘सैम बहादुर’ में बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है।
इस प्रकरण की याद इस समय केवल इसलिए आयी, क्योंकि अभी झारखंड सरकार की एक अधिकारी ने कुछ इसी तरह का काम किया है। राज्य सरकार की कैबिनेट सचिव वंदना डाडेल ने चुनाव आयोग को एक पत्र भेजा है, जिसमें उन्होंने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा की झारखंड में चल रही राजनीतिक गतिविधियों की शिकायत करते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। कैबिनेट सचिव का यह पत्र चर्चा में इसलिए है, क्योंकि यह राजनीतिक क्षेत्र में नौकरशाही का सीधा हस्तक्षेप है। जनरल मानेकशॉ ने तो इंदिरा गांंधी से कह दिया था कि उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन वंदना डाडेल ने पत्र लिख कर खुद को राजनीति का मोहरा जरूर बना लिया है।
वैसे दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के रिश्ते हमेशा से ही चर्चा का विषय रहे हैं। इन रिश्तों में समय, स्थान और परिस्थितियों के हिसाब से उतार-चढ़ाव के अलग अलग दौर रहे हैं। भारत में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान नौकरशाही का स्वरूप और प्राथमिकताएं कुछ अलग थीं। आजादी के बाद उनमें धीरे-धीरे बदलाव लाया गया। परिणामस्वरूप आजाद मुल्क में नौकरशाही के काम करने का अपना एक तरीका बना। आजादी के बाद उसे काम करने की काफी कुछ आजादी दी गयी। इसके अलावा उसकी सेवा शर्तों को बनाते समय इस बात का विशेष ख्याल रखा गया कि नौकरशाह किसी भी प्रकार के अनावश्यक दबाव में न आयें। नौकरशाही को केवल सरकार के अनावश्यक दबाव से ही बचाने की कोशिश नहीं की गयी, बल्कि जनता या फिर निहित स्वार्थों के दबाव को भी उनसे परे रखने की कोशिश की गयी। पारंपरिक तौर पर नौकरशाही का यह भारतीय मॉडल बहुत कुछ नौकरशाही के मैक्स वेबेरियन मॉडल के करीब था, जो नौकरशाही के तटस्थ रहने की बात करता है। इसमें सरकारी कर्मचारी को सरकारी सेवा के नियमों के अनुसार कार्य करने की सलाह दी जाती है। इसके विपरीत नौकरशाही का प्रतिबद्ध मॉडल नौकरशाही से सरकार की नीतियों के अनुरूप चलने की बात करता है। भारत में 1975 के आपातकाल तक तो नौकरशाही के तटस्थ रहने की बातें की जाती थीं, लेकिन आपातकाल के दौरान सरकारी अधिकारियों से सरकारी नीतियों के प्रति प्रतिबद्धता की अपेक्षा की जाने लगी। दरअसल, तबसे ही देश में तटस्थ और प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा में घालमेल शुरू हो गया। इस घालमेल के चलते सत्ताधारी दलों और नौकरशाहों ने अपने-अपने हिसाब से खूब उलटबाजियां की हैं।
क्या लिखा है वंदना डाडेल ने
चुनाव आयोग को यह पत्र झारखंड सरकार ने भेजा है। इस पर कैबिनेट सचिव वंदना डाडेल ने हस्ताक्षर किया है। इसमें चुनाव आयोग से अनुरोध किया गया है कि वह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भाजपा नेताओं हिमंता बिस्वा सरमा और केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक परामर्श जारी करने का आदेश दे कि वे आधिकारिक मशीनरी का दुरुपयोग कर ‘संकीर्ण राजनीतिक लाभ’ के लिए राज्य में सांप्रदायिक तनाव ‘भड़काने’ से बचें और संवैधानिक मानदंडों का घोर उल्लंघन करते हुए झारखंड के आंतरिक मामलों में सीधे हस्तक्षेप न करें।
पत्र के बाद सियासत गरम
जाहिर है कि इस पत्र के बाद झारखंड की राजनीति में उबाल आ गया है, क्योंकि राज्य में अगले कुछ दिनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। सत्तारूढ़ झामुमो और विपक्षी भाजपा के बीच इस मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये जाने लगे हैं। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या अभी इस तरह की शिकायती चिट्ठी लिखने का कोई औचित्य है।
इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर ‘नहीं’ है। हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब किसी राज्य सरकार की तरफ से इस तरह की शिकायत की गयी है। लेकिन हर बार यही हुआ है कि राजनीति के इस ट्रैप में फंस कर या तो अधिकारी अपना अहित करते हैं या फिर वे अनजाने में मोहरा बन कर रह जाते हैं। पूर्व में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल में इस तरह का प्रकरण हो चुका है, लेकिन हर बार नौकरशाही को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ी।
झारखंड के संदर्भ में यह प्रकरण इसलिए भी चिंताजनक है, क्योंकि यहां की नौकरशाही पहले से ही भ्रष्टाचार को लेकर बदनाम है। महज ढाई दशक पहले बने इस राज्य के संदर्भ में देश के एक चर्चित आइएएस अधिकारी रहे अनिल स्वरूप ने कहा था: झारखंड की कुव्यवस्था के लिए नौकरशाही ढांचा और लोकसेवक आंशिक रूप से जिम्मेवार हैं। जब झारखंड अलग राज्य बना, बिहार की नौकरशाही चारा घोटाले के दबाव से गुजर रही थी। ऐसे में आरएस शर्मा और राजीव गौबा जैसे उत्कृष्ट लोक सेवक थोड़े दिनों के लिए नये राज्य में मुख्य सचिव बनने के बाद केंद्र में चले गये। बकौल अनिल स्वरूप, झारखंड में अनेक ऐसे नौकरशाह हैं, जो बेहद काबिल हैं, लेकिन कुछ अधिकारियों की अक्षमता, अनिर्णय और बेइमानी के अलावा उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की वजह से यह स्थिति पैदा हुई है।
इसलिए झारखंड की कैबिनेट सचिव के इस पत्र को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। यह नौकरशाही और राजनीति के उसी घालमेल का खतरनाक स्वरूप है, जो अंतत: राज्य और समाज के लिए अहितकर तो होता ही है, नौकरशाह के लिए भी नुकसानदेह साबित होता है। यहां मध्यप्रदेश की एक महिला आइएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी के चर्चित लेख का जिक्र जरूरी हो जाता है, जिसे भारतीय नौकरशाही के लिए ‘आइ ओपनर’ कहा जाता है। इस लेख में वह लिखती हैं: हम अपने बारे में, अपनी बुद्धिमता के बारे में और अपने अनुभव के बारे में बहुत ऊंची राय रखते हैं और सोचते हैं कि लोग इसीलिए हमारा सम्मान करते हैं। जबकि असलियत यह है कि लोग हमारे आगे इसलिए समर्पण करते हैं, क्योंकि हमें किसी को फायदा पहुंचाने या किसी का नुकसान करने की ताकत दी गयी है। हमें वेतन और सुविधाएं इसलिए मिलती हैं कि हम अपने काम को कुशलता से करें और ‘सिस्टम’ विकसित करें।
सच्चाई यह है कि हम कुप्रबंध और अराजकता फैला कर पनपते हैं, क्योंकि ऐसा करने से हम कुछ को फायदा पहुंचाने के लिए चुन सकते हैं और बाकी की उपेक्षा कर सकते हैं। हमें भारतीय गणतंत्र का ‘स्टील फ्रेम’ माना जाता है। सच्चाई यह है कि हममें दूरदृष्टि ही नहीं होती। हम अपने राजनीतिक आकाओं की इच्छा के अनुसार औचक निर्णय लेते हैं। हम पूरी प्रशासनिक व्यवस्था का अपनी जागीर की तरह अपने फायदे में या अपने चहेते लोगों के फायदे में शोषण करते हैं। हम काफी ढोंगी हैं, क्योंकि यह सब करते हुए हम यह दावा करते हैं कि हम लोगों की ‘मदद’ कर रहे हैं।
झारखंड में भी नौकरशाही के नुकसान के कई किस्से हैं। कई योग्य अधिकारी इसका दंश झेल चुके हैं। कई अभी कोर्च-कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं। राजनीतिज्ञ इन्हें अपने लाभ के लिए मोहरा बना लेते हैं। कई बार राजनीतिज्ञ ही उन्हें फंसा भी देते हैं। उदाहरण के लिए हम वर्तमान डीजीपी का जिक्र कर सकते हैं। पिछली सरकार के समय विपक्ष ने उन पर काफी प्रहार किया। उन्हें राज्यसभा चुनाव में बेवजह किसी के पक्ष में काम करने के आरोप में घसीटा गया। बात कोर्च-कचहरी तक पहुंच गयी। कोर्ट-कचहरी से वह बेदाग तो निकले, लेकिन उस दौरान उनकी जो बदनामी हुई, उउनको जो मानसिक तनाव हुआ, उसकी भरपाई कैसे होगी। अभी एक और आइएएस अधिकारी हैं। उन पर बार-बार विवाद चस्पां किया जाता है। हालत यह है कि जब भी चुनाव होता है, चुनाव आयोग उन्हें दायित्वों से मुक्त रखता है। इससे उबरने के लिए वे कोर्ट-कचहरी का चक्कर काट रहे हैं। यह सब नेता अपने लाभ के लिए करते हैं। ऐसे में नौकरशाही को भी यह समझने की जरूरत है कि वह किसी का मोहरा नहीं बने।