विशेष
चीन-जापान की यात्रा में प्रधानमंंत्री ने दिखाया अपनी कूटनीति का दम
रूस-चीन के साथ बने त्रिकोण ने भारत की ताकत को कई गुना बढ़ाया
बेअसर साबित होने लगी है अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की टैरिफ मिसाइल
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
चीन के तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रिय कूटनीति ने वैश्विक मंच पर भारत की धमक को फिर से स्थापित किया है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी गर्मजोशी भरी मुलाकात ने न केवल ग्लोबल साउथ की एकजुटता को रेखांकित किया, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक टैरिफ नीति को भी करारा जवाब दिया। मोदी की कूटनीति का महत्व इसी बात से प्रमाणित होता है कि जिस समय वह चीन और रूस के साथ मिल कर मैत्री के नये त्रिकोण को आकार देने में लगे थे, ठीक उसी समय अमेरिकी दूतावास की एक पोस्ट ने भारत-अमेरिका दोस्ती को ‘21वीं सदी की परिभाषित साझेदारी’ बताया, जिसकी टाइमिंग ने कूटनीतिक हलकों में गंभीर चर्चा छेड़ दी है। एससीओ शिखर सम्मेलन में मोदी ने आतंकवाद पर कड़ा रुख अपनाते हुए जिस तरह पहलगाम हमले की निंदा साझा बयान में शामिल करवायी, वह उनकी वैश्विक ताकत और पाकिस्तान के लिए सीधा संदेश था। शी जिनपिंग के साथ बैठक में सीमा पर शांति, व्यापार असंतुलन और कैलाश मानसरोवर यात्रा की बहाली पर सहमति बनी, तो पुतिन के साथ मुलाकात में रक्षा और व्यापार सहयोग को मजबूती मिली। यह तिकड़ी अमेरिकी टैरिफ के खिलाफ वैकल्पिक व्यापार गलियारों और ब्रिक्स की ताकत को बढ़ाने की रणनीति का हिस्सा थी। मोदी की चीन-जापान यात्रा और रूस-चीन के साथ मिल कर बनाये गये नये त्रिकोण ने वैश्विक व्यवस्था में वह बदलाव किया है, जिसने अमेरिका के टैरिफ हथियार को बेअसर करते हुए नयी व्यवस्था कायम की है। क्या है मोदी की कूटनीति का महत्व और भारत पर क्या होगा इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान और चीन यात्रा वैश्विक कूटनीतिक के परिदृश्य में एक निर्णायक पड़ाव साबित होने जा रही है। जापान में अभूतपूर्व निवेश वादों और चीन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में भागीदारी से यह साफ है कि भारत अब वैश्विक राजनीति में अपनी स्थिति को नये सिरे से परिभाषित करने की दिशा में मजबूती से आगे बढ़ रहा है। खासकर उस समय में, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 50 फीसदी तक के टैरिफ थोप दिये हैं, यह यात्रा भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की नीति का ठोस प्रदर्शन प्रतीत होती है। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि दबाव की राजनीति के दौर में वह किसी एक ध्रुव पर टिकने वाला देश नहीं है, बल्कि बहुध्रुवीय विश्व में अपनी स्वतंत्र पहचान रखता है। पीएम मोदी की यह यात्रा एशिया में भरोसे का विस्तार है, जिससे दुनिया के समीकरण बदल सकते हैं।
पूंजी, तकनीक और साझेदारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे का पहला पड़ाव जापान रहा, जहां 15वें भारत-जापान वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान इतिहास का सबसे बड़ा निवेश पैकेज घोषित हुआ। जापान ने अगले दस वर्षों में 10 ट्रिलियन येन (लगभग 68 अरब डॉलर) भारत में निवेश करने का वादा किया। यह घोषणा उस समय की गयी है, जब वैश्विक आर्थिक परिदृश्य अस्थिर है और कई पश्चिमी निवेशक सतर्क रुख अपनाये हुए हैं। ऐसे माहौल में जापान का भरोसा भारत के लिए केवल पूंजी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दोनों देशों के बीच दीर्घकालिक रणनीतिक विश्वास का प्रतीक भी है। जापान ने निवेश के अलावा सेमीकंडक्टर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्रिटिकल मिनरल जैसे क्षेत्रों में तकनीकी सहयोग का प्रस्ताव भी रखा है। ये ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था और सुरक्षा दोनों टिकी हुई है। भारत के लिए यह साझेदारी न केवल तकनीकी आत्मनिर्भरता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है, बल्कि सप्लाई चेन के क्षेत्र में चीन की एकाधिकारवादी स्थिति को भी चुनौती दे सकती है। इस यात्रा के दौरान जापान के प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साझा आर्थिक और सुरक्षा दृष्टिपत्र भी जारी किया, जिसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र की स्थिरता और समृद्धि सुनिचित करने का वादा किया गया। जापान ने भारत के साथ मानव संसाधन सहयोग को भी प्राथमिकता दी है और आने वाले पांच वर्षों में पांच लाख भारतीयों और जापानियों के बीच शैक्षणिक, सांस्कृतिक और व्यावसायिक आदान-प्रदान का लक्ष्य रखा है। यह केवल सरकारी समझौते तक सीमित नहीं है, बल्कि दोनों समाजों को जोड़ने की कोशिश है, जो दीर्घकाल में रणनीतिक रिश्तों की सबसे मजबूत नींव साबित होगी।
भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का ठोस उदाहरण
प्रधानमंत्री मोदी का दूसरा पड़ाव चीन का तियानजिन रहा, जहां उन्होंने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में भाग लिया। यह उनकी सात साल बाद चीन यात्रा थी। भारत और चीन के बीच पिछले वर्षों में सीमा विवाद और तनावपूर्ण संबंधों के चलते संवाद लगभग ठप पड़ गया था। ऐसे में पीएम मोदी की यह यात्रा संबंधों में एक नये अध्याय की ओर संकेत करती है।
एससीओ शिखर सम्मेलन को चीन और रूस ने पश्चिमी देशों के प्रभाव को संतुलित करने के मंच के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी मौजूद थे। 20 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों की भागीदारी ने इसे एक बड़ा कूटनीतिक आयोजन बना दिया। भारत की मौजूदगी ने इस मंच को अतिरिक्त महत्व दिया है, क्योंकि एशिया की राजनीति भारत के बिना अधूरी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि एससीओ मंच पर अक्सर नतीजे प्रतीकात्मक ही रहते हैं। फिर भी भारत की उपस्थिति का संदेश साफ है कि वह केवल पश्चिमी ढांचे का हिस्सा बन कर नहीं चलेगा, बल्कि पूर्वी ध्रुवों के साथ भी संबंध मजबूत रखेगा। खासकर तब, जब अमेरिका-भारत व्यापारिक संबंधों में तनाव है। यह कदम भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का ठोस उदाहरण है।
ट्रंप की मनमानी के बीच वैश्विक शक्ति संतुलन की नींव
पीएम मोदी की इस यात्रा के पीछे एक बड़ा संदर्भ अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मनमाने फैसले भी हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से आयात होने वाले सामान पर 50 प्रतिशत तक का टैरिफ लगा दिया। ट्रंप के इस मनमाने कदम के बाद जापान जैसे सहयोगियों से निवेश और तकनीकी साझेदारी भारत के लिए एक रणनीतिक विकल्प के रूप में सामने आयी है। अमेरिका से बढ़ते तनाव के बीच यह साफ हो गया है कि व्यापार और तकनीकी साझेदारी को किसी एक देश पर निर्भर नहीं छोड़ा जा सकता। यही कारण है कि भारत ने जापान, चीन और रूस के साथ संवाद और सहयोग बढ़ाने का रास्ता चुना है। इसे विदेश नीति विशेषज्ञ भारत की बड़ी रणनीति मान रहे हैं, जिसके तहत भारत अपने साझेदारों का दायरा बढ़ाकर जोखिम को कम करने में कामयाब होगा।
रणनीतिक स्वायत्तता : भारत की नयी विदेश नीति का स्वरूप
पीएम मोदी की इस यात्रा ने भारत की विदेश नीति को नये तरीके से परिभाषित किया है। विशेषज्ञ इसे ‘गुटनिरपेक्षता 2.0’ के तौर पर देखते हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत किसी एक शक्ति-गुट का हिस्सा बनने की बजाय अपने हितों और प्राथमिकताओं के आधार पर संबंध बनायेगा। भारत के लिए जापान के साथ तकनीकी सहयोग उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि चीन के साथ सीमा स्थिरता बनाये रखना। इसी तरह रूस के साथ ऊर्जा सहयोग पर निर्भरता भी वक्त की जरूरत है। इस संतुलन को साधना आसान नहीं है, लेकिन यही रणनीतिक स्वायत्तता की असली कसौटी है।
भविष्य की राह : चुनौतियां और संभावनाएं
आने वाले वर्षों में जापान के 10 ट्रिलियन येन निवेश से भारत में नये सेमीकंडक्टर कारखाने, तकनीकी पार्क और औद्योगिक क्लस्टर बनेंगे। इसी तरह चीन के साथ भारत का सहयोग भी दूरगामी परिणामों की आधारशिला साबित हो सकता है। हालांकि सीमा विवाद और भू-राजनीतिक अविश्वास ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता, फिर भी व्यापार और बहुपक्षीय मंचों पर सहयोग का रास्ता दोनों देशों के लिए व्यावहारिक विकल्प है। क्वाड जैसे मंचों का भविष्य भी इस संदर्भ में अहम है। अमेरिका के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के बावजूद क्वाड एक मजबूत संरचना के रूप में उभर सकता है। जापान और भारत की नजदीकी इसमें अहम भूमिका निभा सकती है, लेकिन इसके लिए चारों देशों के बीच राजनीतिक इच्छाशक्ति और दीर्घकालिक रणनीति आवश्यक होगी।
शक्ति संतुलन का निर्णायक सूत्रधार बना भारत
पीएम मोदी की यह जापान और चीन यात्रा बताती है कि भारत अब केवल साझेदारियों का हिस्सा भर नहीं है, बल्कि स्वयं एक ध्रुव के रूप में उभर रहा है। जापान के साथ तकनीकी और निवेश सहयोग, चीन में एससीओ मंच पर वापसी और अमेरिका से बढ़ते तनावों के बीच नयी राह तलाशना, ये सभी घटनाएं मिलकर भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की कहानी कहती हैं। यह दौरा इस बात का संकेत है कि भारत अब प्रतिक्रियात्मक कूटनीति नहीं, बल्कि सक्रिय और पहल करने वाली कूटनीति का प्रयोग करने में विश्वास रखता है। बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में भारत केवल एक दर्शक नहीं रहेगा, बल्कि अपनी भूमिका इस तरह गढ़ने जा रहा है कि आने वाले वर्षों में वह एशिया और विश्व राजनीति, दोनों को नयी दिशा देने में सक्षम हो।