देश की सबसे पुरानी पार्टी का 85 साल बाद कार्यसमिति की बैठक कर संदेश देने की कोशिश
-कांग्रेस के 140 साल के इतिहास में यह दूसरा मौका था, जब बिहार में सीडब्ल्यूसी की बैठक आयोजित की गयी
-इस बार परजीवी की छवि तोड़ने के लिए सब कुछ दांव पर लगा रही कांग्रेस
बिहार में विधानसभा चुनावों के नजदीक आते ही सियासी हलचल चरम पर पहुंच गयी है। इस हलचल के बीच बुधवार 24 सितंबर को पटना के सदाकत आश्रम में आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस कार्यसमिति यानी की सीडब्ल्यूसी की बैठक हुई है। यह बैठक 85 साल बाद बिहार की धरती पर आयोजित हुई। इससे पहले बिहार में 1940 में सीडब्ल्यूसी की बैठक का आयोजन किया गया था। बैठक में देश के साथ-साथ बिहार चुनाव पर मंथन हुआ और साथ ही वोट चोरी के मुद्दे पर भी चर्चा हुई। 1940 के बाद पहली बार बिहार में हो रही सीडब्ल्यूसी की बैठक को कांग्रेस बिहार चुनाव जीतने के लिए तेलंगाना मॉडल को अपनाने की कोशिश के रूप में देख रही है। साल 2023 चुनाव से पहले कांग्रेस ने तेलंगाना में सीडब्ल्यूसी की बैठक की थी। उसके बाद वहां बड़ा असर भी हुआ था और प्रदेश की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हुई थी। इसलिए पटना में सीडब्ल्यूसी की बैठक का अलग सियासी महत्व है। इस बैठक के बाद अब यह लगभग तय हो गया है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कम से कम बिहार में अपनी खोयी हुई जमीन वापस हासिल करने की कोशिश में जुट गयी है। इस कोशिश के दौरान आनेवाली तमाम बाधाओं, चाहे वह महागठबंधन के तहत चुनाव लड़ने का मुद्दा हो या फिर नेतृत्व संभालने का, से कांग्रेस अब पूरी मजबूती के साथ निबटने का मन बना चुकी है। यही कारण है कि कांग्रेस ने सीडब्ल्यूसी की बैठक में बिहार में गठबंधन या सीट शेयरिंग के मुद्दे पर चर्चा नहीं की। क्या है पटना में सीडब्ल्यूसी की अहमियत और कैसे बिहार में कांग्रेस की जमीन खिसकती गयी, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।
बिहार में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर लगातार तेज हो रही हलचल के बीच पटना में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक ने सियासी हलकों में नयी हलचल पैदा कर दी है। इस बैठक में हालांकि सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी शामिल नहीं हुईं, लेकिन इससे इसका सियासी महत्व कम नहीं हुआ है। बैठक के दौरान देश भर के मुद्दों पर विचार किया गया और कई प्रस्ताव पास किये गये। कांग्रेस के 140 साल के इतिहास में यह दूसरा मौका था, जब बिहार में सीडब्ल्यूसी की बैठक आयोजित की गयी। इससे पहले 1940 में रामगढ़ अधिवेशन से पहले वहां सीडब्ल्यूसी की बैठक हुई थी, जिसमें ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की रूपरेखा तैयार की गयी थी। इस लिहाज से 24 सितंबर की सीडब्ल्यूसी की बैठक को भी काफी अहम माना जा रहा है।
राहुल गांधी की यात्रा का असर नहीं
सीडब्ल्यूसी की बैठक से पहले राहुल गांधी ने बिहार में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकाली थी। राहुल गांधी ने 14 दिनों में 24 जिलों की 50 विधानसभा सीटों को कवर किया था। इस दौरान वोट चोरी को लेकर एक नैरेटिव बनाने की कोशिश की गयी, लेकिन कांग्रेस पार्टी उसे बड़ा मुद्दा नहीं बना पायी है। हालांकि सीडब्ल्यूसी की बैठक के बाद कांग्रेस नेताओं ने दावा किया कि राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ का असर बिहार में देखने को मिल रहा है। पार्टी का दावा है कि यह बिहार में बदलाव की शुरूआत है और आने वाला समय बदलाव का है। कांग्रेस और गठबंधन चुनाव में बेहतर करेगा। पार्टी को भरोसा है कि बिहार की धरती से कांग्रेस देश को संदेश देगी।
पटना में क्यों हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक
पटना में सीडब्ल्यूसी की बैठक आयोजित करने के पीछे भी एक खास रणनीति है। बिहार में चुनाव होने हैं और इस बार कांग्रेस अपनी खोयी हुई जमीन वापस पाने की जीतोड़ कोशिश कर रही है। इसके अलावा वह तेलंगाना का फॉमूर्ला अपना रही है। तेलंगाना में 2023 में हुई चुनाव से पहले सीडब्ल्यूसी की बैठक हुई थी, जिसका बड़ा असर हुआ था और राज्य में पार्टी की सत्ता में वापसी हो गयी थी। पार्टी नेताओं को विश्वास है कि ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के बाद सीडब्ल्यूसी की बैठक से राज्य में पार्टी को नयी ताकत मिलेगी। बिहार के लोगों को भी लगेगा कि कांग्रेस अब परजीवी नहीं, बल्कि एक मजबूत राजनीतिक ताकत बन रही है।
बिहार में ऐसे कमजोर हुई कांग्रेस
बिहार की राजनीति में कांग्रेस का इतिहास उतना ही पुराना है, जितनी आजादी की कहानी। लेकिन वर्ष 1990 के बाद लालू यादव के उभार के साथ कांग्रेस का आधार लगातार खिसकता गया। कभी पूर्ण बहुमत के साथ एकछत्र राज करने वाली पार्टी विधानसभा में सिमटती चली गयी और अब उसकी स्थिति बेहद कमजोर हो गयी है। ऐसे समय में वर्ष 1940 के बाद दूसरी बार पटना में हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक को पार्टी के पुनर्जीवन की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस फिर से खड़ी हो सकेगी। बिहार में कांग्रेस के पतन की कहानी मंडल आंदोलन के बाद वर्ष 1990 से शुरू होती है, जब बिहार की राजनीति का परिदृश्य बदला और कांग्रेस की जमीन कमजोर होती गयी। बात इतनी दूर तक पहुंच गयी कि कांग्रेस के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा। दरअसल लालू यादव के उदय और राजद के मजबूत सामाजिक आधार ने कांग्रेस का वोट बैंक छीन लिया। सवर्ण और दलित वोट एनडीए की ओर चले गये, तो मुस्लिम वोटरों ने राजद में अपना स्थायी ठिकाना बना लिया। स्थिति ऐसी आ गयी कि चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का ग्राफ नीचे गिरता गया। अब पटना में सीडब्ल्यूसी की बैठक को बदलाव की उम्मीद से जोड़ा जा रहा है, लेकिन चुनौती बेहद बड़ी है।
1990 से पहले कांग्रेस का सुनहरा दौर
आजादी के बाद से लेकर वर्ष 1980 के दशक तक बिहार की राजनीति पर कांग्रेस का दबदबा रहा। वर्ष 1952, 1962 और 1972 के चुनावों में कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत पाकर सरकार बनायी। पार्टी का मजबूत जनाधार सवर्ण, दलित और मुस्लिम समुदाय पर आधारित था। उस दौर में कांग्रेस ही बिहार की मुख्य धारा की राजनीति थी और केंद्रीय सोच, यानी सर्व समाज की सियासत करने वाली पार्टी के रूप में पहचान रखती थी। लेकिन 1990 के विधानसभा चुनाव ने बिहार की राजनीति की दिशा बदल दी। उस साल लालू यादव मुख्यमंत्री बने और पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने कांग्रेस की जड़ों को हिलाना शुरू कर दिया। कांग्रेस के परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक भी लालू यादव की ओर खिसक गया और सवर्ण और दलित कांग्रेस से छिटक लिये। यही वह दौर था, जब कांग्रेस के पतन की शुरूआत हो गयी थी। आज के दौर में कांग्रेस के कोर वोट बैंक मुस्लिम पर राजद का पूरा कब्जा है, वहीं दलित और सवर्ण अब एनडीए के साथ दिखते हैं।
महागठबंधन में कांग्रेस की स्थिति
इसके बाद तो सियासत पूरी तरह उल्टी दिशा में घूम गयी और कांग्रेस महागठबंधन में ‘छोटी पार्टनर’ बनकर रह गयी। वर्ष 2015 में राजद-जदयू की जोड़ी ने कांग्रेस को अस्थायी सहारा दिया, लेकिन 2020 में स्थिति फिर कमजोर हो गयी। पार्टी अब सीट बंटवारे में भी ‘सम्मानजनक हिस्सेदारी’ के लिए संघर्ष करती दिखती है।
पटना में कांग्रेस की बैठक से उम्मीदें
राजनीति के जानकार कहते हैं कि सीडब्ल्यूसी की बैठक का संदेश साफ है कि बिहार कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की कवायद कर रही है।
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी नेतृत्व इस बैठक के माध्यम से कार्यकतार्ओं को उत्साह देना चाहती है और बिहार में अपनी नयी रणनीति बनाने के साथ ही उस पर आगे बढ़ना चाहती है।
क्या बिहार में कांग्रेस फिर खड़ी हो सकेगी
हालांकि राजनीति के जानकार मानते हैं कि सिर्फ बैठकों से पार्टी का पुराना जनाधार लौटना मुश्किल है। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है उसका अपना खोया हुआ वोट बैंक वापस पाना। मुस्लिम समाज पूरी तरह महागठबंधन में उसके अपने ही सहयोगी राजद के साथ है, जबकि सवर्ण और दलित वोट एनडीए में बंट चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस को नये मुद्दे और युवाओं से सीधा जुड़ाव बनाना होगा। अगर रणनीति सही रही, तो पटना बैठक एक नयी शुरूआत हो सकती है।