इनकी आंखों में रोशनी भले न हो, लेकिन सपने हैं. इनकी नजर में आसमां तक ऊंची उड़ान है और यही वजह है कि खुद अंधेरे में रहकर भी ये युवा दूसरों की दुनिया में उजाला फैला रहे हैं.
दिल्ली की द ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन में करीब दो दर्जन नेत्रहीन युवा हैं. ये सालभर से दीये और मोमबत्तियां बना रहे हैं. नेत्रहीन होने के अलावा भी इनकी जिंदगी में सैकड़ों परेशानियां हैं, लेकिन इनकी लगन और जुनून का जवाब नहीं.
करनाल से आकर यहां दीये बनाना सीख रहे बलविंदर कहते हैं कि उन्हें कभी-कभी लगता था कि जिनकी आंखें होती हैं वे कैसे और क्या-क्या देखते होंगे. लेकिन अब उन्हें आंख न होने का बिल्कुल गम नहीं होता. वे सब महसूस कर सकते हैं. उन्हें गज़ल गाने का बेहद शौक है और वे संगीत सीखना चाहते हैं. बलविंदर बताते हैं कि वे और उनकी बहन जन्म से ही नेत्रहीन हैं, उनकी बहन पढ़ाई कर रही हैं. लेकिन वे बीमार हो जाने के कारण पढ़ाई नहीं कर पाए. हालांकि अब यहां काम करने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि वे रोशनी देख नहीं सकते तो क्या हुआ, रोशनी फैलाने का जरिया तो बन सकते हैं.
दो साल पहले ही आंखों की रोशनी गंवा चुके बिहार, भागलपुर के अमित इस घटना से इतने आहत थे कि कई महीनों तक घर से बाहर नहीं निकले. वे बताते हैं कि कई बार आत्महत्या का विचार मन में आया. पढ़ाई-लिखाई की नहीं थी, ऐसे में परेशानी और बढ़ गई. लेकिन दिल्ली आकर मोमबत्ती और दिये बनाना शुरू किया. अब लगता है कि वे भी जी सकते हैं. वे पैसा कमा सकते हैं, परिवार को खुश रख सकते हैं.बनारस में छह बहनों में एकमात्र नेत्रहीन वंदना अपनी सभी बहनों से काफी आगे हैं. शराबी पिता के चलते मां को सब्जी का ठेला लगाना पड़ा. लेकिन वंदना ने नेत्रहीन होने के बावजूद दीये और मोमबत्तियां बनाना सीखने का फैसला किया और दिल्ली आ गईं.
वंदना कहती हैं कि वे बनारस लौटकर मोमबत्ती और दीये बनाने का काम शुरू करेंगी, घर खर्च में मां का हाथ बटाएंगी और अपनी बहनों को पढ़ाएंगी.इन युवाओं को ट्रेनिंग देने वाले वर्कशॉप इंचार्ज ए डेविड कहते हैं कि यहां सभी युवा बड़े मन से सीखते हैं. कई युवा नौकरी कर रहे हैं, कुछ अपना काम खोल चुके हैं. एसोसिएशन के सचिव के सी पांडे का कहना है कि नेत्रहीन लोगों को नौकरी देने के मामले में अभी लोग संजीदा नहीं हैं. हालांकि, यहां से सीखकर लौटने वाले युवा अपना रोजगार पैदा कर लेते हैं.