जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक शेष पाल वैद ने राज्य में स्थायी रूप से शांति कायम करने की दिशा में जो सुझाव पेश किया है वह स्वागत-योग्य है। पिछले हफ्ते एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि राज्य की पुलिस के ताजा सुरक्षा अभियान में कम से कम एक सौ साठ उग्रवादी मारे गए हैं, पर अब कश्मीर को ‘राजनीतिक पहल’ की भी जरूरत है। इस सुझाव की अहमियत जाहिर है। कश्मीर में अब जो हालात हैं वे पिछले साल बुरहान वानी के मारे जाने के बाद के दिनों से काफी अलग हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि वहां आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर अब पूरी तरह निश्चिंत हुआ जा सकता है। सुरक्षा संबंधी चुनौतियां अब भी हैं और जाने कब तक रहेंगी। खुद वैद कहते हैं कि खासकर दक्षिण कश्मीर में उग्रवादी खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता। सीमापार के कुचक्र रचने वाले तत्त्व भी ताक में होंगे। लेकिन जब पुलिस का शीर्ष अधिकारी यह कह रहा हो कि अब राजनीतिक पहल की जानी चाहिए, और कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारी भी कह चुके हों कि राज्य में आतंकवाद की कमर टूट चुकी है, तो संवाद के दरवाजे खोलने में सरकार को हिचकना नहीं चाहिए।
पुलिस और सैन्य बल आतंकवादियों से निपट सकते हैं, पर राज्य के लोगों का भरोसा जीतने की जिम्मेवारी राजनीतिक नेतृत्व पर ही आती है। इस सच्चाई को अटल बिहारी वाजपेयी अच्छी तरह जानते थे और कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए उन्होंने ही ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत’ का सूत्र पेश किया था। तब एक झटके में एक नई उम्मीद का संचार हुआ था। उनके उस आह्वान को कश्मीरी लोग आज भी याद करते हैं। विडंबना यह है कि वाजपेयी की विरासत का दम भरने वाली राजग की मौजूदा सरकार उस सूत्र को आगे बढ़ाने में फिलहाल कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही। जबकि इतिहास ने इस सरकार को कहीं ज्यादा उपयुक्त अवसर दिया है। भाजपा को पहली बार जम्मू-कश्मीर की सत्ता में आने का मौका मिला है। जब भाजपा की साझेदारी से पीडीपी की अगुआई वाली सरकार वहां बनी, तो बहुतों की निगाह में यह एक विरोधाभासी गठबंधन था, पर इसे एक अद्भुत अवसर की तरह भी देखा गया। जम्मू और घाटी के बीच चली आ रही मानसिक खाई को पाटने के साथ ही इसे हिंदू-मुसलिम सौहार्द का संदेश भी बनाया जा सकता था।
लेकिन हुआ यह कि कश्मीर समस्या का राजनीतिक समाधान खोजने के ‘गठबंधन के एजेंडे’ को ताक पर रख दिया गया। और अभी तो हालत यह है कि केंद्र की क्या मंशा है और पीडीपी का क्या इरादा है, पक्के तौर पर कहना मुश्किल है। डीजीपी वैद ने उचित ही बड़े दुख के साथ कहा है कि जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियां राज्य के लोगों को यह नहीं समझा रहीं कि भारत के साथ रहने में ही उनकी भलाई है; अगर वे ऐसा करें, तो राज्य का माहौल बहुत जल्दी बदला जा सकता है। यह एक वाजिब उम्मीद और दमदार तर्क है। पर उससे भी पहले यह जरूरी है कि केंद्र यह तय करे कि घाटी के लोगों का भरोसा जीतना ही है। और इसी के साथ कुछ ऐसे कदम उठाए जाएं कि घाटी के लोग नए सिरे से सोचने को प्रेरित हों। फिर, घाटी में आधार वाले दलों व राजनीतिकों के जरिए संवाद शुरू किया जा सकता है।