आवश्यकता आविष्कार की जननी है और झारखंड में तो आविष्कार की पाठशाला ही लगती रही है। सत्तारूढ़ भाजपा और आजसू की जोड़ी का विधानसभा चुनाव में मुकाबला करने के लिए विपक्षी दल स्वाभाविक रूप से एक गठबंधन चाहते हैं, जिसमें सबके लिए पर्याप्त जगह तो हो ही, उसमें भाजपा और आजसू का कड़ा मुकाबला करने का जज्बा भी हो। विपक्ष के लिए अब तक विभिन्न कारणों से महागठबंधन को आकार देना संभव नहीं हो पाया है। वहीं एक गुट ऐसा है, जो महागठबंधन से इतर एक नया गठबंधन का प्रयास कर रहा है। वह जिस प्रारूप पर काम कर रहा है, उसमें भाजपा और झामुमो की जगह नहीं है। पर अन्य दलों के लिए समुचित स्पेस है। विधानसभा चुनाव से पहले झारखंड में नये महागठबंधन की चर्चाओं और उसके प्रारूप को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।
आसन्न विधानसभा चुनाव से पहले झारखंड की राजनीतिक फिजां में एक नये गठबंधन की चर्चाएं तैर रही हैं। इस नये गठबंधन में कांग्रेस, झाविमो, आजसू, राजद और वाम मोर्चा को एक मंच पर लाने की कोशिश हो रही है। इसका प्रारूप ऐसा है कि वह गैर भाजपा, गैर झामुमो गठबंधन होगा। और इसकी संभावना इसलिए बन रही है, क्योंकि इसमें सभी घटक दलों की जरूरतें भी आसानी से पूरी हो जा रही हैं। बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाले झाविमो की दिक्कत यह है कि यह कांग्रेस की तरह हेमंत सोरेन का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए, क्योंकि हेमंंत बाबूलाल को अपना बड़ा भाई मानते हैं और बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके होने के बाद मुख्यमंत्री के पद के लिए स्वाभाविक दावेदार हैं। वहीं हेमंत सोरेन भी झारखंड में विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा होने के कारण मुख्यमंत्री और नेतृत्वकर्ता से इतर कुछ भी कमतर स्वीकार नहीं करेंगे। और यह भी सत्य है कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं।
कांग्रेस कम से कम 35 सीटें चाहती है
झारखंड में डॉ रामेश्वर उरांव के नेतृत्व में चुनाव लड़ने में जुटी कांग्रेस कम से कम 35 सीटों पर लड़ना चाहती है। बाबूलाल मरांडी का झाविमो भी कम से कम बीस सीटों पर दावेदारी करेगा। इस गठबंधन में 20 सीटें मिल जाने पर आजसू भी कंफर्टेबल स्थिति में रहेगा और उसे फील गुड होगा। इसके बाद राजद और वाम दल बचते हैं और बाकी बची छह सीटों में एडजस्ट होने में उन्हें शायद ही कोई प्रॉब्लम हो। एक संभावना यह बनती है कि शायद दो-तीन सीटों की और दावेदारी राजद और वामदल करें तो ऐसी स्थिति मेंं बाकी दल अपनी सीटों में कुछ कतर-ब्योंत कर सीट शेयरिंग का यह गणित आसानी से सॉल्व कर लेंगे। यदि यह गठबंधन आकार लेता है तो इससे झारखंड के प्रमुख विपक्षी दल झामुमो और सत्तारूढ़ भाजपा के समक्ष परेशानी खड़ी हो जायेगी। परेशानी भाजपा के लिए इसलिए होगी कि तब वह अकेले चुनाव के मैदान में उतरने को विवश होगी और झामुमो के पास भी ऐसी स्थिति में भाजपा से अकेले भिड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।
पहले का विपक्षी महागठबंधन कारगर क्यों नहीं है
झारखंड में लोकसभा चुनावों के दौरान जिस महागठबंधन ने आकार लिया था, वह अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं कर सका। लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू लोकसभा की 14 में से12 सीटें जीतने में सफल रही, वहीं कांग्रेस और झामुमो को एक-एक सीट पर जीत हासिल हुई। इससे बेहतर परिणाम मिलने की उम्मीदों पर ही झारखंड में महागठबंधन ने आकार लिया था, पर परिणाम आशानुरूप नहीं रहे। विधानसभा चुनाव से पहले पूर्व के महागठबंधन के आकार लेने में दिक्कत यह है कि शीट शेयरिंग पर घटक दलों में सहमति बन ही नहीं पा रही है। झामुमो चालीस सीटें चाहता है। कांग्रेस 35 सीटें चाहती है। ऐसे में झाविमो और राजद के साथ वाम दलों को दिक्कत हो रही है, क्योंकि उन्हें महागठबंधन में उन्हें हिस्सा ही नहीं मिल पायेगा। ऐसे में यह आकार नहीं ले पा रहा है। वहीं इस महागठबंधन में झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी को हेमंत को अपना नेता मानने में दिक्कत हो ही रही है, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव भी असहज हैं। यही वजह है कि जहां सत्तारूढ़ भाजपा चुनाव से पहले अपना फोकस क्लीयर करके 65 प्लस का लक्ष्य निर्धारित करके चल रही है, वहीं विपक्ष के पास चुनाव को लेकर ऐसा कोई क्लीयर और कंक्रीट प्लान नहीं है।
हालांकि हरमू में आयोजित बदलाव महारैली में झामुमो ने 51 बया पक्षियों को पिंजरे की कैद से आजाद करके अपना 51 सीटें जीतने का लक्ष्य प्रचारित करने की कोशिश की, लेकिन इसी तरह की रणनीति समूचे विपक्ष की दिख नहीं रही। जहां भाजपा और आजसू अपनी रणनीति के तहत अपने चुनावी प्रोग्राम को इंप्लीमेंट कर रहे हैं, वहीं विपक्षी दलों में चुनाव को लेकर एका बन ही नहीं पा रहा है।
भाजपा चाहती है आकार न ले सके महागठबंधन
झारखंड में सत्तारूढ़ भाजपा जिस रणनीति के तहत झारखंड में चल रही है, ऐसे में वह स्वाभाविक रूप से यह चाहती है कि झारखंड में महागठबंधन आकार न ले पाये। ऐसा वह इसलिए चाहती है, क्योंकि एकजुट विपक्ष उसकी 65 प्लस के लक्ष्य को मुश्किल बना सकता है और उसकी जीत के लिए विपक्ष का बिखरा रहना ही बेहतर स्थिति है। यह भाजपा के लिए संतोष की बात है कि उसकी यह चाहत अब तक स्वाभाविक रूप से पूरी हो रही है। पर नये महागठबंधन की सुगबुगाहट से उसकी भी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। नये महागठबंधन के आकार लेने की संभावना अधिक इसलिए है, क्योंकि इसमें सभी घटक दलों की जरूरतें स्वाभाविक रूप से पूरी हो रही हैं। खास तो यह है कि इसमें वामदलों और राजद के लिए स्पेस है, जिसकी संभावना पुराने महागठबंधन में नहीं थी या कम थी। नये महागठबंधन जिसकी सुगबुगाहट राजधानी के राजनीतिक गलियारे में चल रही है, इसमें नेतृत्व का जिम्मा कौन करेगा, यह तो अभी स्पष्ट नहीं हुआ है, पर कयास यह है कि इसका नेतृत्व झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी करेंगे। भाजपा के अपने छह विधायकों को तोड़ लिये जाने के झटके के बाद भी बाबूलाल टूटे नहीं हैं और उन्होंने फिर से न सिर्फ अपनी पार्टी में नयी जान फूंकी है, बल्कि चुनाव की तैयारियों में भी पूरे दमखम के साथ जुटे हुए हैं। सोशल मीडिया में जिस तरह से वह आक्रामक प्रचार करने में जुटे हुए हैं, उसका फायदा भी उन्हें चुनाव में मिलने की संभावना है। झारखंड में जो राजनीतिक परिस्थितियां हैं, उसमें नये महागठबंधन का ऊंट किस करवट बैठेगा, बैठेगा भी कि नहीं बैठेगा, यह बताना मुश्किल है, पर इतना तो तय है कि इसकी चर्चा झामुमो और भाजपा की की सेहत के लिए ठीक नहीं है।