Close Menu
Azad SipahiAzad Sipahi
    Facebook X (Twitter) YouTube WhatsApp
    Wednesday, June 11
    • Jharkhand Top News
    • Azad Sipahi Digital
    • रांची
    • हाई-टेक्नो
      • विज्ञान
      • गैजेट्स
      • मोबाइल
      • ऑटोमुविट
    • राज्य
      • झारखंड
      • बिहार
      • उत्तर प्रदेश
    • रोचक पोस्ट
    • स्पेशल रिपोर्ट
    • e-Paper
    • Top Story
    • DMCA
    Facebook X (Twitter) Instagram
    Azad SipahiAzad Sipahi
    • होम
    • झारखंड
      • कोडरमा
      • खलारी
      • खूंटी
      • गढ़वा
      • गिरिडीह
      • गुमला
      • गोड्डा
      • चतरा
      • चाईबासा
      • जमशेदपुर
      • जामताड़ा
      • दुमका
      • देवघर
      • धनबाद
      • पलामू
      • पाकुर
      • बोकारो
      • रांची
      • रामगढ़
      • लातेहार
      • लोहरदगा
      • सरायकेला-खरसावाँ
      • साहिबगंज
      • सिमडेगा
      • हजारीबाग
    • विशेष
    • बिहार
    • उत्तर प्रदेश
    • देश
    • दुनिया
    • राजनीति
    • राज्य
      • मध्य प्रदेश
    • स्पोर्ट्स
      • हॉकी
      • क्रिकेट
      • टेनिस
      • फुटबॉल
      • अन्य खेल
    • YouTube
    • ई-पेपर
    Azad SipahiAzad Sipahi
    Home»Jharkhand Top News»रामविलास पासवान के नहीं होने का मतलब
    Jharkhand Top News

    रामविलास पासवान के नहीं होने का मतलब

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskOctober 10, 2020No Comments6 Mins Read
    Facebook Twitter WhatsApp Telegram Pinterest LinkedIn Tumblr Email
    Share
    Facebook Twitter WhatsApp Telegram LinkedIn Pinterest Email

    कभी ‘मौसम वैज्ञानिक’, तो कभी ‘सूट-बूट वाले दलित नेता’ के विशेषणों से विभूषित रामविलास पासवान के निधन से भारत के सियासी परिदृश्य से एक ऐसे अध्याय का अवसान हुआ है, जिसे दोबारा लिखने की क्षमता शायद किसी में न हो। बिहार के खगड़िया जिले के एक गांव में एक दलित परिवार में पैदा होकर देश की राजनीति में धमाकेदार इंट्री लेनेवाले रामविलास पासवान में कई ऐसी विशेषताएं थींं, जो उन्हें हमेशा दूसरों से अलग करती थी। अपनी ठेठ बोली और बातचीत का गंवई अंदाज साबित करता है कि उन्होंने कभी जमीन से अलग होने की न तो कोशिश की और न ही इसकी इच्छा रखी। आधा दर्जन प्रधानमंत्रियों के साथ काम करनेवाले रामविलास पासवान राजनीति के पिच के क्रिस गेल थे, जो केवल गेंद को बाउंड्री पार करना जानते थे। हर हाल में मुस्कुराते रहना और अपने रास्ते पर अकेले चलनेवाले इस नेता ने कभी दूसरों की परवाह नहीं की। यही खूबी उन्हें दूसरों से अलग करती है। अब रामविलास पासवान नहीं हैं, तो सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर उनके नहीं रहने से राजनीति पर क्या असर पड़ेगा। खास कर बिहार की राजनीति पर रामविलास के नहीं रहने का मतलब क्या हो सकता है। इन सवालों के जवाब तलाशती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    इमरजेंसी के बाद 1977 का आम चुनाव हो रहा था। बिहार की हाजीपुर संसदीय सीट से जनता पार्टी के युवा प्रत्याशी रामविलास पासवान 4.2 लाख मतों के अंतर से चुनाव जीत कर गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करा चुके थे। देश में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। उस समय पहली बार रामविलास पासवान का नाम देश भर में चर्चित हुआ। ढाई साल बाद जब मध्यावधि चुनाव हुआ, तो रामविलास पासवान की जीत का अंतर पांच लाख के पार पहुंच गया और उन्होंने अपने ही रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया था। हालांकि पासवान इसके आठ साल पहले 1969 में विधानसभा चुनाव में जीत का स्वाद चख चुके थे, लेकिन 1977 की रिकॉर्डतोड़ जीत ने उन्होंने राष्ट्रीय नेता बना दिया। उसके बाद से वह राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर जमे रहे। कुल नौ बार वह सांसद रहे। यह रामविलास पासवान के करिश्माई व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि अपने 50 साल के राजनीतिक जीवन में वह केवल 1984 और 2009 में पराजित हुए। इतना ही नहीं, 1989 के बाद से वह केवल नरसिंह राव और डॉ मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल को छोड़ कर हर प्रधानमंत्री की कैबिनेट में रहे।
    1969 में पासवान ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर अलौली सुरक्षित विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और यहां से उनके राजनीतिक जीवन की दिशा निर्धारित हो गयी। वह बाद में जेपी आंदोलन में भी शामिल हुए और 1975 में लगी इमरजेंसी के बाद लगभग दो साल जेल में भी रहे। लेकिन शुरुआत में उनकी गिनती बिहार के बड़े युवा नेताओं में नहीं होती थी।
    रामविलास पासवान समाज के दलित, पिछड़े आदिवासी अल्पसंख्यक और वंचित वर्ग की लड़ाई लड़ने के लिए जाने जाते थे। सही मायनों में रामविलास पासवान में वे सारी योग्यताएं और संभावनाएं मौजूद थीं, जो भारत के पहले दलित प्रधानमंत्री में होनी चाहिए थीं, लेकिन देश की राजनीति के टेढ़े-मेढ़े उलझे रास्तों ने रामविलास पासवान जैसे प्रखर दलित नेता को महज बिहार की राजनीति और केंद्रीय मंत्री तक सीमित कर दिया। बहुत कम लोगों को पता होगा कि जिस मंडल की राजनीति ने देश को सामाजिक न्याय बनाम हिंदुत्व के राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच बांट दिया, उसके प्रमुख सूत्रधारों में एक रामविलास पासवान भी थे। 1980 में जनता पार्टी की हार और कांग्रेस की प्रचंड जीत के बाद भी रामविलास पासवान ने अपने तरीके की राजनीति की। 1987-88 आते-आते राजनीति फिर करवट ले रही थी और कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी गोलबंदी तेज हो गयी, जिसमें पुराने जनता परिवार के तमाम नेता फिर एकजुट होने लगे और रामविलास पासवान गैर कांग्रेसी धारा के सबसे बड़े और प्रखर दलित नेता के रूप में उभर कर सामने आये। तब तक कांशीराम और मायावती की राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं बनी थी। 1984 के लोकसभा चुनावों में चली इंदिरा गांधी की सहानुभूति की आंधी ने तमाम विपक्षी दिग्गजों के साथ रामविलास पासवान को भी चुनाव में हरा दिया था। इसके बाद रामविलास पासवान ने 1985 में बिजनौर लोकसभा क्षेत्र और 1987 में हरिद्वार लोकसभा सीट के उपचुनावों में लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़ा। इन दोनों चुनावों में मायावती भी उनके खिलाफ बसपा से मैदान में थीं, लेकिन दोनों ही दिग्गज चुनाव हार गये। एक दौर था, जब देश में कहीं भी दंगा हो, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों पर हमले और अत्याचार की घटना हो, रामविलास पासवान मौके पर जरूर पहुंचते थे। सामाजिक न्याय का मुद्दा हो या मानवाधिकारों के सवाल, संसद के भीतर उन्हें उठाने का कोई मौका पासवान नहीं छोड़ते थे।
    रामविलास पासवान की राजनीति के अलग तरीके का पता इसी बात से चल जाता है कि वह केवल 1969 में ही अपने इलाके से चुनाव लड़े और जीते। इसके बाद उन्होंने बिहार के उस इलाके का प्रतिनिधित्व किया, जो कहीं से भी उनके इलाके से संबंधित नहीं था। बाहरी होने के बावजूद उनकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई। वर्ष 2000 में उन्होंने अपना अलग दल लोक जनशक्ति पार्टी बनाकर अपनी सियासी सौदेबाजी की ताकत मजबूत कर ली थी, लेकिन फिर भी उन्हें बिहार और राष्ट्रीय राजनीति में किसी न किसी सहारे की जरूरत पड़ती रही। लंबे समय तक धुर भाजपा विरोधी होने के बावजूद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व मे एनडीए सरकार का हिस्सा बने। लेकिन 2002 में गुजरात दंगों ने उन्हें बेहद आहत किया और सरकार से बाहर आकर उन्होंने गुजरात के दौरे किये। तब पासवान ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लगातार कठघरे में खड़ा किया। अटल सरकार में मंत्री रहनेवाले पासवान 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ आ गये और यूपीए की पहली पारी में मंत्री बने। लेकिन 2009 में लालू के साथ उन्होंने यूपीए और कांग्रेस का साथ छोड़ा और पूरे पांच साल सरकार से बाहर रहे। 2014 में कांग्रेस से गठबंधन करते करते वह अचानक भाजपा के साथ चले गये और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार में मंत्री बने जो आखिर तक रहे।
    एक वक्त में रामविलास पासवान सांप्रदायिकता विरोधी धर्मनिरपेक्ष राजनीति में सबसे मुखर और प्रखर चेहरा थे। एक दलित नेता के रूप में उन्होंने अपनी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बनाने की कोशिश की। 1993 में उन्होंने काठमांडू में नेपाल के दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों का एक बड़ा सम्मेलन किया था। इसी तरह का एक सम्मेलन उन्होंने अमेरिका में भी किया था।
    बिहार की जातिवादी राजनीति की धुरी रहे रामविलास पासवान की गैर-मौजूदगी ने जहां आगामी विधानसभा चुनाव में एक बड़ा वैक्यूम खड़ा कर दिया है, वहीं इस बात के कयास भी लगाये जा रहे हैं कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी चिराग पासवान को इस बार सहानुभूति के रूप में कुछ अतिरिक्त समर्थन भी मिलेगा। आज की तारीख में बिहार में रामविलास पासवान के कद का कोई दूसरा दलित नेता नहीं है, इसलिए अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उनकी जगह को कौन कितना भर पाता है।

    Meaning of not having Ram Vilas Paswan
    Share. Facebook Twitter WhatsApp Telegram Pinterest LinkedIn Tumblr Email
    Previous Articleदेश में कोरोना के 73,272 नए मामले, 926 लोगों की मौत
    Next Article श्रीलंका में भी उठी सुशांत के लिए न्याय की मांग, बहन श्वेता ने होर्डिंग शेयर कर कही ये बात
    azad sipahi desk

      Related Posts

      डिटेंशन सेंटर से फरार तीन बांग्लादेशी नागरिक गिरफ्तार, हजारीबाग पुलिस को बड़ी कामयाबी

      June 10, 2025

      मां की हत्या का आरोपित गिरफ्तार

      June 10, 2025

      कांग्रेस नेता राजकुमार रजक का आकस्मिक निधन

      June 10, 2025
      Add A Comment

      Comments are closed.

      Recent Posts
      • डिटेंशन सेंटर से फरार तीन बांग्लादेशी नागरिक गिरफ्तार, हजारीबाग पुलिस को बड़ी कामयाबी
      • बॉक्स ऑफिस पर ‘हाउसफुल-5’ का जलवा, 100 करोड़ के क्लब में शामिल
      • बॉक्स ऑफिस पर ‘ठग लाइफ’ की रफ्तार थमी, फिल्म को नहीं मिला दर्शकों का प्यार
      • भारत ए बनाम इंग्लैंड लायंस: कोटियन-कंबोज की शानदार साझेदारी, दूसरा अनौपचारिक टेस्ट ड्रॉ
      • एफआईएच प्रो लीग: रोमांचक मुकाबले में नीदरलैंड ने भारत को 3-2 से हराया
      Read ePaper

      City Edition

      Follow up on twitter
      Tweets by azad_sipahi
      Facebook X (Twitter) Instagram Pinterest
      © 2025 AzadSipahi. Designed by Microvalley Infotech Pvt Ltd.

      Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.

      Go to mobile version