झारखंड की बेरमो सीट पर होनेवाले उप चुनाव के प्रचार के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास ने झारखंड सरकार पर अमर्यादित टिप्पणी कर एक नये विवाद को जन्म दे दिया। इसके जवाब में झामुमो के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने जोरदार प्रतिवाद कर हथौड़ा मारा। उन्होंने यह संकेत भी दे दिया कि अब इस तरह की टिप्पणी का मुंहतोड़ जवाब दिया जायेगा और इसके लिए पुरजोर तैयारी भी की गयी है। झारखंड में इस प्रकरण के शुरू होने से पहले देश के दूसरे हिस्से में भी राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री और जिला पार्षद तक इस तरह की अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कर विवादों में आ चुके हैं। टीवी चैनलों पर होनेवाले डिबेट शो में मर्यादा की यह दीवार बहुत पहले ध्वस्त हो चुकी है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह बेहद दुखद स्थिति है। भाषा की मर्यादा और व्यवहार की शालीनता राजनीतिक पवित्रता के सूचकांक रूप में देखे जाते हैं और माना जाता है कि इनमें कोई भी गिरावट लोकतंत्र की सेहत में गिरावट का संकेत देता है। हाल के दिनों में नेताओं द्वारा प्रतिद्वंद्वी दलों के नेताओं के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गयी है। यह सिलसिला 2014 से शुरू हुआ और अब तक यह गांवों की गलियों और नुक्कड़ सभाओं तक पहुंच गया है। राजनीति में भाषा की टूटती मर्यादा के संभावित असर का आकलन करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास पेशकश।
घटना 1977 की है। आम चुनावों में ऐतिहासिक जीत हासिल कर मोरारजी देसाई की सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी थी। इंदिरा गांधी को रायबरेली से हरानेवाले राजनारायण केंद्र में मंत्री थे। वह अपने संसदीय क्षेत्र के दौरे पर थे, जहां उनके लिए एक अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया था। सभा में भारी भीड़ थी। राजनारायण जैसे ही भाषण देने के लिए खड़े हुए, उनके समर्थन में जोरदार नारेबाजी होने लगी। राजनारायण पल भर के लिए ठिठके और फिर नारेबाजी कर रहे लोगों से कहा, मुझे इतना बेवकूफ मत समझो। आप लोग धोखेबाज हो। आपने इंदिरा गांधी को धोखा दिया। आप यदि उनके साथ धोखाधड़ी कर सकते हो, तो फिर मुझे धोखा देने में आपको एक सेकेंड भी नहीं लगेगा। नारेबाजी का यह दिखावा मेरे सामने मत करो। भीड़ बेहद नाराज हो गयी, क्योंकि राजनारायण ने ऐसी कड़वी सच्चाई बता दी थी, जिससे रायबरेली के मतदाता तिलमिला गये थे। इस वाकये का विवरण देते हुए प्रख्या पत्रकार मार्क टली ने एक साक्षात्कार में कहा था कि भारत में इतने दिनों तक काम करने के बाद पहली बार मुझे किसी नेता के मुंह से ऐसी अमर्यादित टिप्पणी सुनने को मिली। उन्होंने कहा था कि अपने वोटरों को इस तरह कोसने की घटना ने आनेवाले दिनों में राजनीति में भाषा की शालीनता की कमजोर होती दीवार का संकेत दे दिया है।
मार्क टली की भविष्यवाणी सच साबित हुई। 2020 आते-आते राजनीति से भाषा की मर्यादा और आचरण की शालीनता पूरी तरह गायब हो गयी लगती है। कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। इस मामले में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में कोई फर्क नहीं रह गया है। दो दिन पहले बेरमो में चुनावी सभा के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास ने झारखंड सरकार पर जो टिप्पणी की और फिर सत्तारूढ़ झामुमो के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी, वह इसका सबूत है कि इस तरह की भाषा को अब बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। आज रघुवर दास ने कह दिया कि उन्होंने जो कुछ कहा, वह सही है और इससे किसी को मिर्ची लगती है, तो वह कुछ नहीं कर सकते।
भारत की राजनीति में भाषा की मर्यादा लांघने का सिलसिला 2014 के चुनाव में तब शुरू हुआ, जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को रावण कहा और उनके हाथ निर्दोष लोगों के खून से रंगे होने की बात कही। इसके बाद तो ऐसे शब्द वाणों की बाढ़ सी आ गयी। बात बढ़ते-बढ़ते 2019 में यहां तक पहुंच गयी कि भाजपा की प्रत्याशी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने आतंकवादियों से लोहा लेते हुए शहादत देनेवाले एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ अनर्गल टिप्पणी कर दी। 2020 में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखी चिट्ठी में जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसकी आलोचना गृह मंत्री अमित शाह तक कर चुके हैं। इतना ही नहीं, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा भाजपा की एक महिला नेता के खिलाफ की गयी टिप्पणी को राहुल गांधी अस्वीकार कर चुके हैं।
ऐसा नहीं है कि भाषा की मर्यादा कोई एक दल या कोई एक नेता तोड़ता है। इस हमाम में सभी राजनीतिक दल और कुछेक अपवादों को छोड़ कर सभी नेता नंगे हैं। यहां सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। दरअसल नेताओं को यह बात समझ में आ गयी है कि विवादित बयान ही मीडिया की सुर्खियां बन सकते हैं, टीवी चैनलों में बहस का मुद्दा बन सकते हैं। ऐसा होने से उन्हें मुफ्त का प्रचार मिल जाता है और साथ में चर्चा भी होने लगती है। तो क्या भाषा की मर्यादा तोड़ने के लिए केवल मीडिया को जिम्मेवार माना जाये। इस सवाल का जवाब यदि पूरी तरह सकारात्मक नहीं है, तो नकारात्मक भी नहीं है। एकाध को छोड़ कर अधिकांश टीवी चैनलों में होनेवाले डिबेट की जो भाषा आजकल हो गयी है, वह किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में लोग भी ‘60 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ और ‘तड़ीपार’ से लेकर ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘भाई-बहन में शादी करनेवाले’ जैसी भाषा को चटखारे लेकर सुनते हैं-चर्चा करते हैं।
इसका दूसरा कारण यह है कि तेज रफ्तार जमाने की राजनीति की गति भी बहुत तेज हो गयी है। इसलिए नेताओं को पढ़ने-लिखने का मौका कम मिलता है। इसी कारण वे किसी भी तरह से जनता को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हैं। पहले नेता नाप-तौल कर कोई बयान देते थे। अब ऐसा बिल्कुल नहीं है। राजनीति के लिए यह बेहद खतरनाक है। भाषा की मर्यादा और व्यवहार की शालीनता अगर राजनीति में नहीं रहेगी, तो समाज का आचरण भी वैसा ही होने लगेगा। इस बात को नेताओं को समझना होगा। नेता समाज को रास्ता दिखाते हैं और यदि वही इस तरह की भाषा और आचरण का इस्तेमाल करने लगेंगे, तब समाज कहां जायेगा, इसकी कल्पना भी डरावनी है।