झारखंड को राजनीति की प्रयोगशाला के विशेषण से यूं ही नहीं नवाजा गया है। यह राज्य जितना छोटा है, उतनी ही गहरी और संवेदनशील यहां की राजनीति है। इसलिए यहां कौन कब किस कारण से अपनी पार्टी को छोड़ दूसरे खेमे में शामिल हो जायेगा, इसकी भनक भी नहीं लगती है। पिछले साल दिसंबर में हुए चुनाव से पहले कांग्रेस के दो कद्दावर नेताओं, प्रदीप बलमुचू और सुखदेव भगत ने पार्टी को केवल इसलिए अलविदा कह दिया था, क्योंकि उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट देने से मना कर दिया गया था। प्रदीप बलमुचू ने आजसू का दामन थाम लिया था, जबकि सुखदेव भगत भाजपा में शामिल हो गये थे। दोनों ने चुनाव लड़ा, लेकिन जनता ने उन्हें मंजूर नहीं किया। चुनाव के बाद ये दोनों नेता राजनीति की मुख्य धारा से पूरी तरह से अलग होकर रह गये। अब इन दोनों ने घर वापसी के लिए आवेदन दिया है और एक बार फिर इनकी कांग्रेस में वापसी को लेकर तैयारियां शुरू हो गयी हैं। इन दोनों नेताओं को कांग्रेस ने बहुत कुछ दिया। प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी, विधायक-सांसद बनाया, लेकिन बदले में इन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा को तरजीह दी। अब जब कांग्रेस में इनकी वापसी लगभग तय है, बड़ा सवाल यह है कि इससे पार्टी को क्या लाभ होगा। क्या इन दोनों की वापसी से पार्टी की ताकत बढ़ेगी या पहले से गुटबाजी से जूझ रही कांग्रेस में एक और गुट बनेगा। इन सवालों के जवाब की पड़ताल करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

करीब एक महीने पहले जब डॉ अजय कुमार कांग्रेस में वापस आये थे, तभी ये ये कयास लगने लगे थे कि बहुत जल्द सुखदेव भगत और प्रदीप बलमुचू की वापसी का रास्ता भी तैयार किया जायेगा। अब इन दोनों नेताओं ने कांग्रेस में वापसी के लिए आवेदन दे दिया है और समझा जाता है कि उप चुनाव के बाद पार्टी में इनकी वापसी हो जायेगी, झारखंड कांग्रेस एक नये मुकाम पर पहुंचती दिख रही है।
सुखदेव भगत और प्रदीप बलमुचू कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में शुमार रहे हैं। प्रशासनिक सेवा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए सुखदेव भगत को कांग्रेस ने दो बार विधायक बनाया, फिर विधायक दल का नेता मनोनीत किया और प्रदेश कमिटी की कमान भी सौंपी। प्रदीप बलमुचू को न केवल विधायक, बल्कि राज्यसभा का सांसद भी बनाया गया और प्रदेश कांग्रेस की कमान भी सौंपी गयी। पार्टी में इतना रुतबा और इतना सम्मान मिलने के बावजूद इन दोनों ने दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस को अलविदा कह दिया। सुखदेव भगत भाजपा में चले गये और प्रदीप बलमुचू ने आजसू का दामन थाम लिया। इन दोनों के कांग्रेस छोड़ने का एकमात्र कारण इनकी महत्वाकांक्षा थी। पार्टी ने इन्हें टिकट देने से मना कर दिया था। इन दोनों को चुनाव का टिकट तो मिला, लेकिन जनता का आशीर्वाद इन्हें नहीं मिल सका। सुखदेव भगत को लोहरदगा से डॉ रामेश्वर उरांव ने हराया, जबकि बलमुचू घाटशिला से झामुमो के रामदास सोरेन से हार गये। चुनाव हारने के बाद ये दोनों नेता राजनीति की मुख्य धारा से कट गये। नयी पार्टियों में इनके लिए जगह नहीं बनी और यही कारण है कि ये दोनों एक बार फिर से कांग्रेस में वापसी के लिए तैयार हो गये हैं।
इन दोनों की वापसी को झारखंड कांग्रेस के नये गेम प्लान का हिस्सा माना जा रहा है, जिसके तहत पार्टी के पुराने कद्दावर नेताओं की घर वापसी करायी जानी है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की योजना झारखंड की राजनीति में नया हलचल पैदा करने की है, जिसकी मदद से वह एक बार फिर राजनीति की मुख्य धारा में लौट सके। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या कांग्रेस के भीतर के वे तमाम मुद्दे खत्म हो गये हैं, जिनके कारण इन दोनों ने पार्टी छोड़ी थी। इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं, लेकिन झारखंड कांग्रेस के एक पुराने नेता के अनुसार, इन दोनों नेताओं के पार्टी छोड़ने का एकमात्र कारण इनकी निजी महत्वाकांक्षा थी। चूंकि भाजपा और आजसू में इनका एडजस्ट हो पाना असंभव था, इसलिए इनके सामने कांग्रेस में लौटने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रह गया था। उस नेता ने साफ कहा कि कांग्रेस एक महासागर है और इससे बाहर जानेवालों या इसमें आनेवालों से पार्टी कभी प्रभावित नहीं होती।
लेकिन झारखंड कांग्रेस की हकीकत कुछ दूसरी ही कहानी कहती है। राज्य के दो दशक के राजनीतिक इतिहास में पार्टी पहली बार 16 विधानसभा सीटें जीतने में कामयाब हुई है। झामुमो के साथ मिल कर वह सरकार चला रही है। इन दोनों की वापसी के बाद झारखंड की राजनीति में उनकी क्या भूमिका होगी, यह तय नहीं है, लेकिन एक बात साफ है कि पार्टी छोड़ते समय उन्होंने कांग्रेस के बारे में जो कुछ कहा था, उसे लोग अब तक भूले नहीं हैं। ऐसे में आशंका इस बात की भी है कि कहीं इनकी वापसी झारखंड कांग्रेस के लिए कोई नया संकट न खड़ा कर दे।
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के 135 साल का इतिहास बताता है कि इस पार्टी ने बुरे से बुरे दौर को भी झेला है। कई बार इसे खारिज समझा गया, लेकिन इसने खुद को खड़ा रखा और साबित किया है। यह भी सच है कि बेहद आक्रामक वाले राजनीति के इस दौर में पुराने तौर-तरीके बहुत अधिक प्रभावी नहीं रह गये हैं। ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व को लगने लगा है कि खुद को मजबूत करने के लिए अपने पुराने नेताओं को इकट्ठा किया जाये। इस लिहाज से देखा जाये, तो सुखदेव भगत और प्रदीप बलमुचू की वापसी को सही फैसला करार दिया जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि ये दोनों कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे हैं। इनकी वापसी का लाभ कांग्रेस को मिलेगा, लेकिन इसका एक खतरा पार्टी के पुराने स्वरूप में लौटने का भी है, जिसमें गुटबाजी चरम पर होती थी। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या ये दोनों पार्टी की वर्तमान व्यवस्था को स्वीकार करेंगे और पार्टी नेतृत्व उनसे पुरानी बातें नहीं दोहराने का ठोस आश्वासन ले सकेगा।
कांग्रेस ने हाल के दिनों में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ने नये किस्म की राजनीतिक समझ दिखायी है, लेकिन झारखंड में यह प्रयोग कितना सफल हो सकेगा, यह कहना बेहद मुश्किल है। झारखंड की परिस्थिति पूरी तरह अलग है और कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति भी। ऐसे में पार्टी आलाकमान अपने पुराने नेताओं को एकत्र कर झारखंड की राजनीति में कितनी ताकत हासिल कर पाती है, यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।

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