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    Home»विशेष»जातीय राजनीति के शोर में अलग से गूंज रहा ओबीसी का मुद्दा
    विशेष

    जातीय राजनीति के शोर में अलग से गूंज रहा ओबीसी का मुद्दा

    adminBy adminOctober 16, 2023No Comments8 Mins Read
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    -47 फीसदी ओबीसी वोटरों को अपने पक्ष में आकर्षित करने में जुटीं पार्टियां
    -दलितों-पिछड़ों के समूह से अलग इस वर्ग का हमेशा से रहा है अलग रुझान
    -बड़ा सवाल: इस बार चुनावों में किस तरफ झुकेगा ओबीसी वोटरों का पलड़ा

    चुनावी बुखार में तप रहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आजकल जातीय राजनीति की धूम मची हुई है। हर दल राजनीति के अपेक्षाकृत इस नये स्वरूप से बचना तो चाहता है, लेकिन वोटों की लालच उसे घुमा-फिरा कर फिर से इसी तालाब में धकेल देती है। जातीय राजनीति के इस शोर में दलितों और पिछड़ों की बात तो हो रही है, लेकिन ओबीसी, यानी अन्य पिछड़ा वर्गों की बात कम ही सुनाई पड़ती है, जबकि हकीकत यह है कि देश में ओबीसी जातियों की आबादी करीब 47 प्रतिशत है और यह किसी भी चुनाव के परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। स्वाभाविक है कि इतनी विशाल आबादी को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए हर दल अपने तरीके से कोशिश करने लगा है। 2014 और 2019 के चुनाव में ओबीसी का झुकाव आम तौर पर भाजपा की तरफ रहा था, जिसका मुख्य कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इसी समुदाय से आना था। लेकिन इस बार जातीय जनगणना के मुद्दे पर लीड लेकर कांग्रेस और विपक्षी दलों ने भाजपा के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटा और जातिगत सर्वेक्षण की मांग कर ओबीसी वोटरों की गोलबंदी की कोशिश में जुटी कांग्रेस की यह चाल ऊपर-ऊपर तो प्रभावी दिख रही है, लेकिन अब तक यह तय नहीं है कि इस बार ओबीसी समुदाय का पलड़ा किस तरफ झुकेगा। देश के चुनावी माहौल में ओबीसी कार्ड की स्थिति और इसके संभावित झुकाव के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    चुनावी तपिश में तप रहे पांच राज्यों के साथ पूरे देश में इन दिनों जाति का मुद्दा सियासत के केंद्र में है। इसे लेकर सत्ता पक्ष या विपक्ष में कोई अंतर नजर नहीं आ रहा है, हालांकि अब तक इस मुद्दे का पलड़ा किस तरफ झुका हुआ है, इसका संकेत नहीं मिल सका है। लेकिन इस जाति की सियासत के शोर में एक ऐसा वर्ग हाशिये पर धकेल दिया गया है, जो देश भर के चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि इस वर्ग की चुनावी क्षमता और ताकत का अंदाजा होने के बाद अब राजनीतिक दल इसे साधने की कोशिश में जुट गये हैं। यह वर्ग है ओबीसी का, जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहते हैं। एक अनुमान के अनुसार देश की आबादी का 47 प्रतिशत हिस्सा ओबीसी समुदाय का है। कहा जाता है कि यह आबादी जिस तरफ झुक जाती है, चुनावी जीत उसकी ही होती है। इसलिए अगले महीने होनेवाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और फिर अगले साल होनेवाले संसदीय चुनावों में इस समुदाय को साधने की तमाम कोशिशें शुरू हो गयी हैं।

    ओबीसी समुदाय किसके साथ
    भारत का चुनावी इतिहास बताता है कि ओबीसी समुदाय 2014 से पहले तक आम तौर पर विभाजित रहा था। लेकिन 2014 में पहली बार इसने भाजपा के पक्ष में वोट किया। इसका मुख्य कारण नरेंद्र मोदी का ओबीसी समुदाय का होना था। चुनावों में भाजपा ने जीत हासिल की और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गये। अगले पांच साल उनकी सरकार के कामकाज और दुनिया भर में भारत की स्थिति में सुधार को ओबीसी समुदाय ने अपनी जीत के तौर पर लिया। इसलिए 2019 में एक बार फिर इस समुदाय ने कुछेक अपवादों को छोड़ कर भाजपा का साथ दिया और पार्टी को प्रचंड बहुमत हासिल हो गया।
    पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 15 फीसदी ओबीसी वोट, जबकि भाजपा को 44 फीसदी ओबीसी वोट मिला था। यहां तक कि सामाजिक न्याय की राजनीति करनेवाले दलों के हिस्से में भी 41 फीसदी ओबीसी वोट ही आया था, जबकि 1996 में भाजपा को 21 फीसदी, सामाजिक न्याय वाले दलों को 54 फीसदी और कांग्रेस को 24 फीसदी ओबीसी वोट मिला था। ये आंकड़े ही बता देते हैं कि क्यों राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगाने की जरूरत है।

    इस बार स्थिति अब तक साफ नहीं
    लेकिन इस बार स्थिति अब तक साफ नहीं है। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ओबीसी कार्ड जम कर खेल रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार इस मुद्दे को उठा रहे हैं, गोया उनके पास कोई गेम चेंजिंग आइडिया आ गया है। भले ही विपक्षी गठबंधन के सभी दल जातीय जनगणना के पक्ष में न हों, पर राहुल गांधी इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बता रहे हैं। कांग्रेस शासित राज्यों में जातिगत जनगणना की गारंटी दी जा रही है। यहां तक कि महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री ने भी अपने अधिकारियों को बिहार के अधिकारियों से जातिगत जनगणना की प्रक्रिया की जानकारी लेने को कहा है। असम के मुख्यमंत्री सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना कराने की घोषणा कर चुके हैं। ओड़िशा में नवीन पटनायक जातिगत सर्वे करवा चुके हैं और पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट का इंतजार है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री के पास ओबीसी सर्वे की रिपोर्ट तैयार पड़ी है, जिसे उचित समय पर सार्वजनिक करने की बात की जा रही है। आचार संहिता लागू होने से पहले राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जातीय सर्वे की घोषणा तो कर ही चुके हैं, राहुल गांधी की मौजूदगी में ओबीसी का आरक्षण 21 फीसदी से बढ़ा कर 26 करने का एलान भी कर चुके हैं। अब नीतीश कुमार सरकार की अगली रिपोर्ट का इंतजार हो रहा है। उसमें पता चलेगा कि किस जाति के कितने लोग सरकारी नौकरी में हैं, किस पद पर हैं, निजी क्षेत्र में किस जाति के कितने लोग हैं, कितनों के पास कार-मोटरसाइकिल या साइकिल है और कितनों के पास कितनी जमीन है। इससे यह भी पता चलेगा कि सुशासन बाबू के राज में सामाजिक न्याय की दिशा में कितना काम हुआ, महादलितों, महापिछड़ों और पसमांदा मुस्लिमों की आर्थिक हालत कैसी है? नीतीश कुमार इसे समझ रहे हैं, तभी तो कह रहे हैं कि सर्वे कराने का मकसद राजनीति करना नहीं, बल्कि ओबीसी की वास्तविक संख्या का पता लगा कर उसके हिसाब से विकास की योजनाएं बनाना है।
    यही बात राहुल गांधी भी कर रहे हैं। वह समझ रहे हैं कि ओबीसी जनगणना को युवा ओबीसी को मिले रोजगार के मौकों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण से जोड़ना है। पढ़ाई और नौकरी युवा ओबीसी को लंबे समय तक विपक्षी गठबंधन से जोड़े रख सकती है। कांग्रेस समझ रही है कि उसे सत्ता में आना है, तो अपने वोट बैंक में भारी-भरकम इजाफा करना है। ऐसा वोट बैंक महापिछड़े ही हैं।
    इस हिसाब से आगामी दिसंबर से देश में सियासत करने का तरीका बदलने वाला है। अगर कांग्रेस ने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में जीत हासिल की, तो ऐसा नरैटिव स्थापित किया जायेगा, जैसे यह ओबीसी वोट की गोलबंदी से हुआ है। वैसी स्थिति में जातीय सर्वे की घोषणा कर दी जायेगी। आगामी जनवरी में जब भाजपा अयोध्या में राम मंदिर का भव्य उद्घाटन समारोह करवा रही होगी, तब विपक्ष के भीतर से ओबीसी सर्वे की मांग उठ रही होगी। बिहार का सर्वे सामने आया, तो प्रधानमंत्री मोदी ने इसे विपक्ष का पाप बताया। मोदी ने अगले दिन गरीब को सबसे बड़ी जाति बताया, तो कांग्रेस पर मुसलमानों का हक छीनने का अजीबो-गरीब आरोप जड़ दिया। मोदी के इस बयान के गहरे अर्थ हैं। गरीबों की बात कर मोदी ने हर उस वर्ग को प्रभावित करने की कोशिश की है, जो आज भी दो जून की रोटी के लिए जिंदगी की जंग लड़ रहा है। उसका तो सारा दिन रोटी की जुगाड़ में कट जाता है। जात-पात के लफड़े उसे समझ में नहीं आते। उसे जहां दो जून की रोटी दिखती है, वह वहीं अपना श्रम बेचने लगता है। मजदूर की भूमिका में ये लोग यह नहीं देखते कि वे हिंदू के यहां काम कर रहे हैं या मुसलमान के यहां। अगड़ों के यहां काम कर रहे हैं या पिछड़ों के यहां। उन्हें तो सिर्फ दो जून की रोटी की चिंता है। मोदी इस बात को भलीभांति समझते हैं। इसीलिए उन्होंने गरीबों की संख्या सबसे बड़ी बतायी है। जाहिर है, उसे अपने पक्ष में करने के लिए ही केंद्र सरकार ने मुफ्त में अनाज और अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं। इसका क्रम आगे भी जारी रहेगा। ये ऐसी सुविधाएं हैं, जिन्हें लेने के बाद लोग अंतरात्मा की आवाज पर वोट करते हैं और उसी में भाजपा का पलड़ा भारी हो जाता है।
    गरीबों को ही ध्यान में रख कर भाजपा की रणनीति का एक रास्ता रोहिणी कमीशन की ओबीसी कोटे को चार श्रेणियों में बांटने की सिफारिश की तरफ जाता है, पर इसके अपने राजनीतिक जोखिम हंै। भाजपा को सवर्णों का भी ध्यान रखना है, जो उसका कोर वोट बैंक है। संघ ने वर्षों की मेहनत के बाद ओबीसी को भाजपा के पक्ष में लाने में सफलता पायी है। दलितों में महादलित और पिछड़ों में महापिछड़ों को लेकर भाजपा नये सिरे से गोलबंदी करने की सोच रही है। अगर ऐसा हुआ, तो देश में नये सिरे से जातीय गोलबंदी होगी और इस सोशल इंजीनियरिंग की गंगा में कौन बचेगा, कौन बह जायेगा, अंदाजा लगाना मुश्किल है।

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