आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक ज्ञान रंजन।
रांची। 18 वर्ष पहले 22 नवंबर 2000 को झारखंड विधानसभा अस्तित्व में आयी थी। एचइसी के लेनिन भवन को विधानसभा वेश्म के रूप में सजाया गया था। झारखंड की जनता को इस बड़ी पंचायत से काफी उम्मीद थी। जिस तरह के लोग पहली विधानसभा में जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उनसे काफी उम्मीद थी। सबने कसम खायी थी कि देश की आदर्श विधानसभा झारखंड को बनाना है। सच मानिये तो इसकी शुरुआत भी हुई थी। देश की कई विधानसभाओं की नियमावली का अध्ययन कर झारखंड विधानसभा की कार्य संचालन नियमावली बनायी गयी।
उस समय मध्यप्रदेश विधानसभा के प्रधान सचिव आनंद पयासी के नेतृत्व में नियमावली को तैयार कराया गया। कई ऐसी चीजें जो विरले ही किसी विधानसभा की नियमावली में थी, उसे झारखंड विधानसभा की कार्यसंचालन नियमावली के जोड़ा गया।
मसलन मध्यप्रदेश के बाद झारखंड विधानसभा दूसरी विधानसभा थी, जिसमें मुख्यमंत्री प्रश्नकाल के लिए हर सोमवार को आधे घंटे का समय प्रश्नकाल के बाद निर्धारित किया गया। इसे झारखंड विधानसभा का सौभाग्य कहिये या फिर दुर्भाग्य, एक विद्वान स्पीकर सदन को इंदर सिंह नामधारी के रूप में मिला। प्रारंभिक दौर में ऐसा लगा कि झारखंड विधानसभा देश की लोकत्रांत्रिक व्यवस्था में एक मिसाल कायम करेगी। कई ऐसे निर्णय उस समय झारखंड विधानसभा ने लिये, जो अन्य विधानसभाओं के लिए नजीर बन सकती थी। विधानसभा में याचिका समिति का गठन किया गया, जनता अपने विधायक से हस्ताक्षर कराकर इस समिति में अपनी समस्या को रख सकती थी।
याचिका समिति के माध्यम से स्पीकर ने जनता के हित में कई काम किये। लगभग ढाई वर्षों तक झारखंड विधानसभा हर मायने में एक आदर्श विधानसभा की तरह काम कर रही थी। यहां तक कि उस समय के लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कई मौके पर झारखंड विधानसभा की मिसाल दी थी। सदन की कार्यवाही कितने दिनों की हो, इसके लिए सोमनाथ दा ने कर्नाटक विधानसभा के तत्कालीन स्पीकर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी थी, जिसमें झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष को सदस्य बनाया गया था। सत्ता की चकाचौंध के चक्कर में आकर तत्कालीन स्पीकर इंदर सिंह नामधारी ने ऐसा कदम उठाया कि आदर्श बनने से पहले ही इस विधानसभा में ऐसा कुछ हुआ, जिसने पूरी तरह से सदन की मर्यादा को खत्म कर दिया।
अचानक यह विधानसभा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आघात पहुंचाने के लिए जाना जाने लगा। उस समय तो ऐसा लगा कि विधानसभा रणक्षेत्र में तब्दील हो गया हो। स्पीकर के आसन पर प्रहार किया गया। यहां तक कि स्पीकर के आसन के समक्ष रखे तिरंगे का भी अपमान किया गया। खैर एक सप्ताह के बाद यह मामला ठंडाया और फिर सब कुछ सामान्य हो गया। लगातार यह चर्चा का विषय बना रहा कि सदन की कार्यवाही को वर्ष में कम से कम 60 दिनों का किया जाये।
यहां यह कहना उचित होगा कि किसी भी सरकार ने सदन की कार्यवाही को ज्यादा दिनों तक चलाने में दिलचस्पी नहीं दिखायी। अलबत्ता जब वह विपक्ष में होता था, तो सदन की कार्यवाही कम दिनों का होने को लेकर सरकार को पानी पीकर कोसने का काम करते थे, लेकिन वही जब सत्ता में आते तो इस बात को भूल जाते थे। सरकार ने जब जैसा चाहा सदन को अपने हिसाब से चलाया। विधानसभा का स्पीकर बदलता रहा, लेकिन कुछ नहीं बदला तो वह था विधानसभा की कार्यवाही पर सरकार का वर्चस्व। सदन से पिछले 18 वर्षों में कई कानून बने।
हर बार यह बात होती रही कि विधेयक को कम से कम सात दिन पहले विधायकों के पास भेज दिया जायेगा, ताकि वह उस पर अपना संशोधन दे सकें, आज तक यह लागू नहीं हुआ। सरकार की तरफ से अपने हिसाब से विधानसभा सचिवालय को विधेयक की कॉपी भेजी जाती रही। कोई वर्ष ऐसा नहीं रहा कि विधानसभा की कार्यवाही में हंगामा नहीं होता हो, लेकिन सदस्यों के सवाल भी सदन में उठते रहे थे। पिछले तीन वर्षों में तो मानो ऐसा लग रहा है कि जनता के प्रतिनिधि ही सदन नहीं चलने देने का मन बनाकर विधानसभा में आते हैं। एक भी ऐसा दिन पिछले तीन वर्षों में नहीं रहा जिसमें सदस्यों ने सदन को चलने दिया।
तीन वर्षों में तीन बजट सरकार ने सदन से पारित कराये, नौ अनुपूरक बजट पारित हुए, लेकिन विपक्ष का संशोधन बजट और अनुपूरक बजट पर नहीं आया। प्रश्नकाल में प्रश्न नहीं आये, मुख्यमंत्री प्रश्नकाल जिसमें विधायकों को सदन में मुख्यमंत्री से सीधे नीतिगत सवाल करने का अधिकार दिया गया है, वह नहीं उठ पाया। सदस्यों के हंगामे के कारण जनता ठगी गयी पर सरकार ने अपना सभी काम विधानसभा में किया। इन तीन वर्षों में कई ऐसे मौके आये जिसमें विधानसभा को रणक्षेत्र में तब्दील होते देखा गया।
स्पीकर के आसन पर प्रहार किया गया। उन पर स्प्रे तक फेंका गया। सदन में विधायकों ने टेबल पर चढ़ कर हंगामा किया। इससे पहले सदन में वरिष्ठ विधायक समरेश सिंह ने कुरता फाड़कर विरोध किया था। स्थिति यह बन गयी थी कि विधेयक को पारित करने के लिए स्पीकर को सदन के भीतर मार्शल को मुस्तैद करना पड़ा था। कह सकते हैं कि 18 वर्षों की विधानसभा का कार्यकाल काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा। जो उपलब्धियां झारखंड विधानसभा ने हासिल की थीं, कालांतर में वह समाप्त हो गयीं।
देखा जाये तो इसके लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वह हैं हमारे माननीय। ये वही माननीय हैं जिन्हें हमने राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में अपना बहुमूल्य वोट देकर भेजा है। उन्हें इस सपने के साथ भेजा है कि वे हमारी समस्या को सदन में रखेंगे, सरकार तक हमारी समस्या के लिए आवाज बुलंद करेंगे। लेकिन 18 वर्षों में कुछ वर्षों को छोड़ दिया जाये तो जनहित की समस्या में हमारे माननीयों ने कभी भी एकमत होकर काम नहीं किया। अलबत्ता जब उनकी अपनी सुविधाओं और वेतन भत्ता में वृद्धि की बात आती तो सभी पक्ष-विपक्ष की दीवार को भुलाकर एक हो जाते। इसका प्रमाण है कि 18 वर्षों में अब तक आठ बार विधायकों के वेतन-भत्ते और सुविधाओं में वृद्धि की गयी है। आज किसी भी कंपनी के फोन में लगभग चार सौ रुपये में कम से कम 70 दिनों का मुफ्त टॉक टाइम और नेट फ्री दिया जा रहा है, हमारे माननीय अभी भी हर महीने टेलीफोन खर्च के रूप में 10 हजार रुपये उठा रहे हैं।
सालाना पांच लाख रुपये यात्रा के नाम पर उठाते हैं। इन्हें गाड़ी खरीदने के लिए साधारण ब्याज पर ऋण दिया जाता है। हर वर्ष स्थल अध्ययन के नाम पर राज्य के बाहर और अंदर दो बार यात्रा पर भेजा जाता है।
18 सालों में सिर्फ 443 दिन ही चला सदन
झारखंड गठन के 18 साल पूरे हो चुके हैं और राज्य 19वें वर्ष में प्रवेश कर गया है। परंतु राज्य में विधानसभा का सत्र दिनों-दिन छोटा ही होता जा रहा है। आम तौर पर बजट सत्र कम से कम 25 दिन की परंपरा रही है। पर पिछले दो सत्रों से विपक्ष के हंगामे के कारण बजट सत्र की अवधि भी घटती जा रही है। आंकड़ों की बात करें, तो पिछले सालों में मात्र 443 दिन ही सदन चल सका है।
पिछले दो वर्षों से स्थिति यह बनी हुई है कि हंगामे के कारण सदन एक दिन भी पूरी तरह से नहीं चल पा रहा है। इससे जनता के सवाल हंगामे में दबते जा रहे हैं। जानकारों के मुताबिक किसी भी लोकतंत्र के लिए यह हालात अच्छे नहीं कहे जा सकते। पिछले बजट सत्र में इस हंगामे के कारण जनता से जुड़े जन प्रतिनिधियों के 1058 सवाल पूछे या उठाये नहीं जा सके। इसका मलाल उन विधायकों को भी है, जिन्होंने हंगामा नहीं किया और उन्हें भी है, जो हंगामे में शामिल रहे। भले विधायक इसके लिए सत्तापक्ष और विपक्ष को दोषी बतायें, पर आखिरकार जनता के बीच जाकर उन्हें ही जवाब देना है। उन्हें यह भी पता है कि अब जनता के बीच जाने में ज्यादा वक्त भी नहीं बचा है।
6570 दिनों की उम्र वाले झारखंड में सदन की कार्यवाही सिर्फ 443 दिन
झारखंड को बने 18 साल हो गये। इन 18 सालों में झारखंड ने हर तरह के राजनीतिक प्रयोग को देखा। बड़े लंबे समय तक राजनीतिक अस्थिरता देखी। 18 साल यानि 6570 दिनों वाले झारखंड में सदन की कार्यवाही भी काफी कम दिन चली।