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    Home»Top Story»कटा टिकट तो गये छिटक, यहां नहीं तो कहीं और सही
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    कटा टिकट तो गये छिटक, यहां नहीं तो कहीं और सही

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskNovember 18, 2019No Comments5 Mins Read
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    भाजपा में ऐसे टिकटार्थियों की भरमार, जिनमें पार्टी के प्रति समर्पण गायब, महत्वाकांक्षा हावी
    आसन्न विधानसभा चुनावों से ठीक पहले टिकट के बंटवारे के दौरान 10 सीटिंग विधायकों का टिकट कटने से भाजपा में असहज स्थिति उत्पन्न हो गयी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि वैसे नेता, जो पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों से परे सिर्फ टिकट की आस में पार्टी में थे, उन्होंने बगावत का बिगुल फूंकते हुए दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिया। बोरियो विधायक और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष ताला मरांडी ने टिकट कटने के बाद झामुमो का दामन थाम लिया। वहीं छतरपुर विधायक राधाकृष्ण किशोर भी आजसू में चले गये। फूलचंद मंडल भी टिकट की आस खत्म होने पर भाजपा छोड़कर झामुमो की शरण मेें जा चुके हैं। इसी तरह शालिनी गुप्ता और बुलू रानी सिंह भी टिकट मिलने का अवसर समाप्त होते ही आजसू में चली गयीं। वहीं झारखंड सरकार में मंत्री पद संभाल चुके पूर्व मंत्री वैद्यनाथ राम भी बागी रुख अख्तियार करते हुए झामुमो के हो चुके हैं। इन्हें आस थी कि लातेहार से पार्टी सीटिंग विधायक प्रकाश राम को टिकट न देकर इन पर विचार करेगी, पर पार्टी ने प्रकाश राम पर भरोसा करते हुए उन्हें टिकट देना अधिक बेहतर समझा। वैद्यनाथ राम ने भाजपा के टिकट पर लातेहार से जीतकर झारखंड का शिक्षा मंत्री बनने का सुख हासिल किया था। बरकट्ठा के भाजपा नेता अमित यादव भी बागी हो चले हैं। जयप्रकाश सिंह भोक्ता भी नाराज हैं। उमाशंकर अकेला और फूलचंद मंडल भी पार्टी छोड़ चुके हैं। इन नेताओं ने यह साबित कर दिया है कि इनका पार्टी में रहने का एकमात्र मकसद टिकट लेना था और भाजपा की नीतियों और सिद्धांतों पर चलने का इनका वादा महज जुमला था। हालांकि इस विरोध को मैनेज करने में पार्टी नेता सौदान सिंह और मंगल पांडेय लगे हुए हैं और यह उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि 10 में से सिर्फ तीन विधायकों ने बागी रुख अख्तियार किया है। पर इन परिस्थितियों ने भाजपा के लिए आत्ममंथन का अवसर तो पैदा कर ही दिया है कि वह ये विचार ले कि अब अगली दफा जब वह नेताओं को पार्टी में शामिल करेगी, तो उनके चाल, चरित्र और चेहरे पर अच्छी तरह विचार करके ही करेगी, क्योंकि पार्टी की पहचान एक कैडर बेस्ड पार्टी की रही है और कार्यकर्ताओं तथा नेताओं की पार्टी के प्रति निष्ठा और समर्पण पार्टी में रहनेवालों के लिए अनिवार्य शर्त सी रही है।

    क्यों हुआ नेताओं का मोहभंग
    विधानसभा चुनाव में 65 प्लस का लक्ष्य हासिल करने में जुटी भाजपा ने अपने विधायकों की लोकप्रियता का आकलन करने के लिए तीन सर्वे कराये थे। इन सर्वे रिपोर्ट में पार्टी के कई विधायकों की रिपोर्ट नेगेटिव आयी थी। इसके बाद भाजपा ने करीब चौदह विधायकों का टिकट काटने का निश्चय किया था। उनमें से 10 का टिकट पार्टी काट चुकी है, जबकि अभी 2 का टिकट होल्ड पर रखा है। 23 अक्टूबर को भाजपा के प्रदेश कार्यालय में आयोजित महामिलन समारोह में दूसरे दलों से जो नेता शामिल हुए, उनमें से अधिकांश को पार्टी ने टिकट दे दिया। फिर चाहे वह कुणाल षाडंÞगी हों या कांग्रेस के मनोज यादव। झामुमो के बागी जयप्रकाश भाई पटेल हों या भानु प्रताप शाही। पार्टी ने कांग्रेस से आये सुखदेव भगत को भी टिकट देकर उनसे किया अपना वादा निभाया। इससे पहले भी पार्टी में नेताओं की एक बड़ी जमात शामिल हुई। इसके बाद भाजपा ने टिकट बंटवारे में अपने कई विधायकों का टिकट काट दिया और पार्टी में भगदड़ मच गयी। इससे पहले लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने अपने चार सांसदों का टिकट काट दिया था। खूंटी से कड़िया मुंडा, गिरिडीह से रवींद्र पांडेय, कोडरमा से रवींद्र राय और रांची से सांसद रहे रामटहल चौधरी का पार्टी ने टिकट काटा था। खूंटी से पार्टी ने कड़िया की जगह अर्जुन मुंडा को प्रत्याशी बनाया और यहां से जीतकर अर्जुन मुंडा कैबिनेट मंत्री बने। रामटहल चौधरी की जगह पार्टी ने जब खादी बोर्ड के अध्यक्ष संजय सेठ को प्रत्याशी बनाया, तो रामटहल चौधरी ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। लोकसभा चुनाव में वह अकेले लड़े और हार गये। संजय सेठ ने कांग्रेस के उम्मीदवार सुबोधकांत सहाय को हराया और पहली बार संसद पहुंचने में सफल रहे। इस दौरान सिर्फ रामटहल चौधरी के बागी तेवर अख्तियार करने से पार्टी की अधिक किरकिरी नहीं हुई और पार्टी ने डैमेज कंट्रोल कर लिया। पर अब जिस तरह से थोक के भाव नेता और विधायक पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, उससे विपक्षी दलों को भी बोलने का मौका मिल गया है। भाजपा में हुई भगदड़ ने यह साबित कर दिया है कि पार्टी में ऐसा नेता भी अपना ठिकाना बनाकर रह रहे थे, जिनको पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों से कोई मतलब नहीं था। इन्हें सिर्फ कुर्सी से मतलब था और सत्ता की मलाई हासिल करने से मतलब था। जैसे ही इन्हें यह मौका हाथ से निकलता दिखा, इन्होंने पार्टी छोड़ने में एक मिनट का वक्त भी नहीं लगाया। भाजपा के लिए यह परिस्थिति यह समझ विकसित करने की है कि किसी भी पार्टी से आये नेता को खुद में समाहित करने से पहले वह उसके चाल, चरित्र और चेहरे को अच्छी तरह से परख ले। पार्टी के प्रति वह निष्ठावान है या नहीं, इसकी पहचान कर ले, वरना ऐसी परिस्थितियां पार्टी के समक्ष असहज परिस्थितियां उत्पन्न करती रहेंगी।

    Broken tickets were spoiled if not here then somewhere else
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