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    Home»Jharkhand Top News»पुलिस के राजनीतिकरण का सबूत है अर्णब की गिरफ्तारी
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    पुलिस के राजनीतिकरण का सबूत है अर्णब की गिरफ्तारी

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskNovember 5, 2020No Comments6 Mins Read
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    देश के चर्चित पत्रकार अर्णब गोस्वामी को चार नवंबर की सुबह महाराष्ट्र की पुलिस ने दो साल पुराने मामले में गिरफ्तार कर लिया है। इस गिरफ्तारी ने साबित कर दिया है कि भारतीय पुलिस व्यवस्था पूरी तरह राजनीतिक रंग में रंग चुकी है और उससे मानवाधिकारों की रक्षा की बात बेमानी है। अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी जिस मामले में की गयी है, वह दो साल पुराना है और अदालत में पुलिस ने इसे बंद करने का शपथ पत्र दिया हुआ है। इसके बावजूद देश के एक प्रतिष्ठित पत्रकार और उससे भी कहीं अधिक एक नागरिक को जिस बेशर्म तरीके से उसके घर से घसीटा गया, उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया और फिर एक गैंगस्टर की तरह पकड़ कर थाने ले जाया गया, वह पुलिस का शर्मनाक चेहरा ही उजागर करता है। अर्णब की पत्रकारिता की स्टाइल का कुछ लोगों को विरोध हो सकता है, लेकिन महाराष्ट्र पुलिस की कार्यशैली तो इस मामले में अमानवीय ही नहीं, नैतिक पतन की पराकाष्ठा ही कही जा सकती है। इस पुलिसिया कार्रवाई के पीछे किसी मामले की जांच की नहीं, बल्कि बदला चुुकाने की नीयत ही झलकती है। इसलिए महाराष्ट्र पुलिस और वहां की सरकार की निंदा हो रही है। आज पूरे देश के पत्रकार इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी की पृष्ठभूमि में देश की पुलिस व्यवस्था के राजनीतिकरण के दुष्प्रभावों पर रोशनी डालती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    देश के चर्चित पत्रकार अर्णब गोस्वामी की महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के साथ ही भारत के पुलिस तंंत्र के राजनीतिकरण पर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी है। अर्णब गोस्वामी को दो साल पुराने एक मामले में गिरफ्तार किया गया है। यह मामला आत्महत्या के लिए उकसाने का है। अर्णब के चैनल के दफ्तर की अंदरूनी साज-सज्जा करनेवाले एक व्यक्ति ने दो साल पहले आत्महत्या कर ली थी। उसने जो सुसाइड नोट छोड़ा था, उसमें उसने कहा था कि अर्णब और दो अन्य लोगों ने उसका 5.40 करोड़ का बकाया नहीं दिया, जिस कारण उसका बिजनेस डूब गया और वह आत्महत्या कर रहा है। सुसाइड नोट में अर्णब पर 83 लाख रुपये के बकाये का जिक्र है। इस मामले की पुलिस ने पूरी गहनता से जांच की और अदालत में शपथ पत्र देकर कहा कि उसे अर्णब गोस्वामी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला है। इसलिए वह इस मामले की फाइल बंद करना चाहती है। अदालत ने इसकी इजाजत दे दी और मामला खत्म हो गया। उसी मामले को इस साल मई महीने में दोबारा खोल कर महाराष्ट्र की पुलिस ने दो साल बाद कुछ सबूत मिलने की बात कही है और अर्णब को गिरफ्तार कर लिया है।
    पुलिस का दावा है कि अर्णब की गिरफ्तारी पूरी तरह कानूनसम्मत है और उसकी कार्रवाई किसी दुर्भावना से प्रेरित नहीं है। लेकिन पुलिस का यह दावा उतना ही खोखला है, जितना लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का दावा।
    अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी जिस तरीके से की गयी और उनके साथ जो सलूक किया गया, वह एक भारतीय नागरिक के मानवाधिकार का सरासर उल्लंघन है। यह सही है कि अर्णब की यह गिरफ्तारी पत्रकारिता से जुड़े किसी मामले में नहीं की गयी है, इसके बावजूद एक भारतीय नागरिक के रूप में उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाने का अधिकार किसी को नहीं है। यदि पुलिस को उनके खिलाफ सबूत मिले थे, तो उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया जा सकता था और अदालत से वारंट लेने के बाद ही उनकी गिरफ्तारी शालीन तरीके से की जा सकती थी। लेकिन महाराष्ट्र पुलिस ने उनके साथ जो सलूक किया और एक खतरनाक अपराधी की तरह उन्हें घसीट कर ले जाया गया, उसकी जितनी भी निंदा की जाये, कम है।
    महाराष्ट्र पुलिस की यह कार्रवाई भारतीय पुलिस व्यवस्था के राजनीतिकरण का जीता-जागता उदाहरण है। आजादी के बाद पुलिस का ऐसा चेहरा कई बार सामने आया, लेकिन इसकी गंभीरता की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसलिए खाकी का रंग धीरे-धीरे राजनीतिक दलों के झंडों के रंग में बदलता गया। इसके लिए वह तंत्र पूरी तरह से जिम्मेवार है, जो सत्ता में आने के साथ ही पुलिस-प्रशासन को अपनी चेरी, अपना निजी सेवक समझने लगता है। झूठे मामलों में गिरफ्तारी हो या फर्जी मुठभेड़, आम लोगों को बेवजह परेशान करना हो या राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाना हो, पुलिस व्यवस्था का हरदम इस्तेमाल किया गया। इसलिए 18वीं शताब्दी की शुरुआत में अमेरिका के प्रख्यात पत्रकार और समाजशास्त्री बेंजामिन फै्रंकलिन ने कहा था कि पुलिस एक ऐसा तंत्र है, जो कभी किसी का नहीं हो सकता, नागरिक का भी नहीं। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में पुलिस को कानून के पालन की खुली छूट कतई नहीं दी जानी चाहिए। शांति-व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी आम नागरिकों पर छोड़ देनी चाहिए। उनका यह कथन पुलिस व्यवस्था के प्रति अविश्वास की पराकाष्ठा थी, लेकिन उन्होंने खाकी वर्दी के जिस खतरनाक रूप का खाका खींचा था, वह बोस्टन शहर से हजारों मील दूर भारत में साढ़े तीन सौ साल बाद हकीकत में बदलता दिख रहा है।
    आजादी से पहले और बाद में पुलिस का अमानवीय चेहरा कई बार सामने आया। कई बार इस चेहरे को बदलने के लिए आवाज भी उठायी गयी और गंभीर प्रयास भी किये गये। लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। हालत यह हो गयी है कि पुलिस आज भी आम लोगों के लिए आतंक का पर्याय है। अमेरिका हो या भारत, अफ्रीका हो या यूरोप का कोई देश, पुलिस का सामाजिक चेहरा कहीं नजर नहीं आता। ऐसे में महाराष्ट्र पुलिस ने अर्णब के साथ जो व्यवहार किया, उसके लिए केवल उसे ही जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है।
    आज की पुलिस व्यवस्था तो सत्ता और सरकार की गुलाम बन चुकी है, जिसका काम केवल अपने आकाओं को खुश और निरापद रखना है। महाराष्ट्र सरकार में बैठे लोग भले ही पुलिस की कार्रवाई से अपना पल्ला झाड़ें, लेकिन अंतिम जिम्मेवारी तो उनकी ही बनती है।
    अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है कि पुलिस की पवित्र अवधारणा को आम लोगों के अनुकूल बनाने के लिए गंभीर प्रयास करने की जरूरत है। अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी को महज एक घटना के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह एक बीमार सिस्टम की पराकाष्ठा है। यदि इस मामले पर आज चुप्पी साध ली गयी, तो यकीन मानिये, कल आपकी और हमारी बारी भी आ सकती है। और तब हमारे पास अफसोस करने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।

    Arunab's arrest is proof of police politicization
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