बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम की घोषणा के बाद जब भाजपा ने एनडीए का सबसे बड़ा घटक दल होने के बावजूद नीतीश कुमार को सीएम बनाया, तो इसे राजनीति की नयी परिपाटी की संज्ञा दी गयी। माना गया कि भाजपा ने गठबंधन धर्म का पालन किया है और चुनाव से पहले किये गये वादे के अनुरूप नीतीश को सीएम के पद पर बैठाया है। लेकिन दरअसल खेल इतना भर नहीं है। भाजपा का यह कदम साबित करता है कि पार्टी 2020 के बारे में नहीं सोच रही है, बल्कि उसकी निगाहें तो 2024 पर हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा की निगाहें हमेशा ही भविष्य पर रहती हैं और वह उसके अनुरूप ही रणनीति बनाती है। इसका प्रमाण यूपी से लेकर असम और मणिपुर तक और कर्नाटक से लेकर गोवा तक में मिल चुका है। भाजपा बिहार के रास्ते 2024 के लक्ष्य को भेदने में जुट गयी है, जिसके रास्ते में अभी बंगाल और फिर यूपी भी आयेंगे। इसके बाद 2023 में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में इस रणनीति की परीक्षा होगी। क्या है भाजपा की रणनीति और इसे कैसे अंजाम दिया जा रहा है, इस बारे में आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

पिछले साल 30 मई को जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार दूसरी बार गैर-कांग्रेसी सरकार दिल्ली में शपथ ले रही थी, उस समय देश की राजनीति पर नजर रखनेवाले एक पूर्व कांग्रेसी ने कहा था कि भाजपा का लक्ष्य अभी पूरा नहीं हुआ है। उसने 2024 नामक एक फिल्म बनायी है, जिसका फर्स्ट लुक 2020 में बिहार में जारी होगा। इसके बाद 2021 में बंगाल में उस फिल्म का पोस्टर जारी होगा।
2022 में फिल्म का टीजर यूपी में दिखेगा और ट्रेलर 2023 में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में प्रदर्शित होगा। उस नेता की यह टिप्पणी गले से नहीं उतर रही थी, लेकिन उसने कहा था कि यह भाजपा से ही संभव है कि वह अगले पांच साल का अपना एजेंडा बना कर चले। बातचीत लंबी थी, लेकिन उसका लब्बो-लुआब यही था कि भाजपा हमेशा आगे की सोचती है। इसलिए वह दूसरों से आगे रहती है। दूसरों के लिए 2024 के आम चुनाव में अभी करीब साढ़े तीन साल का लंबा वक्त बाकी है, लेकिन भाजपा के लिए यह केवल साढ़े तीन साल है। इसलिए वह अभी से ही तैयारी में जुट गयी है।
ऐसे में पहला उदाहरण बिहार का। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू से लगभग दोगुनी सीट जीतने के बावजूद भाजपा ने उन्हें मुख्यमंत्री का पद दे दिया। यह उसी रणनीति का हिस्सा है। पार्टी ने जिस तरह उत्तरप्रदेश में मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर अपना जनाधार बढ़ाया, उसी तरह उसने बिहार में नीतीश कुमार को सत्ता सौंप कर अपनी ताकत बढ़ा ली है। दरअसल भाजपा के लिए ये दो राज्य हमेशा से चुनौती बने रहे थे। तमाम प्रयासों के बावजूद उसे कामयाबी नहीं मिल रही थी। इसका खास कारण यह था कि ये दोनों राज्य हिंदुत्व के एजेंडे की बजाय सामाजिक परिवर्तन और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के रास्ते पर ही आगे बढ़ रहे थे। 1990 में यूपी में मायावती सामाजिक न्याय का चेहरा थीं और भाजपा ने उन्हें सीएम बना कर अपने हित के लिए इस्तेमाल किया। यूपी में शासन मायावती का था, लेकिन काम भाजपा कर रही थी। उसने बसपा को सत्ता की चकाचौंध में इतना डुबा दिया कि उसे आगे की राह दिखनी बंद हो गयी। इसका परिणाम सामने है और आज यूपी में भाजपा को चुनौती देनेवाला कोई नहीं है।
लगभग यही रणनीति भाजपा ने बिहार में नीतीश कुमार के साथ अपनायी है। बिहार में नीतीश आज भी सामाजिक परिवर्तन और धर्मनिरपेक्ष राजनीति का चेहरा माने जाते हैं, लेकिन भाजपा ने उन्हें हिंदुत्व का चेहरा बना दिया है। नीतीश तब तक ही सत्ता में रहेंगे, जब तक वह भाजपा के बताये रास्ते पर चलते रहेंगे। जिस दिन भाजपा को उनसे खतरा महसूस हुआ, वह नीतीश के साथ भी वही करेगी, जो उसने मायावती के साथ किया। इसका नतीजा भी यह होगा कि भाजपा को तो नीतीश की जरूरत नहीं होगी, लेकिन नीतीश के लिए भाजपा के साथ बने रहना मजबूरी होगी। भाजपा ने पिछले पांच साल के दौरान बिहार में नीतीश के सहारे अपने एजेंडे को धीरे-धीरे धार दी और नीतीश के जनाधार में ही सेंध लगा दी। इसका परिणाम आज सामने है।
भाजपा का चुनावी रथ अब बंगाल की ओर चल पड़ा है, जहां बिहार का चुनाव परिणाम आने से पहले अमित शाह दो दिन के दौरे पर पहुंच चुके थे। उनके दौरे के बाद पार्टी की प्रदेश इकाई अचानक आक्रामक हो गयी है और अब चुनावी तैयारी शुरू कर चुकी है। बंगाल के बाद फोकस यूपी पर होगा, जहां 2022 में चुनाव होने हैं। वैसे कहा यह जा रहा है कि यूपी में अपनायी जानेवाली रणनीति बंगाल के परिणाम पर भी आधारित होगी, लेकिन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ दो-दो हाथ करने की तैयारी पार्टी ने शुरू कर दी है। कहा जा रहा है कि तब तक राम मंदिर भी आकार ले लेगा और उसे हर कीमत पर 2024 के चुनाव से पहले तैयार कर दिया जायेगा, ताकि भाजपा को किसी अतिरिक्त मुद्दे की जरूरत नहीं पड़े।
भाजपा नेतृत्व को पता है कि 2024 में नरेंद्र मोदी का करिश्माई चेहरा चुनाव मैदान में नहीं होगा, जिसका असर भी दिख सकता है। यह बात खुद मोदी पिछले साल भाजपा संसदीय दल की पहली बैठक में भी कह चुके हैं। ऐसे में पार्टी ऐसे चेहरों को आगे बढ़ाने में जुटी है, जो उसके लिए वोट की अच्छी पैदावार दे सकें।
कुल मिला कर भाजपा ने बिहार में जो प्रयोग किया है, उसका उसे तात्कालिक लाभ यह होगा कि वह पर्दे के पीछे रह कर भी अपना उद्देश्य हासिल कर सकती है, जबकि बदनाम तो नीतीश होंगे। यही फॉर्मूला पार्टी अब हर उस प्रदेश में अपनायेगी, जहां उसे क्षेत्रीय दलों के साथ दो-दो हाथ करना है। स्वाभाविक तौर पर बंगाल उसका अगला ठिकाना होगा।

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