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    Home»Top Story»तीन बार तलाक कहना सबसे ज्यादा अपमानजनक: हाईकोर्ट
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    तीन बार तलाक कहना सबसे ज्यादा अपमानजनक: हाईकोर्ट

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीDecember 8, 2016No Comments4 Mins Read
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    इलाहाबाद:  ‘‘तीन बार तलाक’’ देने की प्रथा पर प्रहार करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि इस तरह से ‘‘तुरंत तलाक’’ देना ‘‘नृशंस’’ और ‘‘सबसे ज्यादा अपमानजनक’’ है जो ‘‘भारत को एक राष्ट्र बनाने में ‘बाधक’ और पीछे ढकेलने वाला है।’’ न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की एकल पीठ ने पिछले महीने अपने फैसले में कहा, ‘‘भारत में मुस्लिम कानून पैगम्बर या पवित्र कुरान की भावना के विपरीत है और यही भ्रांति पत्नी को तलाक देने के कानून का क्षरण करती है।’’

    अदालत ने टिप्पणी की कि ‘‘इस्लाम में तलाक केवल अति आपात स्थिति में ही देने की अनुमति है। जब मेल-मिलाप के सारे प्रयास विफल हो जाते हैं तो दोनों पक्ष तलाक या खोला के माध्यम से शादी खत्म करने की प्रक्रिया की तरफ बढ़ते हैं।’’

    अदालत ने पांच नवम्बर को दिए गए फैसले में कहा, ‘‘मुस्लिम पति को स्वेच्छाचारिता से, एकतरफा तुरंत तलाक देने की शक्ति की धारणा इस्लामिक रीतियों के मुताबिक नहीं है। यह आम तौर पर भ्रम है कि मुस्लिम पति के पास कुरान के कानून के तहत शादी को खत्म करने की स्वच्छंद ताकत है।’’ अदालत ने कहा, ‘‘पूरा कुरान पत्नी को तब तक तलाक देने के बहाने से व्यक्ति को मना करता है जब तक वह विश्वसनीय और पति की आज्ञा का पालन करती है।’’ इसने कहा, ‘‘इस्लामिक कानून व्यक्ति को मुख्य रूप से शादी तब खत्म करने की इजाजत देता है जब पत्नी का चरित्र खराब हो, जिससे शादीशुदा जिंदगी में नाखुशी आती है। लेकिन गंभीर कारण नहीं हों तो कोई भी व्यक्ति तलाक को उचित नहीं ठहरा सकता चाहे वह धर्म की आड़ लेना चाहे या कानून की।’’

    अदालत ने 23 वर्षीय महिला हिना और उम्र में उससे 30 वर्ष बड़े पति की याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। हिना के पति ने ‘‘अपनी पत्नी को तीन बार तलाक देने के बाद’’ उससे शादी की थी। पश्चिम उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले दंपति ने अदालत का दरवाजा खटखटाकर पुलिस और हिना की मां को निर्देश देने की मांग की थी कि वे याचिकाकर्ताओं का उत्पीड़न बंद करें और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।

    बहरहाल अदालत ने स्पष्ट किया कि वह याचिकाकर्ता के वकील के तर्कों का विरोध नहीं कर रही है कि दंपति ‘‘वयस्क हैं और अपना साथी चुनने के लिए स्वतंत्र हैं’’ और उन्हें संविधान के तहत प्राप्त मूलभूत अधिकारों के मुताबिक ‘‘जीवन के अधिकार तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार’’ से वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा, ‘‘न ही उम्र में अंतर कोई मुद्दा है। परंतु जो बात दुखद है वह है कि व्यक्ति ने निहित स्वार्थ की खातिर अपनी पत्नी को तुरंत तलाक (तीन बार तलाक) देने का इस्तेमाल किया.. पहले याचिकाकर्ता (महिला) ने अपना परिवार छोड़ा और दूसरे याचिकाकर्ता के साथ हो गई और इसके बाद दूसरे याचिकाकर्ता ने अपनी पत्नी से छुटकारा पाने का निर्णय किया।’’ अदालत ने कहा, ‘‘जो सवाल अदालत को परेशान करता है वह यह है कि क्या मुस्लिम पत्नियों को हमेशा इस तरह की स्वेच्छाचारिता से पीड़ित रहना चाहिए? क्या उनका निजी कानून इन दुर्भाग्यपूर्ण पत्नियों के प्रति इतना कठोर रहना चाहिए? क्या इन यातनाओं को खत्म करने के लिए निजी कानून में उचित संशोधन नहीं होना चाहिए? न्यायिक अंतरात्मा इस विद्रूपता से परेशान है?’’ अदालत ने टिप्पणी की, ‘‘आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष देश में कानून का उद्देश्य सामाजिक बदलाव लाना है। भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय है, इसलिए नागरिकों का बड़ा हिस्सा और खासकर महिलाओं को निजी कानून की आड़ में पुरानी रीतियों और सामाजिक प्रथाओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।’’

    अदालत ने टिप्पणी की, ‘‘भारत प्रगतिशील राष्ट्र है, भौगोलिक सीमाएं ही किसी देश की परिभाषा तय नहीं करतीं। इसका आकलन मानव विकास सूचकांक सहित कई अन्य पैमाने पर किया जाता है जिसमें समाज द्वारा महिलाओं के साथ होने वाला आचरण भी शामिल है। इतनी बड़ी आबादी को निजी कानून के मनमानेपन पर छोड़ना प्रतिगामी है, समाज और देश के हित में नहीं है। यह भारत के एक सफल देश बनने में बाधा है और पीछे की तरफ धकेलता है।’’ अदालत ने कहा, ‘‘महिलाएं पैतृक ढांचे की मर्जी पर नहीं रह सकतीं जो अलग––अलग मौलवियों के चंगुल में हैं जो पवित्र कुरान की मनमर्जी व्याख्या करते हैं। किसी भी समुदाय के निजी कानून संविधान के तहत लोगों को मिले अधिकार पर अपना आधिपत्य नहीं जता सकते।’’ अदालत ने कहा कि वह ‘‘इस मुद्दे पर कुछ और नहीं कहना चाहती है क्योंकि मामला फिलहाल उच्चतम न्यायालय के पास है।’’ अदालत ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि ‘‘शादी––तलाक की वैधता और संबंधित पक्षों के अधिकार खुले रखे गए हैं।’’

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