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    Home»विशेष»झारखंड ही नहीं, देश का भी नुकसान करेगी बकाये पर टकराव
    विशेष

    झारखंड ही नहीं, देश का भी नुकसान करेगी बकाये पर टकराव

    shivam kumarBy shivam kumarDecember 18, 2024No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    केंद्र का बकाये से इनकार के बाद अब झारखंड के साथ उसके रिश्ते बिगड़ेंगे
    1.36 लाख करोड़ के बकाये का मुद्दा मिल-बैठ कर सुलझाने की है जरूरत

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में लगातार दूसरी बार सरकार बनने के बाद अब केंद्र के साथ पहले टकराव की जमीन तैयार हो गयी है। केंद्र सरकार द्वारा झारखंड के 1.36 लाख करोड़ के बकाये के दावे को नकारे जाने के बाद यह मुद्दा एक बार फिर गरम हो गया है। झारखंड सरकार का दावा है कि राज्य में कोयला खनन की रॉयल्टी और खदानों के लिए जमीन अधिग्रहण के एवज में केंद्र के पास यह रकम बकाया है, लेकिन केंद्र सरकार ने लोकसभा में इस संबंध में पूछे गये एक सवाल के जवाब में कहा कि झारखंड का उसके पास कोई बकाया नहीं है। केंद्र के इस स्टैंड पर झारखंड सरकार ने विरोध जताया है। केंद्र सरकार द्वारा बकाये से इनकार किये जाने के बाद मुख्यमंत्री सीएम हेमंत सोरेन ने दोहराया है कि झारखंड की मांग जायज है। उन्होंने राज्य के सांसदों से इस बकाये के लिए संसद में आवाज उठाने का आग्रह किया है। राज्य में हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान बकाये का यह मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया था। झारखंड सरकार ने चार बार इस मुद्दे को लेकर केंद्र को चिट्ठी लिखी थी, लेकिन केंद्र से कोई जवाब नहीं आया। हेमंत सोरेन ने इस मुद्दे को लेकर अदालत में जाने तक की बात कही है। अब केंद्र द्वारा बकाये से इनकार किये जाने के बाद झारखंड के साथ उसके रिश्तों में खटास आना अवश्यंभावी हो गया है। यह खटास न केवल झारखंड के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है, क्योंकि देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयले का 40 फीसदी हिस्सा झारखंड ही देता है। दूसरे खनिज भी झारखंड से ही मिलते हैं। इसलिए बकाये के मुद्दे पर अब दोनों पक्षों के बीच बातचीत कर इसे सुलझाने की जरूरत है, ताकि रिश्तों में खटास पैदा नहीं हो। क्या है 1.36 लाख करोड़ के बकाये का विवाद और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड का सियासी माहौल अचानक एक बार फिर गरम हो गया है। इसका कारण केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी का लोकसभा में दिया गया वह बयान है, जिसमें उन्होंने कहा कि झारखंड का केंद्र सरकार पर कोई बकाया नहीं है। उन्होंने दो दिन पहले लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित जवाब में कहा कि केंद्र सरकार के पास कोयले के राजस्व का झारखंड का कोई हिस्सा लंबित नहीं है। केंद्र के इस जवाब के बाद झारखंड में सियासी तौर पर बवाल मचना स्वाभाविक है।

    क्या है बकाये का मुद्दा
    कोयला और दूसरे खनिजों की रॉयल्टी का यह मुद्दा इसी साल अगस्त में पैदा हुआ। इसी साल 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को एक अप्रैल 2005 के बाद से रॉयल्टी का पिछला बकाया वसूल करने का अधिकार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 1989 के एक फैसले को पलटते हुए कहा था कि राज्यों के पास खनिजों पर टैक्स लगाने का अधिकार है। पहले यह अधिकार केंद्र सरकार के पास होता था। कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा खनन कपंनियों द्वारा खनिज संपन्न राज्यों को बकाये का भुगतान अगले 12 वर्ष में क्रमबद्ध तरीके से किया जा सकता है। इसके साथ ही कोर्ट ने खनिज संपन्न राज्यों को रॉयल्टी के बकाये के भुगतान पर किसी तरह का जुर्माना नहीं लगाने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश केंद्र की उस याचिका को खारिज करते हुए दिया था, जिसमें 25 जुलाई के फैसले के संभावित प्रभाव के बारे में पूछा गया था। इस फैसले में राज्यों को खनिज अधिकारों और खनिज युक्त भूमि पर कर लगाने के अधिकार को बरकरार रखा गया था और उन्हें एक अप्रैल, 2005 से रॉयल्टी का बकाया मांगने की अनुमति दी गयी थी।

    फैसले के बाद झारखंड ने की थी मांग
    सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद झारखंड सरकार ने हिसाब लगाया कि केंद्र सरकार के पास उसके रॉयल्टी मद में 1.36 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं। इस बकाये के भुगतान के लिए मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक ने केंद्र को पत्र लिखा था। सीएम हेमंत सोरेन ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले 24 सितंबर को भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। चुनाव में इसे मुद्दा भी बनाया था। बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर कोयला रॉयल्टी के रूप में राज्य को कथित रूप से देय 1.36 लाख करोड़ रुपये के भुगतान की मांग की थी। पीएम को लिखे पत्र में सीएम ने कहा था कि कोयला कंपनियों पर हमारा 1.36 लाख करोड़ रुपये बकाया है। कानून में प्रावधानों और न्यायिक घोषणाओं के बावजूद कोयला कंपनियां भुगतान नहीं कर रही हैं। ये सवाल आपके कार्यालय, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग सहित विभिन्न मंचों पर उठाए गये हैं, लेकिन अभी तक इसका भुगतान नहीं किया गया है। सीएम ने कहा था कि बकाया राशि का भुगतान न होने के कारण झारखंड का विकास और आवश्यक सामाजिक-आर्थिक परियोजनाएं बाधित हो रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला एवं बाल विकास, स्वच्छ पेयजल और अंतिम छोर तक कनेक्टिविटी जैसी सामाजिक क्षेत्र की विभिन्न योजनाएं धन की कमी के कारण जमीनी स्तर पर लागू नहीं हो पा रही हैं।

    क्या है बकाये का हिसाब
    यह सही है कि झारखंड का सामाजिक-आर्थिक विकास मुख्य रूप से खनन और खनिजों से होने वाले राजस्व पर निर्भर करता है, जिसमें से 80 प्रतिशत कोयला खनन से आता है। विभिन्न स्रोतों से जो जानकारी सामने आयी है, उससे साफ हो गया है कि झारखंड में काम करने वाली कोयला कंपनियों पर मार्च 2022 तक राज्य सरकार का लगभग 1.36 लाख करोड़ रुपये का बकाया है। इसमें धुले कोयले की रॉयल्टी के मद में 2900 करोड़, पर्यावरण मंजूरी की सीमा के उल्लंघन के एवज में 32 हजार करोड़, भूमि अधिग्रहण के मुआवजे के रूप में 41 हजार 142 करोड़ और इस पर सूद की रकम के तौर पर 60 हजार करोड़ रुपये बकाया हैं।

    2020 में ढाई सौ करोड़ दिया था कोयला मंत्रालय ने
    केंद्र द्वारा बकाये से इनकार किये जाने के बाद अब यह सवाल उठाया जा रहा है कि जब झारखंड का कोई बकाया नहीं है, तब 2020 में तत्कालीन कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ढाई सौ करोड़ रुपये की रकम क्यों दी थी। यह रकम कोयला कंपनियों द्वारा जमीन लिये जाने के एवज में बकाये रकम के रूप में दी गयी थी। उस समय कहा गया था कि कोयला कंपनियों के पास झारखंड का करीब आठ हजार करोड़ रुपये बकाया हैं। यह बकाया केवल जमीन की कीमत है।

    क्या हैं केंद्र और राज्यों के बीच के आर्थिक रिश्ते
    जहां तक केंद्र और राज्यों के बीच वर्तमान आर्थिक रिश्तों का सवाल है, तो 2024-25 में राज्यों के राजस्व का करीब 42 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार से आने का अनुमान है। लेकिन जैसा हाल दिख रहा है, उसमें लगता नहीं कि इतने भर से काम चल जायेगा। तमिलनाडु, पंजाब, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना ने खनिज रॉयल्टी के बकाये की मांग पहले ही रख दी है। इस मुद्दे पर कई राज्यों ने नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार तक कर दिया था। इन राज्यों ने केंद्र पर राज्य का फंड रोकने का आरोप लगाया है।

    मिलजुल कर खोजना होगा रास्ता
    अर्थशास्त्री कहते हैं कि पिछले दो दशकों में केंद्र के स्तर पर सेस लगाने का चलन बढ़ा है। केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी वित्त आयोगों की सिफारिशों के आधार पर तय की जाती है, लेकिन सेस में राज्यों को कुछ नहीं मिलता। वहीं, राज्य जीएसटी के चलते अपने राजस्व स्रोत घटने की शिकायतें करते रहे हैं। कैश ट्रांसफर योजनाओं में भी संयम की जरूरत है। केंद्र और राज्यों को मिलजुल कर इसका रास्ता निकालना होगा।

    झारखंड के साथ टकराव से होगा नुकसान
    इधर बकाये को लेकर झारखंड के साथ टकराव से देश का नुकसान होना तय है। इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दोनों पक्षों को बैठना होगा। यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि आंकड़ों का हिसाब है। झारखंड का पक्ष जानना भी जरूरी है। यदि तनाव बढ़ा, तो झारखंड में इसकी प्रतिक्रिया हो सकती है, जिसका नुकसान पहले भी दिख चुका है। खनिजों का परिवहन रोकने से लेकर आर्थिक नाकेबंदी तक का परिणाम देश भुगत चुका है। इसलिए इस बकाये के मुद्दे को जल्द से जल्द सुलझाना ही अच्छा होगा।

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