- भाजपा को 2024 में महसूस होगा बिहार के घाव का दर्द!
- ताजा सर्वे के नतीजे इंगित कर रहे बिहार चैप्टर का असर
सियासत का बिहार चैप्टर, जिन्हें लग रहा है कि अब बंद हो चुका है, उन्हें समझ लेना चाहिए कि बिहार की असल राजनीति तो अभी शुरू हुई है। बीच-बीच में बिहार अभी कई और राजनीतिक झटके देता रहेगा। कम से कम बिहार की राजनीति का इतिहास तो यही कह रहा है। ऐसे देखा जाये तो ताजा-ताजा सी-वोटर-इंडिया टुडे के सर्वेक्षण के नतीजे बता रहे हैं कि बिहार में जो कुछ हुआ, उसका असर 2024 से आगे भी बना रहेगा। इस सर्वेक्षण के नतीजे के अनुसार अभी यदि देश में चुनाव हो जायें, तो भाजपा और उसके सहयोगियों को स्पष्ट बहुमत तो मिल जायेगा, लेकिन उसकी सीटों की संख्या कम हो जायेगी। यहां तक कि बिहार और महाराष्ट्र में उसे नुकसान उठाना पड़ेगा। वैसे इस तरह के सर्वेक्षण अकसर सही ही साबित नहीं होते, लेकिन यह सच है कि जब लग रहा था कि भाजपा से कम से कम हिंदी बेल्ट में तो कोई बैर नहीं ले सकता, तो बिहार में खेला हो गया। भाजपा अभी महाराष्ट्र का जश्न मना ही रही थी कि बिहार उसके हाथ से निकल गया। इस प्रकरण का भले ही विपक्षी दलों को कोई लाभ हो या नहीं हो, भाजपा को नुकसान जरूर हो गया। इस घाव का दर्द भाजपा को कई और राज्यों और यहां तक कि 2024 के चुनाव में भी महसूस हो सकता है। बिहार प्रकरण के बाद देश भर में तेजी से यह धारणा फैल रही है कि भाजपा को पराजित किया जा सकता है, लेकिन उसके लिए सामूहिक प्रयास जरूरी है। अब तक सियासी फलक पर यह धारणा कायम थी कि देश में भाजपा यत्र-तत्र-सर्वत्र है, लेकिन राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि देश के नक्शे पर मध्यप्रदेश से नीचे कर्नाटक को छोड़ दें, तो भाजपा उतनी ताकतवर नहीं है और मध्यप्रदेश के ऊपर भी यूपी को छोड़ कर ज्यादातर राज्यों में उसकी ताकत लगातार कम हो रही है। यही धारणा भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकती है। अब तो यह भी सवाल उठने लगा है कि आखिर बिहार में भाजपा की रणनीति फेल क्यों हो जाती है। देखा जाये तो रणनीति ही अगर दूसरे के कंधे के ऊपर से बंदूक चला कर लाभ लेने की हो, तो एक न एक दिन कंधा भाग खड़ा होगा ही, वह भी बंदूक के साथ। बिहार का जो साइड इफेक्ट भाजपा को हुआ है या आगे और होनेवाला है, उसका काट क्या होगा, उस कमी की भरपाई किस राज्य से होगी, उसकी रणनीति भाजपा को अभी से ही बनानी पड़ेगी। उसे अभी से नैरेटिव सेट करना पड़ेगा कि उसकी लोकप्रियता में कमी नहीं आयी है। बिहार प्रकरण के बाद भाजपा को हुए नुकसान और उसके संभावित असर का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बिहार में हुए सियासी घटनाक्रम पर अलग-अलग प्रतिक्रियाओं में एक प्रतिक्रिया सबसे सटीक थी, जिसमें लोकप्रिय हिंदी फिल्म वक्त का वह मशहूर डायलॉग था, जिसमें राजकुमार ने कहा था, जिनके अपने घर शीशे के हों, वो दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेका करते। अपनी राजनीतिक चालों और रणनीतियों के कारण सियासी फलक पर छा चुकी भाजपा के साथ बिहार जैसे राज्य में बड़ा गेम हो गया और उसे भनक तक नहीं लगी। इसे खेला इसलिए कहा जा रहा है कि अब तक भाजपा नीतीश कुमार को सबसे भरोसेमंद साथी मानती थी। इसीलिए उसने वहां भाजपा को मजबूत करने के लिए अलग से न तो कोई एजेंडा सेट किया था और न ही अपने मुसलिम विरोध के चेहरे को ही चमका पायी थी। अचानक नीतीश ने गच्चा दे दिया और भाजपा अब बिहार में अकेली पड़ गयी है, उसे गहरा घाव लगा है। यह घाव विश्वासघात और राजनीतिक धोखाधड़ी का है, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठने लगा है कि इस घाव का असर क्या होगा और बिहार में उसकी मौजूदा हालत क्या है?
इस सवाल का जवाब एक हद तक सी-वोटर-इंडिया टुडे द्वारा कराये गये मूड आॅफ दि नेशन सर्वेक्षण के नतीजों से मिल गया है। ये नतीजे गुरुवार को जारी किये गये। इसके नतीजे बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता वैसे तो बरकरार है, लेकिन आज यदि देश में चुनाव हो जायें, तो भाजपा के नेतृत्ववाले एनडीए को नुकसान उठाना पड़ सकता है। यहां तक कि अकेले बिहार में उसे 20 सीटों का नुकसान हो सकता है। सर्वेक्षण बताता है कि महाराष्ट्र में अगर उद्धव लड़ने का मन बनाते हैं और मतदाता के सामने शिंदे को गद्दार साबित करने में कामयाब होते हैं, तो कोई ताज्जुब नहीं कि उन्हें सहानुभूति वोट मिले। हालांकि जिस तरह से उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनने के लिए शिवसेना सिद्धांतों, उसकी नीतियों के विपरीत आचरण किया, उससे बाला साहेब ठाकरे के समर्थक आज भी ठगा महसूस कर रहे हैं। हो सकता है, इसका लाभ भाजपा को मिल जाये। इसी तरह मध्यप्रदेश में अभी हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा को कड़ी टक्कर मिली है। राजस्थान में भाजपा का संगठन चरमराया हुआ है। वसुंधरा राजे सिंधिया और सतीश पूनिया खेमों में तनाव है। ऊपर से गहलोत जैसे धुरंधर से मुकाबला है। भाजपा को राजस्थान में सिर्फ इसलिए शांत नहीं बैठ जाना चाहिए कि वहां गहलोत के शासन से लोगों का एतबार उठ रहा है। सचिन पायलट उनकी जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं। सर्वेक्षण कहता है कि भाजपा को चिंतित होना चाहिए। पंजाब में वापसी में भाजपा को लंबा वक्त लग सकता है। गुजरात में स्थिति भाजपा के अनुकूल है, लेकिन पिछली बार उसे कांग्रेस से जोरदार टक्कर मिली थी। इसे ध्यान में रखना जरूरी है। बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओड़िशा में भाजपा सत्ता से बाहर है। इसलिए उसे इन राज्यों में अधिक ताकत लगानी होगी।
कुल मिला कर निष्कर्ष यह है कि उत्तर के ज्यादातर राज्यों में भाजपा को दोबारा ताकत लगानी होगी। यह सही है कि राज्यों के चुनाव में वोट का पैटर्न अलग होता है और लोकसभा चुनावों में अलग। लेकिन बिहार के बाद अब भाजपा को इसके प्रति आश्वस्त नहीं होना चाहिए, यही समय का तकाजा है। यह सच है कि जो वोटर विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ वोट करता है, वह लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ चला जाता है, लेकिन राज्यों की हालत देख कर इतना तो कहा ही जा सकता है कि भाजपा अजेय नहीं हुई है। यदि विपक्ष कोई ऐसा चेहरा ला पाये, जिसके आसपास लोग गोलबंद हो जायें, तो 2024 में भाजपा को ज्यादा मेहनत करनी पड़ सकती है।
बिहार में भाजपा का भविष्य
लेकिन सवाल है कि भाजपा बिहार में मिले झटके से कैसे उबरेगी। क्या वह अपने दम पर वापसी कर पायेगी और अगर करेगी तो कैसे। बिहार की सियासत में 2005 से 2013 और फिर 2017 से अगस्त 2022 तक भले ही नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से सीएम बने हों, लेकिन वह हमेशा बड़े भाई के रोल में ही रहे। साल 2020 के चुनाव में भाजपा ने ज्यादा सीटें जीतीं, लेकिन फिर भी नीतीश को बड़े भाई के पद से हटा नहीं सकी। अगर देखा जाये तो भाजपा अभी तक नीतीश कुमार के नाम पर ही बिहार में अपनी राजनीति करती रही है। इसके कारण वह बिहार में अपना सियासी आधार नहीं खड़ा कर सकी, अपनी लीडरशिप नहीं खड़ी कर सकी। यह भी सच है कि बिहार भाजपा के पास न ही नीतीश जैसा चेहरा है, न ही लालू यादव की तरह समाजवाद का सिंबल और न ही तेजस्वी की तरह तेजतर्रार युवा नेता। मतलब भाजपा के पास भले ही पीएम मोदी का नाम हो, लेकिन राज्य में सीएम का चेहरा नहीं है। राज्य में सीएम का चेहरा नहीं होने से भाजपा को क्या नुकसान उठाना पड़ता है, यह पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से समझा जा सकता है। बिहार में भाजपा करीब 15 साल से ज्यादा वक्त तक नीतीश कुमार के साथ सत्ता में रही, लेकिन उसके फैसले दिल्ली से ही होते रहे। कौन डिप्टी सीएम बनेगा, किसे क्या विभाग मिलेगा, ये सारे फैसले दिल्ली से हुए। यहां तक कि सुशील मोदी जैसे मंझे नेता को बिहार से हटा कर दिल्ली बुला लिया गया। सुशील मोदी नीतीश कुमार की हर चाल से बखूबी वाकिफ थे। उनके न रहने का खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा। बिहार के बारे में दिल्ली को ही फैसला करना था, लेकिन दिल्ली शायद बिहार की बदलती हवा को वक्त रहते भांप नहीं पाया। वह इस मुगालते में रहा, कि नीतीश जायेंगे तो जायेंगे कहां!
हालांकि इन सबके बीच एक चीज भाजपा के पक्ष में दिखती है, वह है मौका। भाजपा अब अपने नेताओं को उभारने के लिए आजाद है। अब वह बिहार में बेहिचक हिंदुत्व के मुद्दे को जोर-शोर से उठा सकता है। बिहार में साल 2025 में विधानसभा चुनाव होंगे। ऐसे में खुद को मजबूत करने और अकेले आगे बढ़ने के लिए भाजपा के पास अभी तीन साल का वक्त है। वैसे अब भाजपा जहां पहुंच गयी है, उससे आगे बढ़ना तो दूर, उस जगह पर कायम रहना ही उसके सामने असली चैलेंज है। लेकिन जो भाजपा नीतीश को आगे बढ़ा सकती है, वह अपना नेता भी तैयार कर सकती है। बिहार में फिलहाल भाजपा का जो नुक्सान दिखायी पड़ रहा है, वह क्षणिक है। अभी बिहार में राजनीति कई घाटों से गुजरनेवाली है। महागठबंधन सरकार कैसे चलती है, उस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। भाजपा बंगाल में फिर से सक्रिय दिखाई पड़ रही है। अगर बिहार भाजपा का थोड़ा नुकसान भी करेगा तो बंगाल उसकी भरपाई करने को तैयार है। इसका आभास ममता को भी हो चुका है। जिस तरह से ममता के कई मंत्री और नेता भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे हैं, उससे उनकी इमानदारवाली छवि को गहरा आघात लगा है। पश्चिम बंगाल में पार्थ चटर्जी प्रकरण की फुसफुसाहट चहुंओर है। ऐसे में यह साफ है कि भाजपा लोगों के चित से उतरी नहीं है। नीतीश भले कह रहे हैं कि हम रहें या न रहें, लेकिन इतना तय है कि 2014 वाले 2024 में नहीं रहेंगे, लेकिन स्थिति ऐसी नहीं है। विपक्ष को भले लग रहा है कि वह 2024 के भाजपा के चुनावी मुद्दों की हवा निकला देगा। लेकिन क्या जो मुद्दे आज विपक्ष को दिखाई पड़ रहे हैं या भाजपा दिखाने की कोशिश कर रही है, वे मुद्दे उस वक्त होंगे या देश का पूरा माहौल ही बदल जायेगा। अभी पीओके का मुद्दा सिर उठा रहा है। वह भाजपा के एजेंडे में तो है ही।